सबकी गति है एक सी अंत समय पर होय, जो आये हैं जायेंगे राजा रंक फकीर ।
जनम होत नंगे भये, चौपायों की चाल, न वाणी न वाक्य थे पशुवत पाये शरीर ।
धीरे धीरे बदल गये चौपायों से बन इंसान । वाक्य और वाणी मिली वस्त्र पहन कर हुये बने महान ।
जाति बनी और ज्ञान बढ़ा तो बॉंट दिया फिर इंसान ।अंत समय नंगे फिर भये, गये सब वेद शास्त्र और ज्ञान ।।
(२) अध्यापक
राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में
खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींच कर महाप्राण शक्तियाँ बनाते
हैं ।
(३) कवि और चित्रकार में भेद है। कवि अपने स्वर में और चित्रकार अपनी रेखा में जीवन के तत्व और सौंदर्य का रंग भरता है ।
(४) हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्मो में प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनता है ।
(५) बहुमत की आवाज न्याय का द्योतक नही है ।
(६) हमारे वचन चाहे कितने भी श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु दुनिया हमे हमारे कर्मो के द्वारा पहचानती है |
(७) यदि आप मरने का डर है तो इसका यही अर्थ है की आप जीवन के महत्व को ही नहीं समझते |
(८) अधिक सांसारिक ज्ञान अर्जित करने से अंहकार आ सकता है, परन्तु
आध्यात्मिक ज्ञान जितना अधिक अर्जित करते है उतनी ही नम्रता आती है |
(९) मेहनत, हिम्मत और लगन से कल्पना साकार होती है ।
(१०) अपने शक्तियो पर भरोसा करने वाला कभी असफल नही होता ।
(११) मुस्कान प्रेम की भाषा है ।
(१२) सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता और भी दुर्लभ है ।
(१३) अहंकार छोडे बिना सच्चा प्रेम नही किया जा सकता ।
(१४) अल्प ज्ञान खतरनाक होता है ।
(१५) कर्म सरल है, विचार कठिन ।
(१६) उपदेश देना सरल है, उपाय बताना कठिन ।
(१७) धन अपना पराया नही देखता ।
(१८) पृथ्वी पर तीन रत्न हैं - जल, अन्न और सुभाषित । लेकिन मूर्ख लोग पत्थर के टुकडों को ही रत्न कहते रहते हैं ।
(१९) संसार रूपी कटु-वृक्ष के केवल दो फल ही अमृत के समान हैं ; पहला, सुभाषितों का रसास्वाद और दूसरा, अच्छे लोगों की संगति ।
(२०) हजारों मष्तिषकों में बुद्धिपूर्ण विचार आते रहे हैं ।लेकिन उनको
अपना बनाने के लिये हमको ही उन पर गहराई से तब तक विचार करना चाहिये जब तक
कि वे हमारी अनुभूति में जड न जमा लें ।
(२१) उच्चस्तरीय स्वार्थ का नाम ही परमार्थ है । परमार्थ
के लिये त्याग आवश्यक है पर यह एक बहुत बडा निवेश है जो घाटा उठाने की
स्थिति में नहीं आने देता ।
संस्कृत सुभाषित एवं सूक्तियाँ हिन्दी में अर्थ सहित----
(१) न राज्यं न च राजासीत् , न दण्डो न च दाण्डिकः ।
स्वयमेव प्रजाः सर्वा , रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥
( न राज्य था और ना राजा था , न दण्ड था और न दण्ड देने वाला । स्वयं सारी प्रजा ही एक-दूसरे की रक्षा करती थी ॥ )
(२) रत्नं रत्नेन संगच्छते ।
( रत्न , रत्न के साथ जाता है )
(३) गुणः खलु अनुरागस्य कारणं , न बलात्कारः ।
( केवल गुण ही प्रेम होने का कारण है , बल प्रयोग नहीं )
(४) निर्धनता प्रकारमपरं षष्टं महापातकम् ।
( गरीबी दूसरे प्रकार से छठा महापातक है । )
(५) अपेयेषु तडागेषु बहुतरं उदकं भवति ।
( जिस तालाब का पानी पीने योग्य नहीं होता , उसमें बहुत जल भरा होता है । )
(६) अङ्गुलिप्रवेशात् बाहुप्रवेश: |
( अंगुली प्रवेश होने के बाद हाथ प्रवेश किया जता है । )
(७) अति तृष्णा विनाशाय.
( अधिक लालच नाश कराती है । )
(८) अति सर्वत्र वर्जयेत् ।
( अति ( को करने ) से सब जगह बचना चाहिये । )
(९) अजा सिंहप्रसादेन वने चरति निर्भयम्.
