Monday, 29 May 2017

लोकतंत्र है या कबीलातंत्र ! " जिसके हाथ सत्ता वो सरदार बाकी सब बेकार !"

लूटखसोट को लोकतंत्र मानने का मन ही नहींकरता है !
  गरीबों के पेट पिचके हैं उनकी चिंता किसी को नहीं रईसों के पेट पिचकाने के लिए योग महोत्सव मना रही है सरकार !इसे गरीबी उन्मूलन दिवस के रूप में भी तो मनाया जा सकता था !
   कबीले के सरदार की तरह सत्ता की शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को जो सनक सूझे वही सारा देश करने लगे ऐसा क्यों ?जब जिस दल की सरकार होती है तब वो देश का पूरी तरह मालिक होता है वो योग सिखावे या झाड़ू लगवावे !बिलकुल कबीलों की तरह !उस कबीला संस्कृति की तरह ही आज भी कबीला पार्टियों  में सम्मिलित लोग और उनके नाते  रिस्तेदार ही केवल चाटते रहते हैं सत्ता का शहद !इसके बाद दूसरे कबीले का सरदार देश का चौधरी बन जाता तब उस कबीले वाले और उनके नाते रिस्तेदार सत्ता का शहद चाटने लग जाते हैं किंतु ऍम जनता का तो कभी नम्बर ही नहीं आने पाता है क्योंकि वो भ्रष्ट नहीं है बेईमान नहीं है घपले घोटालेवाज नहीं है इसलिए राजनीति में उसका कभी नम्बर नहीं आ पाता है भले लोगों को कोई पार्टी पसंद ही नहीं करती है और जो बुरे लोगों में  भलाई खोजना अपनी मूर्खता है | 
      जैसे कबीलों का सरदार होता था वैसे ही राजनैतिक पार्टियों  सरदार होता है जब  तक सत्ता उसके  हाथ में रहती है तब तक उसकी ही झुमाई झूमती है इसके बाद वो शांत होकर बैठ जाता है फिर दूसरी पार्टी के सरदार की बारी आती है !जो जो पहले ने बनवाया होता है वो बाद वाला उखड़वा देता है वो नया बनाता है जो उसके बाद वाला उखड़वा देता है बस इसी  तरह आजादी से आज तक चलता चला आ रहा है कबीला तंत्र ! 
    अधिकारी कर्मचारी सत्तासीन कबीले के सरदार की ओर ऐसे देखते हैं जैसे सूरज मुखी का फूल सूरज की ओर देखता है  इसके अलावा इतने बड़े देश में उनका और कोई कर्तव्य बचता ही नहीं है !वर्तमान समय अधिकारीयों के आचरणों के देखकर कहा जा सकता है कि जन हित में अब उनकी कोई भूमिका ही नहीं बची है इसके दो कारण हैं या तो वो योग्य नहीं हैं या फिर वो आलसी और अकर्मण्य हैं यदि ऐसा न होता तो उनकी योग्यता और कार्यकुशलता कर्मठता का लाभ देश को मिलना चाहिए था किंतु यदि वे ऐसा करने में सफल होते तो न इतने अपराध होते और न इतना भ्रष्टाचार !
     
      

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