भूकंप के कारण --
अत्यंत प्राचीन काल से भूकंप मानव के सम्मुख एक समस्या बनकर उपस्थित
होता रहा है। प्राचीन काल में इसे दैवी प्रकोप समझा जाता रहा है। प्राचीन
ग्रंथों में, भिन्न भिन्न सभ्यता के देशों में भूकंप के भिन्न भिन्न कारण
दिये गए हैं। कोई वर्ग इस पृथ्वी को सर्प पर, कोई बिल्ली पर, कोई सुअर पर,
कोई कछुवे पर और कोई एक बृहत्काय राक्षस पर स्थित समझती रहा है। उन लोगों का
विश्वास है कि इन जंतुओं के हिलने डुलने से भूकंप होता है। अरस्तू (384 ई.
पू.) का विचार था कि अध:स्तल की वायु जब बाहर निकलने का प्रयास करती है, तब
भूकंप आता है। 16वीं और 17वीं शताब्दी में लोगों का अनुमान था कि पृथ्वी
के अंदर रासायनिक कारणों से तथा गैसों के विस्फोटन से भूकंप होता है। 18वीं
शती में यह विचार पनप रहा था किश् पृथ्वी के अंदरवाली गुफाओं केश् अचानक
गिर पड़ने से भूकंप आता है। 1874 ई में वैज्ञानिक एडवर्ड जुस (Edward
Sress) ने अपनी खोजों के आधार पर कहा था कि 'भूकंप भ्रंश की सीध में
भूपर्पटी के खंडन या फिसलने से होता है'। ऐसे भूकंपों को विवर्तनिक भूकंप
(Tectonic Earthquake) कहते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं। (1) सामान्य
(Normal), जबकि उद्गम केंद्र की गहराई 48 किमी. तक हो, (2) मध्यम
(Intermediate), जबकि उद्गम केंद्र की गहराईश् 48 से 240 किमी. हो तथा (3)
गहरा उद्गम (Deep Focus), जबकि उद्गम केंद्र की गहराई 240 से 1,200 किमी.
तक हो।
इनके अलावा दो प्रकार के भूकंप और होते हैं : ज्वालामुखीय (Volcanic) और
निपात (Collapse)। 18वीं शती में भूकंपों का कारण ज्वालामुखी समझा जाने
लगा था, परंतु शीघ्र ही यह मालूम हो गया कि अनेक प्रलयंकारी भूकंपों का
ज्वालामुखी से कोई संबंध नहीं है। हिमालय पर्वत में कोई ज्वालामुखी नहीं
है, परंतु हिमालय क्षेत्र में गत सौ वर्षो में अनेक भूकंप हुए हैं। अति
सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर पता चला है कि ज्वालामुखी का भूकंप पर परिणाम
अल्प क्षेत्र में ही सीमित रहता है। इसी प्रकार निपात भूकंप का, जो चूने की
चट्टान में बनी कंदरा, या खाली की हुई खानों की, छत के निपात से उत्पन्न
होते हैं, भी परिणाम अल्प क्षेत्र तक ही सीमित रहता है। कभी कभी तो केवल
हल्के कंप मात्र ही होते हैं।
भूविज्ञानियों की दृष्टि भूकंप के कारणों को खोज निकालने के लिये पृथ्वी
के आभ्यांतरिक स्तरों की ओर गई। भूवैज्ञानिकों के अनुसार भूकंप वर्तमान
युग में उन्हीं पर्वतप्रदेशों में होते हैं जो पर्वत भौमिकी की दृष्टि से
नवनिर्मित हैं। जहाँ ये पर्वत स्थित हैं वहाँ भूमि की सतह कुछ ढलवाँ है,
जिससे पृथ्वी के स्तर कभी कभी अकस्मात् बैठ जाते हैं। स्तरों से, अधिक
दबाव के कारण ठोस स्तरों के फटने या एक चट्टान के दूसरी चट्टान पर फिसलने
से होता है। जैसा ऊपर भी कहा जा चुका है, पृथ्वी स्तर की इस अस्थिरता से जो
भूकंप होते हैं उन्हें विवर्तनिक भूकंप कहते हैं। भारत के सब भूकंपों का
कारण विवर्तनिक भूकंप हैं।
भूकंप के कारणों पर निम्नलिखित विभिन्न सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है :
(1) प्रत्यास्थ प्रतिक्षेप सिद्धांत (Elastic Rebound Theory) - सन्
1906 में हैरी फील्डिंग रीड ने इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया था। यह
सिद्धांत सैन फ्रैंसिस्को के भूकंप के पूर्ण अध्ययन तथा सर्वेक्षण के
पश्चात् प्रकाश में आया था। इस सिद्धांत के अनुसार भूपर्पटी पर नीचे से
कोई बल लंबी अवधि तक कार्य करे, तो वह एक निश्चत समय तथा बिंदु तक (अपनी
क्षमता तक) उस बल को सहेगी और उसके पश्चात् चट्टानों में विकृति उत्पन्न
हो जाएगी। विकृति उत्पन्न होने के बाद भी यदि बल कार्य करता रहेगा तो
चट्टानें टूट जाएँगी। इस प्रकार भूकंप के पहले भूकंप गति (earthquake
motion) बनानेवालीश् ऊर्जा चट्टानों में प्रत्यास्थ विकृति ऊर्जा (elastic
strain energy) के रूप में संचित होती रहती है। टूटने के समय चट्टानें
भ्रंश के दोनों ओर अविकृति की अवस्था के प्रतिक्षिप्त (rebound) होती है।
प्रत्यास्थ ऊर्जा भूकंपतरंगों के रूप में मुक्त होती है। प्रत्यास्थ
प्रतिक्षेप सिद्धांत केवल भूकंप के उपर्युक्त कारण को, जो भौमिकी की दृष्टि
से भी समर्थित होता है ही बतलाता है।
(2) पृथ्वी के शीतल होने का सिद्धांत - भूकंप के कारणों में एक अत्यंत
प्राचीन विचार पृथ्वी का ठंढा होना भी है। पृथ्वी के अंदर (करीब 700 किमी.