( शेर की कृपा से बकरी जंगल मे बिना भय के चरती है । )
(१०) अतिभक्ति चोरलक्षणम्.
( अति-भक्ति चोर का लक्षण है । )
(११) अल्पविद्या भयङ्करी.
( अल्पविद्या भयंकर होती है । )
(१२) कुपुत्रेण कुलं नष्टम्.
( कुपुत्र से कुल नष्ट हो जाता है । )
(१३) ज्ञानेन हीना: पशुभि: समाना:.
( ज्ञानहीन पशु के समान हैं । )
(१४) प्राप्ते तु षोडशे वर्षे गर्दभी ह्यप्सरा भवेत्.
( सोलह वर्ष की होने पर गदही भी अप्सरा बन जाती है । )
(१५) प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्.
( सोलह वर्ष की अवस्था को प्राप्त पुत्र से मित्र की भाँति आचरण करना चाहिये । )
(१६) मधुरेण समापयेत्.
( मिठास के साथ ( मीठे वचन या मीठा स्वाद ) समाप्त करना चाहिये । )
(१७) मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना.
( हर व्यक्ति अलग तरह से सोचता है । )
(१८) शठे शाठ्यं समाचरेत् ।
( दुष्ट के साथ दुष्टता का वर्ताव करना चाहिये । )
(१९) सत्यं शिवं सुन्दरम्.
( सत्य , कल्याणकारी और सुन्दर । ( किसी रचना/कृति या विचार को परखने की कसौटी ) )
(२०) सा विद्या या विमुक्तये.
( विद्या वह है जो बन्धन-मुक्त करती है । )
(२१) त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भग्यं दैवो न जानाति कुतो नरम् ।
( स्त्री के चरित्र को और पुरुष के भाग्य को भगवान् भी नहीं जानता , मनुष्य कहाँ लगता है । )
(२२) कामासक्त व्यक्ति की कोई चिकित्सा नहीं है। - नीतिवाक्यामृत-३।१२
महापुरुषों एवम संतों के अनमोल वचन-----
(१) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी —–महर्षि वाल्मीकि (रामायण)
( जननी ( माता ) और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ है)
(२) जो दूसरों से घृणा करता है वह स्वयं पतित होता है – विवेकानन्द
(३) कबिरा घास न निन्दिये जो पाँवन तर होय । उड़ि कै परै जो आँख में खरो दुहेलो होय।। —-सन्त कबीर
(४) ऊँच अटारी मधुर वतास। कहैं घाघ घर ही कैलाश। —-घाघ भड्डरी (अकबर के समकालीन, कानपुर जिले के निवासी )
(५) तुलसी इस संसार मे, सबसे मिलिये धाय ।
ना जाने किस रूप में नारायण मिल जाँय ॥
(६) कोई भी देश अपनी अच्छाईयों को खो देने पर पतीत होता है। -गुरू नानक
(७) प्यार के अभाव में ही लोग भटकते हैं और भटके हुए लोग प्यार से ही सीधे रास्ते पर लाए जा सकते हैं। --ईसा मसीह
(८) जो हमारा हितैषी हो, दुख-सुख में बराबर साथ निभाए, गलत राह पर जाने से
रोके और अच्छे गुणों की तारीफ करे, केवल वही व्यक्ति मित्र कहलाने के काबिल
है। -वेद
(९) ज्ञानीजन विद्या विनय युक्त ब्राम्हण तथा गौ हाथी कुत्ते और चाण्डाल मे भी समदर्शी होते हैं ।
(१०) यदि सज्जनो के मार्ग पर पूरा नही चला जा सकता तो थोडा ही चले । सन्मार्ग पर चलने वाला पुरूष नष्ट नही होता।
(११) कोई भी वस्तु निरर्थक या तुच्छ नही है । प्रत्येक वस्तु अपनी स्थिति मे सर्वोत्कृष्ट है ।— लांगफेलो
(१२) दुनिया में ही मिलते हैं हमे दोजखो-जन्नत । इंसान जरा सैर करे , घर से निकल कर ॥ — दाग
(१३)विश्व एक महान पुस्तक है जिसमें वे लोग केवल एक ही पृष्ठ पढ पाते हैं जो कभी घर से बाहर नहीं निकलते ।— आगस्टाइन
(१४) दुख और वेदना के अथाह सागर वाले इस संसार में प्रेम की अत्यधिक आवश्यकता है। -डा रामकुमार वर्मा
(१५) डूबते को बचाना ही अच्छे इंसान का कर्तव्य होता है। -डॉ.मनोज चतुर्वेदी
(१६) जिसने अकेले रह कर अकेलेपन को जीता उसने सब कुछ जीता। -अज्ञात
(१७) अच्छी योजना बनाना बुद्धिमानी का काम है पर उसको ठीक से पूरा करना धैर्य और परिश्रम का । — डॉ. तपेश चतुर्वेदी
