Sunday, 26 January 2020

भूकंप -7

'वात', 'पित्त' और 'कफ' का है   भूकंप विज्ञान से है सीधासंबंध !

 भूकंपों को समझने के लिए प्रकृति का अध्ययन 'वात', 'पित्त' और 'कफ' की पद्धति से करने पर   भूकंप संबंधी शोध कार्य विशेष सफलता प्रदान करने वाले हो सकते हैं इसके साथ साथ सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का अध्ययन इस पद्धति से करने पर भूकंप और समस्त प्राकृतिक आपदाओं को समझने में काफी सहयोग मिल सकता है |
       आयुर्वेद पद्धति में रोगों को समझने से लेकर औषधियों को समझने तक का सम्पूर्ण कार्य 'वात', 'पित्त' और 'कफ'के आधार पर ही किया जाता है !यहाँ तक कि बहुत वैद्य ऐसे होते हैं जो केवल नाड़ी परीक्षण करके वातपित्त और कफ का परीक्षण कर के रोगों के विषय में सब कुछ समझ लेते हैं और उसी के आधार पर चिकित्सा करके रोगियों को स्वस्थ कर दिया करते हैं |
   आयुर्वेद का मानना है कि शरीरों में  वातपित्त और कफ की मात्रा विषम होने पर रोग पैदा होते हैं और सम होने पर शरीर स्वस्थ हो जाता है !इन्हें सम करने के लिए लोग तरह तरह की पद्धतियों को अपनाते हैं यौगिक क्रियाएँ अपनाकर , दवाएँ खाकर , खान पान में सुधार करके, बिना  कुछ खाए पिए रहकर आदि जिस भी पद्धति से  'वात', 'पित्त' और 'कफ' के संतुलन को सँभाल पाते हैं वैसे  लेते हैं |
       मनुष्य शरीरों की तरह ही पशुओं पक्षियों आदि सभी प्रकार के जीवों में के रोगों की चिकित्सा भी वात पित्त और कफ की प्रक्रिया से ही करने का विधान है इससे पशुओं की बीमारियों का पता लगाया जा सकता है और औषधियाँ  देकर उन्हें स्वस्थ भी किया  जा सकता है |
      वृक्षों में भी होने वाले रोगों को इसी 'वात', 'पित्त' और 'कफ' की पद्धति से न केवल समझा जा सकता है अपितु वृक्षों की चिकित्सा भी इसी पद्धति से की जाती है |स्पष्ट लिखा हुआ है कि वृक्षों में अगर गर्मी अधिक लग जाती  है या ठंडी अधिक लग जाती है या अधिक हवा लग जाती है तो वृक्ष रोगी हो जाते हैं उनके पत्ते पीले पड़ने लगते हैं अंकुर नहीं बढ़ते हैं शाखाएँ सूखने लगती हैं और रस टपकने लगता है !यथा -
                                      शीत वातातपै रोगो जायते पांडुपत्रता !
                                     अवृद्धिश्च प्रवालानां शाखाशोषो रसस्रुतिः ||
अन्यत्र भी लिखा है -      शीतोष्ण वर्ष वाताद्यैर्मूलैर्व्यामिश्रितैरपि |
                                     शाखिनां तु भवेद्रोगो द्विपानां लेखनें च ||
      वृक्षों के आपरेशन और आयुर्वेद पद्धति से ड्रेसिंग की व्यवस्था का वर्णन  भी मिलता है !यथा -
                                      चिकित्सितमथैतेषां शस्त्रेणादौ विशोधनं ||
  
  इसी प्रकार से संसार के मनुष्यादि सभी जीवों तथा वृक्षों के अलावा इस सृष्टि में और भी जो कुछ व्याप्त है वैसे तो वो सब कुछ अचेतन है क्योंकि संसार का निर्माण करने वाली मूल प्रकृति अचेतन है किंतु 
     जिस प्रकार से सूर्य का प्रतिबिम्ब तब तक रहेगा जब तक सूर्य है यही संबंध  संसार का निर्माण करने वाली मूलप्रकृति का ईश्वर के साथ है इसलिए वो मूलप्रकृति स्वयं तो अचेतन अर्थात चेतना रहित है किंतु ईश्वर का प्रतिबिम्ब स्वरूपा होने के कारण वो परमात्मा के चैतन्य के साथ संपूर्ण चराचर जगत का निर्माण करती है इसलिए ईश्वर की वो चैतन्यता ही मनुष्य से लेकर सभी जीवों में वृक्षों में पहाड़ों नदियों समुद्रों सरोवरों आदि समस्त जगत में दिखाई पड़ती है | ये सभी जन्मते मरते एवं बनते बिगड़ते रहते हैं अनित्य होने के कारण ये नाशवान है |
    इसलिए 'वात', 'पित्त' और 'कफ'का जितना और जैसा प्रभाव मनुष्यों पर होता है उतना और वैसा ही प्रभाव पशुओं पक्षियों आदि पर भी होते देखा जाता है!इसके साथ ही वही प्रभाव वृक्षों, पहाड़ों, नदियों, समुद्रों, सरोवरों आदि पर भी समान रूप से पड़ता है |इनमें भी 'वात', 'पित्त' और 'कफ' से संबंधित विकार होते देखे जाते हैं इसलिए उनका परीक्षण भी उसी प्रकार से किया जाना चाहिए !
      आयुर्वेद में वायु के विषय में स्पष्ट वर्णन मिलता है कि मनुष्यों पशुओं पक्षियों पेड़ों पौधों में बड़ी बड़ी बीमारियाँ कर देने वाली वायु ही बड़े बड़े पहाड़ों को तोड़ देती है समुद्रों में अत्यंत ऊँची ऊँची लहरें उत्पन्न कर देती है पृथ्वी में भूकंप पैदा कर देती है आकाश से बिजली गिरा देती है भयंकर आंधी तूफान चक्रवात आदि पैदा कर देती है नदियों में भीषण बाढ़ ला देती है |इसलिए ऐसे सभी उत्पातों के होने का प्रमुख कारण वायु ही है |


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