या उससे अधिक गहराई में) के ताप में भूपपर्टी के ठोस होने के बाद भी कोई
अंतर नहीं आया है। पृथ्वी अंदर से गरम तथा प्लास्टिक अवस्था में है और
बाहरी सतह ठंडी तथा ठोस है। यह बाहरी सतह भीतरी सतहों के साथ ठीक ठीकश्
अनुरूप नहीं बैठती तथा निपतित होती है और इस तरह से भूकंप होते हैं।
(3) समस्थिति (Isostasy) सिद्धांत -इसके अनुसार भूतल के पर्वत एवं सागर
धरातल एक दूसरे को तुला की भाँति संतुलन में रखे हुए हैं। जब क्षरण आदि
द्वारा ऊँचे स्थान की मिट्टी नीचे स्थान पर जमा हो जाती है, तब संतुलन
बिगड़ जाता है तथा पुन: संतुलन रखने के लिये जमाववाला भाग नीचे धँसता है और
यह भूकंप का कारण बनता है
(4) महाद्वीपीय विस्थापन प्रवाह सिद्धांत --(Continental drift) -अभी तक
अनेकों भूविज्ञानियों ने महाद्वीपीय विस्थापन पर अपने अपने मत प्रतिपादित
किए हैं। इनके अनुसार सभी महाद्वीप पहले एक पिंड (mass) थे, जो पीछे टूट गए
और धीरे धीरे विस्थापन से अलग अलग होकर आज की स्थिति में आ गए। (देंखें
महाद्वीप)। इस परिकल्पना में जहाँ कुछ समस्याओं पर प्रकाश पड़ता है वहीं
विस्थापन के लिये पर्याप्त मात्रा में आवश्यक बल के अभाव में यह परिकल्पना
महत्वहीन भी हो जाती है। इसके अनुसार जब महाद्वीपों का विस्थापन होता है तब
पहाड़ ऊपर उठते हैं और उसके साथ ही भ्रंश तथा भूकंप होते हैं।
रेडियोऐक्टिवता (Radioactivity) सिद्धांत -- सन् 1925 में जॉली ने
रेडियोऐक्टिव ऊष्मा के, जो महाद्वीपों के आवरण के अंदर एकत्रित होती है,
चक्रीय प्रभाव के कारण भूकंप होने के संबंध में एक सिद्धांत का विकास किया।
इसके अनुसार रेडियोऐक्टिव ऊष्मा जब मुक्त होती है तब महाद्वीपों के अंदर
की चीजों को पिघला देती है और यह द्रव छोटे से बल के कार्य करने पर भी
स्थानांतरित किया जा सकता है, यद्यपि इस सिद्धांत की कार्यविधि कुछ विचित्र
सी लगती है।
संवहन धारा (Convection Current) सिद्धांत -अनेक सिद्धांतों में यह
प्रतिपादित किया गया है कि पृथ्वी पर संवहन धाराएँ चलती हैं। इन धाराओं के
परिणामस्वरूप सतही चट्टानों पर कर्षण (drag) होता है। ये धाराएँ
रेडियोऐक्टिव ऊष्मा द्वारा संचालित होती हैं। इस कार्यविधि के परिणामस्वरूप
विकृति धीरे धीरे बढ़ती जाती है। कुछ समय में यह विकृति इतनी अधिक हो जाती
है कि इसका परिणाम भूकंप होता है।
उद्गम केंद्र और अधिकेंद्र (Focus and Epicentre) सिद्धांत - भूकंप का
उद्गम केंद्र पृथ्वी के अंदर वह विंदु है जहाँ से विक्षेप शुरू हाता है।
अधिकेंद्र (Epicentere) पृथ्वी की सतह पर उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर का बिंदु
है।
भूकंपों की भविष्यवाणी के संबंध में रूस के ताजिक विज्ञान अकादमी के
भूकंप विज्ञान तथा भूकंप प्रतिरोधी निर्माण संस्थान के प्रयोगों के
परिणामस्वरूप हाल में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि भूकंपों के दुबारा
होने का समय अभिलेखित कर लिया जाय और विशेष क्षेत्र में पिछले इसी प्रकार
के भूकंपों का काल विदित रहे, तो आगामी अधिक शक्तिशाली भूकंप का वर्ष
निश्चित किया जा सकता है। भूकंप विज्ञानियों में एक संकेत प्रचलित है
भूकंपों की आवृति की कालनीति का कोण और शक्तिशाली भूकंप की दशा का इस
कलनीति में परिवर्तन आता है। इसकी जानकारी के पश्चात् भूकंपीय स्थल पर यदि
तेज विद्युतीय संगणक उपलब्ध हो सके, तो दो तीन दिन के समय में ही
शक्तिशाली भूकंप के संबंध में तथा संबद्ध स्थान के विषय में भविष्यवाणी की
जा सकती है और भावी अधिकेंद्र तक का अनुमान लगाया जा सकता है
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