(१८) ऐसे देश को छोड़ देना चाहिये जहां न आदर है, न जीविका, न मित्र, न परिवार और न ही ज्ञान की आशा ।–विनोबा
(१९) विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है ।–रवींद्रनाथ ठाकुर
(२०) आपका कोई भी काम महत्वहीन हो सकता है पर महत्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें। -महात्मा गांधी
(२१) पाषाण के भीतर भी मधुर स्रोत होते हैं, उसमें मदिरा नहीं शीतल जल की धारा बहती है। - जयशंकर प्रसाद
(२२) उड़ने की अपेक्षा जब हम झुकते हैं तब विवेक के अधिक निकट होते हैं।–अज्ञात
(२३) विश्वास हृदय की वह कलम है जो स्वर्गीय वस्तुओं को चित्रित करती है । - अज्ञात
(२४) गरीबों के समान विनम्र अमीर और अमीरों के समान उदार गऱीब ईश्वर के प्रिय पात्र होते हैं। - सादी
(२५) जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता उसी प्रकार
मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का पतिबिम्ब नहीं पड़ सकता । - रामकृष्ण
परमहंस
(२६) मित्र के मिलने पर पूर्ण सम्मान सहित आदर करो, मित्र के पीठ पीछे प्रशंसा करो और आवश्यकता के समय उसकी मदद अवश्य करो। -डॉ.मनोज चतुर्वेदी
(२७) जैसे छोटा सा तिनका हवा का स्र्ख़ बताता है वैसे ही मामूली घटनाएं मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं। - महात्मा गांधी
(२८) देश-प्रेम के दो शब्दों के सामंजस्य में वशीकरण मंत्र है, जादू का
सम्मिश्रण है। यह वह कसौटी है जिसपर देश भक्तों की परख होती है। -बलभद्र
प्रसाद गुप्त ‘रसिक’
(२९) दरिद्र व्यक्ति कुछ वस्तुएं चाहता है, विलासी बहुत सी और लालची सभी वस्तुएं चाहता है। -अज्ञात
(३०) चंद्रमा अपना प्रकाश संपूर्ण आकाश में फैलाता है परंतु अपना कलंक अपने ही पास रखता है। -रवीन्द्र नाथ ठाकुर
(३१) जल में मीन का मौन है, पृथ्वी पर पशुओं का कोलाहल और आकाश में पंछियों
का संगीत पर मनुष्य में जल का मौन पृथ्वी का कोलाहल और आकाश का संगीत
सबकुछ है। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(३२) चरित्रहीन शिक्षा, मानवता विहीन विज्ञान और नैतिकता विहीन व्यापार ख़तरनाक होते हैं। -सत्यसांई बाबा
(३३) अनुराग, यौवन, रूप या धन से उत्पन्न नहीं होता। अनुराग, अनुराग से उत्पन्न होता है। - प्रेमचंद
(३४) खातिरदारी जैसी चीज़ में मिठास जरूर है, पर उसका ढकोसला करने में न तो मिठास है और न स्वाद। -शरतचन्द्र
(३५) लगन और योग्यता एक साथ मिलें तो निश्चय ही एक अद्वितीय रचना का जन्म होता है । -मुक्ता
(३६) अनुभव, ज्ञान उन्मेष और वयस् मनुष्य के विचारों को बदलते हैं। -हरिऔध
(३७) मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(३८) प्रत्येक बालक यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(३९) मनुष्य क्रोध को प्रेम से, पाप को सदाचार से लोभ को दान से और झूठ को सत्य से जीत सकता है । -गौतम बुद्ध
(४०) स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है! -लोकमान्य तिलक
(४१) त्योहार साल की गति के पड़ाव हैं, जहां भिन्न-भिन्न मनोरंजन हैं, भिन्न-भिन्न आनंद हैं, भिन्न-भिन्न क्रीडास्थल हैं। -बस्र्आ
(४२) दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। -प्रेमचंद
(४३) अधिक हर्ष और अधिक उन्नति के बाद ही अधिक दुख और पतन की बारी आती है। -जयशंकर प्रसाद
(४४) द्वेष बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते, प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है। - विनोबा
(४५) सहिष्णुता और समझदारी संसदीय लोकतंत्र के लिये उतने ही आवश्यक है जितने संतुलन और मर्यादित चेतना । - डा शंकर दयाल शर्मा
(४६) सारा जगत स्वतंत्रताके लिये लालायित रहता है फिर भी प्रत्येक जीव अपने
बंधनो को प्यार करता है। यही हमारी प्रकृति की पहली दुरूह ग्रंथि और
विरोधाभास है। - श्री अरविंद
(४७) सत्याग्रह की लड़ाई हमेशा दो प्रकार की होती है । एक जुल्मों के खिलाफ और दूसरी स्वयं की दुर्बलता के विरूद्ध । - सरदार पटेल
(४८) तप ही परम कल्याण का साधन है। दूसरे सारे सुख तो अज्ञान मात्र हैं। - वाल्मीकि
(४९) भूलना प्रायः प्राकृतिक है जबकि याद रखना प्रायः कृत्रिम है। - रत्वान रोमेन खिमेनेस
(५०) हँसमुख चेहरा रोगी के लिये उतना ही लाभकर है जितना कि स्वस्थ ऋतु ।— बेन्जामिन
(५१) हम उन लोगों को प्रभावित करने के लिये महंगे ढंग से रहते हैं जो हम पर प्रभाव जमाने के लिये महंगे ढंग से रहते है ।— अनोन
(५२) कीरति भनिति भूति भलि सोई , सुरसरि सम सबकँह हित होई ॥— तुलसीदास
(५३) स्पष्टीकरण से बचें । मित्रों को इसकी आवश्यकता नहीं ; शत्रु इस पर विश्वास नहीं करेंगे ।— अलबर्ट हबर्ड
(५४) अपने उसूलों के लिये , मैं स्वंय मरने तक को भी तैयार हूँ , लेकिन किसी को मारने के लिये , बिल्कुल नहीं।— महात्मा गाँधी
(५५) विजयी व्यक्ति स्वभाव से , बहिर्मुखी होता है। पराजय व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाती है।— प्रेमचंद
(५६) अतीत चाहे जैसा हो , उसकी स्मृतियाँ प्रायः सुखद होती हैं ।— प्रेमचंद
(५७) अपनी आंखों को सितारों पर टिकाने से पहले अपने पैर जमीन में गड़ा लो |-– थियोडॉर रूज़वेल्ट
(५८) आमतौर पर आदमी उन चीजों के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहता है जिनका उससे कोई लेना देना नहीं होता |-– जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
(५९) स्वास्थ्य के संबंध में , पुस्तकों पर भरोसा न करें। छपाई की एक गलती जानलेवा भी हो सकती है । — मार्क ट्वेन
(६०) मानसिक बीमारियों से बचने का एक ही उपाय है कि हृदय को घृणा से और मन
को भय व चिन्ता से मुक्त रखा जाय ।— श्रीराम शर्मा , आचार्य
(६१) जिसका यह दावा है कि वह आध्यात्मिक चेतना के शिखर पर है मगर उसका
स्वास्थ्य अक्सर खराब रहता है तो इसका अर्थ है कि मामला कहीं गड़बड़ है।-
महात्मा गांधी
(६२) स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रहता है ।
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम । ( यह शरीर ही सारे अच्छे कार्यों का साधन है / सारे अच्छे कार्य इस शरीर के द्वारा ही किये जाते हैं )
आहार , स्वप्न ( नींद ) और ब्रम्हचर्य इस शरीर के तीन स्तम्भ हैं । — महर्षि चरक
(६३) यदि आप इस बात की चिंता न करें कि आपके काम का श्रेय किसे मिलने वाला है तो आप आश्चर्यजनक कार्य कर सकते हैं– हैरी एस. ट्रूमेन
(६४) श्रेष्ठ आचरण का जनक परिपूर्ण उदासीनता ही हो सकती है |-– काउन्ट रदरफ़र्ड
(६५) उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं। संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं । -गौतम बुद्ध
(६६) कबिरा आप ठगाइये , और न ठगिये कोय । आप ठगे सुख होत है , और ठगे दुख होय ॥ — कबीर
(६७) प्रत्येक मनुष्य में तीन चरित्र
होता है. एक जो वह दिखाता है, दूसरा जो उसके पास होता है, तीसरी जो वह
सोचता है कि उसके पास है |– अलफ़ॉसो कार
(६८) जिस राष्ट्र में चरित्रशीलता नहीं है उसमें कोई योजना काम नहीं कर सकती । — विनोबा
(६९) मनुष्य की महानता उसके कपडों से नहीं बल्कि उसके चरित्र से आँकी जाती है । — स्वामी विवेकानन्द
(७०)
अनेक लोग वह धन व्यय करते हैं जो उनके द्वारा उपार्जित नहीं होता, वे
चीज़ें खरीदते हैं जिनकी उन्हें जरूरत नहीं होती, उनको प्रभावित करना चाहते
हैं जिन्हें वे पसंद नहीं करते। - जानसन
(७१) मुक्त
बाजार में स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी न्याय, मानवाधिकार, पेयजल तथा स्वच्छ हवा
की तरह ही उपभोक्ता-सामग्री बन चुकी है।यह उन्हें ही हासिल हो पाती हैं,
जो उन्हें खरीद पाते हैं। वे मुक्त अभिव्यक्ति का प्रयोग भी उस तरह का
उत्पादन बनाने में करते हैं जो सर्वथा उनके अनुकूल होता है। - अरुंधती राय
(७२) अध्ययन हमें आनन्द तो प्रदान करता ही है, अलंकृत भी करता है और
योग्य भी बनाता है, मस्तिष्क के लिये अध्ययन की उतनी ही आवश्यकता है जितनी
शरीर के लिये व्यायाम की | — जोसेफ एडिशन
(७३) पढने से सस्ता कोई मनोरंजन नहीं ; न ही कोई खुशी , उतनी स्थायी । — जोसेफ एडिशन
(७४) सही किताब वह नहीं है जिसे हम पढ़ते हैं – सही किताब वह है जो हमें पढ़ता है | — डबल्यू एच ऑदेन
(७५) पुस्तक एक बग़ीचा है जिसे जेब में रखा जा सकता है, किताबों को नहीं पढ़ना किताबों को जलाने से बढ़कर अपराध है | -– रे ब्रेडबरी
(७६) पुस्तक प्रेमी सबसे धनवान व सुखी होता है, संपूर्ण रूप से त्रुटिहीन पुस्तक कभी पढ़ने लायक नहीं होती। - जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
(७७) यदि किसी असाधारण प्रतिभा वाले आदमी से हमारा सामना हो तो हमें उससे पूछना चाहिये कि वो कौन सी पुस्तकें पढता है । — एमर्शन
(७८) किताबें ऐसी शिक्षक हैं जो बिना कष्ट दिए, बिना आलोचना किए और बिना परीक्षा लिए हमें शिक्षा देती हैं । –अज्ञात
(७९) चिड़ियों की तरह हवा में उड़ना और मछलियों की तरह पानी में तैरना
सीखने के बाद अब हमें इन्सानों की तरह ज़मीन पर चलना सीखना है। - सर्वपल्ली
राधाकृष्णन
(८०) हिन्दुस्तान का आदमी बैल तो पाना चाहता है लेकिन गाय की सेवा करना
नहीं चाहता। वह उसे धार्मिक दृष्टि से पूजन का स्वांग रचता है लेकिन दूध के
लिये तो भैंस की ही कद्र करता है |हिन्दुस्तान के लोग चाहते हैं कि उनकी
माता तो रहे भैंस और पिता हो बैल। योजना तो ठीक है लेकिन वह भगवान को मंजूर
नहीं है। - विनोबा
(८१) भारतीय संस्कृति और धर्म के नाम पर लोगों को जो परोसा जा रहा है वह
हमें धर्म के अपराधीकरण की ओर ले जा रहा है। इसके लिये पंडे, पुजारी,
पादरी, महंत, मौलवी, राजनेता आदि सभी जिम्मेदार हैं। ये लोग धर्म के नाम पर
नफरत की दुकानें चलाकर समाज को बांटने का काम कर रहे हैं। - स्वामी रामदेव
(८२) ईश्वर ने तुम्हें सिर्फ एक चेहरा दिया है और तुम उस पर कई चेहरे
चढ़ा लेते हो, जो व्यक्ति सोने का बहाना कर रहा है उसे आप उठा नहीं सकते |
-– नवाजो
(८३) जब तुम्हारे खुद के दरवाजे की सीढ़ियाँ गंदी हैं तो पड़ोसी की छत पर पड़ी गंदगी का उलाहना मत दीजिए | -– कनफ़्यूशियस
(८४) सोचना, कहना व करना सदा समान हो, नेकी से विमुख हो जाना और बदी करना
नि:संदेह बुरा है, मगर सामने हंस कर बोलना और पीछे चुगलखोरी करना उससे भी
बुरा है । –संत तिस्र्वल्लुवर
(८५) यदि आपको रास्ते का पता नहीं है, तो जरा धीरे चलें | महान ध्येय ( लक्ष्य ) महान मस्तिष्क की जननी है । — इमन्स
(८६) जीवन में कोई चीज़ इतनी हानिकारक और ख़तरनाक नहीं जितना डांवांडोल स्थिति में रहना । — सुभाषचंद्र बोस!
(८७) जीवन का महत्व तभी है जब वह किसी महान ध्येय के लिये समर्पित हो । यह समर्पण ज्ञान और न्याययुक्त हो । –इंदिरा गांधी
(८८) विफलता नहीं , बल्कि दोयम दर्जे का लक्ष्य एक अपराध है । --अज्ञात
(८९) मनुष्य की इच्छाओं का पेट आज तक कोई नहीं भर सका है | – वेदव्यास
(९०) इच्छा ही सब दुःखों का मूल है | -– बुद्ध
(९१) भ्रमरकुल आर्यवन में ऐसे ही कार्य (मधुपान की चाह) के बिना नहीं घूमता
है। क्या बिना अग्नि के धुएं की शिखा कभी दिखाई देती है ? - गाथासप्तशती
(९२) स्वप्न वही देखना चाहिए, जो पूरा हो सके । –आचार्य तुलसी
(९३) माया मरी न मन मरा , मर मर गये शरीर । आशा तृष्ना ना मरी , कह गये दास कबीर ॥ — कबीर
(९४) कुल की प्रतिष्ठा भी विनम्रता और सदव्यवहार से होती है, हेकड़ी और स्र्आब दिखाने से नहीं । — प्रेमचंद
(९५) आंख के अंधे को दुनिया नहीं दिखती, काम के अंधे को विवेक नहीं दिखता,
मद के अंधे को अपने से श्रेष्ठ नहीं दिखता और स्वार्थी को कहीं भी दोष नहीं
दिखता । –चाणक्य
(९६) जहां प्रकाश रहता है वहां अंधकार कभी नहीं रह सकता । — माघ्र
(९७) जो दीपक को अपने पीछे रखते हैं वे अपने मार्ग में अपनी ही छाया डालते हैं । –रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(९८) जहाँ अकारण अत्यन्त सत्कार हो , वहाँ परिणाम में दुख की आशंका करनी चाहिये । — कुमार सम्भव
(९९) विवेक जीवन का नमक है और कल्पना उसकी मिठास । एक जीवन को सुरक्षित रखता है और दूसरा उसे मधुर बनाता है । –अज्ञात
(१००) मेहनत करने से दरिद्रता नहीं रहती, धर्म करने से पाप नहीं रहता, मौन
रहने से कलह नहीं होता और जागते रहने से भय नहीं होता | –चाणक्य
(१०१) आपत्तियां मनुष्यता की कसौटी हैं । इन पर खरा उतरे बिना कोई भी व्यक्ति सफल नहीं हो सकता । –पंडित रामप्रताप त्रिपाठी
(१०२) कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं। जो
साहस के साथ उनका सामना करते हैं, वे विजयी होते हैं । –लोकमान्य तिलक
(१०३) प्रकृति, समय और धैर्य ये तीन हर दर्द की दवा हैं । — अज्ञात
(१०४) जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिये | — वेदव्यास
(१०५) जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं । –गौतम बुद्ध
(१०६) वही उन्नति करता है जो स्वयं अपने को उपदेश देता है। -स्वामी रामतीर्थ
(१०७) अपने विषय में कुछ कहना प्राय:बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि अपने दोष
देखना आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को । –महादेवी वर्मा
(१०८) जैसे अंधे के लिये जगत अंधकारमय है और आंखों वाले के लिये प्रकाशमय
है वैसे ही अज्ञानी के लिये जगत दुखदायक है और ज्ञानी के लिये आनंदमय | —
सम्पूर्णानंद
(१०९) बाधाएं व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिये, मंद नहीं पड़ना चाहिये । — यशपाल
(११०) कष्ट ही तो वह प्रेरक शक्ति है जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और आगे बढाती है । — वीर सावरकर
(१११) जिसके पास न विद्या है, न तप है, न दान है , न ज्ञान है , न शील
है , न गुण है और न धर्म है ; वे मृत्युलोक पृथ्वी पर भार होते है और
मनुष्य रूप तो हैं पर पशु की तरह चरते हैं (जीवन व्यतीत करते हैं ) । —
भर्तृहरि
(११२) मनुष्य कुछ और नहीं , भटका हुआ देवता है । — श्रीराम शर्मा , आचार्य
(११३) मानव तभी तक श्रेष्ठ है , जब तक उसे मनुष्यत्व का दर्जा प्राप्त है ।
बतौर पशु , मानव किसी भी पशु से अधिक हीन है। — रवीन्द्र नाथ टैगोर
(११४) आदर्श के दीपक को , पीछे रखने वाले , अपनी ही छाया के कारण , अपने पथ को , अंधकारमय बना लेते हैं। — रवीन्द्र नाथ टैगोर
(११५) क्लोज़-अप में जीवन एक त्रासदी (ट्रेजेडी) है, तो लंबे शॉट में प्रहसन (कॉमेडी) | -– चार्ली चेपलिन
(११६) आपके जीवन की खुशी आपके विचारों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है | -– मार्क ऑरेलियस अन्तोनियस
(११७) हमेशा बत्तख की तरह व्यवहार रखो. सतह पर एकदम शांत , परंतु सतह के नीचे दीवानों की तरह पैडल मारते हुए | -– जेकब एम ब्रॉदे
(११८) जैसे जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं, सुंदरता भीतर घुसती जाती है | -– रॉल्फ वाल्डो इमर्सन
(११९) अव्यवस्था से जीवन का प्रादुर्भाव होता है , तो अनुक्रम और व्यवस्थाओं से आदत | -– हेनरी एडम्स
(१२०) दृढ़ निश्चय ही विजय है, जब आपके पास कोई पैसा नहीं होता है तो आपके
लिए समस्या होती है भोजन का जुगाड़. जब आपके पास पैसा आ जाता है तो समस्या
सेक्स की हो जाती है, जब आपके पास दोनों चीज़ें हो जाती हैं तो स्वास्थ्य
समस्या हो जाती है और जब सारी चीज़ें आपके पास होती हैं, तो आपको मृत्यु भय
सताने लगता है | -– जे पी डोनलेवी
(१२१) दुनिया में सिर्फ दो सम्पूर्ण व्यक्ति हैं – एक मर चुका है, दूसरा अभी पैदा नहीं हुआ है |
प्रसिद्धि व धन उस समुद्री जल के समान है, जितना ज्यादा हम पीते हैं, उतने ही प्यासे होते जाते हैं |
हम जानते हैं कि हम क्या हैं, पर ये नहीं जानते कि हम क्या बन सकते हैं | -- शेक्सपीयर
(१२२) दूब की तरह छोटे बनकर रहो. जब घास-पात जल जाते हैं तब भी दूब जस की तस बनी रहती है | – गुरु नानक देव
(१२३) यदि कोई लडकी लज्जा का त्याग कर देती है तो अपने सौन्दर्य का सबसे बडा आकर्षण खो देती है । — सेंट ग्रेगरी
(१२४) सबसे उत्तम बदला क्षमा करना है | — रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(१२५) दुष्टो का बल हिन्सा है, शासको का बल शक्ती है,स्त्रीयों का बल सेवा है और गुणवानो का बल क्षमा है । — रामधारी सिंह दिनकर
(१२६) उस मनुष्य का ठाट-बाट जिसे लोग प्यार नहीं करते, गांव के बीचोबीच उगे विषवृक्ष के समान है। -- तिरुवल्लुवर
(१२७) जो अकारण अनुराग होता है उसकी प्रतिक्रिया नहीं होती है क्योंकि वह
तो स्नेहयुक्त सूत्र है जो प्राणियों को भीतर-ही-भीतर (ह्रदय में) सी देती
है। -- उत्तररामचरित
(१२८) पुरुष के लिए प्रेम उसके जीवन का एक अलग अंग है पर स्त्री के लिए उसका संपूर्ण अस्तित्व है । - लार्ड बायरन
(१२९) संयम संस्कृति का मूल है। विलासिता निर्बलता और चाटुकारिता के
वातावरण में न तो संस्कृति का उद्भव होता है और न विकास । — काका कालेलकर
(१३०) जिस तरह जौहरी ही असली हीरे की पहचान कर सकता है, उसी तरह गुणी ही गुणवान् की पहचान कर सकता है | – कबीर
(१३१) गहरी नदी का जल प्रवाह शांत व गंभीर होता है | – शेक्सपीयर
(१३२) कुल की प्रशंसा करने से क्या लाभ? शील ही (मनुष्य की पहचान का) मुख्य
कारण है। क्षुद्र मंदार आदि के वृक्ष भी उत्तम खेत में पड़ने से अधिक
बढते-फैलते हैं। - मृच्छकटिक
(१३३) सभी लोगों के स्वभाव की ही परिक्षा की जाती है, गुणों की नहीं। सब
गुणों की अपेक्षा स्वभाव ही सिर पर चढ़ा रहता है (क्योंकि वही सर्वोपरिहै)।
- हितोपदेश
(१३४) पुष्प की सुगंध वायु के विपरीत कभी नहीं जाती लेकिन मानव के सदगुण की महक सब ओर फैल जाती है । – गौतम बुद्ध
(१३५) आलसी सुखी नहीं हो सकता, निद्रालु ज्ञानी नहीं हो सकता, मम्त्व
रखनेवाला वैराग्यवान नहीं हो सकता और हिंसक दयालु नहीं हो सकता । - भगवान
महावीर
(१३६) कलाविशेष में निपुण भले ही चित्र में कितने ही पुष्प बना दें पर क्या
वे उनमें सुगंध पा सकते हैं और फिर भ्रमर उनसे रस कैसे पी सकेंगे । -
पंडितराज जगन्नाथ
(१३७) कुलीनता यही है और गुणों का संग्रह भी यही है कि सदा सज्जनों से सामने विनयपूर्वक सिर झुक जाए । - दर्पदलनम् १।२९
(१३८) गुणवान पुरुषों को भी अपने स्वरूप का ज्ञान दूसरे के द्वारा ही होता
है। आंख अपनी सुन्दरता का दर्शन दर्पण में ही कर सकती है । - वासवदत्ता
(१३९) घमंड करना जाहिलों का काम है । - शेख सादी
(१४०) तुम प्लास्टिक सर्जरी करवा सकते हो, तुम सुन्दर चेहरा बनवा सकते हो,
सुंदर आंखें सुंदर नाक, तुम अपनी चमड़ी बदलवा सकते हो, तुम अपना आकार बदलवा
सकते हो। इससे तुम्हारा स्वभाव नहीं बदलेगा। भीतर तुम लोभी बने रहोगे,
वासना से भरे रहोगे, हिंसा, क्रोध, ईर्ष्या, शक्ति के प्रति पागलपन भरा
रहेगा। इन बातों के लिये प्लास्टिक सर्जन कुछ कर नहीं सकता। - ओशो
(१४१) मछली एवं अतिथि , तीन दिनों के बाद दुर्गन्धजनक और अप्रिय लगने लगते हैं । — बेंजामिन फ्रैंकलिन
(१४२) जो पाप में पड़ता है, वह मनुष्य है, जो उसमें पड़ने पर दुखी होता है,
वह साधु है और जो उस पर अभिमान करता है, वह शैतान होता है। - फुलर
(१४३) आंदोलन से विद्रोह नहीं पनपता बल्कि शांति कायम रहती है। - वेडेल फिलिप्स
(१४४) ‘हिंसा’ को आप सर्वाधिक शक्ति संपन्न मानते हैं तो मानें पर एक बात
निश्चित है कि हिंसा का आश्रय लेने पर बलवान व्यक्ति भी सदा ‘भय’ से
प्रताड़ित रहता है। दूसरी ओर हमें तीन वस्तुओं की आवश्यकता हैः अनुभव करने
के लिए ह्रदय की, कल्पना करने के लिए मस्तिष्क की और काम करने के लिए हाथ
की। - स्वामी विवेकानंद
(१४५) सत्य को कह देना ही मेरा मज़ाक करने का तरीका है। संसार में यह सब से विचित्र मज़ाक है। - जार्ज बर्नार्ड शॉ
(१४६) सत्य बोलना श्रेष्ठ है ( लेकिन ) सत्य क्या है , यही जानाना कठिन है ।
जो प्राणिमात्र के लिये अत्यन्त हितकर हो , मै इसी को सत्य कहता हूँ । —
वेद व्यास
(१४७) सही या गलत कुछ भी नहीं है – यह तो सिर्फ सोच का खेल है, पूरी
इमानदारी से जो व्यक्ति अपना जीविकोपार्जन करता है, उससे बढ़कर दूसरा कोई
महात्मा नहीं है। - लिन यूतांग (१४८) झूठ का कभी पीछा मत करो । उसे अकेला छोड़ दो। वह अपनी मौत खुद मर जायेगा । - लीमैन बीकर
(१४९) धर्म का अर्थ तोड़ना नहीं बल्कि जोड़ना है। धर्म एक संयोजक तत्व है। धर्म लोगों को जोड़ता है । — डा. शंकरदयाल शर्मा
(१५०) धर्मरहित विज्ञान लंगडा है , और विज्ञान रहित धर्म अंधा । — आइन्स्टाइन
(१५१) बीस वर्ष की आयु में
व्यक्ति का जो चेहरा रहता है, वह प्रकृति की देन है, तीस वर्ष की आयु का
चेहरा जिंदगी के उतार-चढ़ाव की देन है लेकिन पचास वर्ष की आयु का चेहरा
व्यक्ति की अपनी कमाई है । - अष्टावक्र