भूकंपगर्भ - पृथ्वी के अंदर संग्रहीत गैसों के दबाव !
भूकंपगर्भ की प्रारंभिक प्रक्रिया बिल्कुल उसी प्रकार की होती है जैसे नदी में तैरती हुई किसी नौका के अंदर 4 कोनों पर एक एक गेंद या गेंद जैसी कोई मध्यम वजन वाली गोल चीज रख दी जाए तो नाव का संतुलन बना रहेगा और नाव चलती चली जाएगी | इसी बीच थोड़ा अधिक कोई बाहरी वजन यदि उस चलती हुई नाव के किसी एक कोने पर और रख दिया जाए तो नाव में उधर की ओर कुछ झुकाव आ ही जाएगा और वो झुकाव आते ही शेष तीनों कोनों में रखे गेंद जैसे वे तीनों गोले भी उसी जगह घूम कर स्वतः आ जाएँगे! उन्हें पकड़ कर लाना नहीं पड़ेगा |इस प्रकार से नाव में रखा सारा वजन एक ही जगह एकत्रित हो जाएगा और नौका में उथल पुथल होने लगेगी !यदि वह वजन विशेष हुआ तो नौका पलट भी सकती है क्योंकि नौका को वजन से समस्या नहीं है अपितु वजन के एक जगह एकत्रित होने से समस्या हुई है वजन तो उससे चार गुना और अधिक रखा होता तो भी नौका लेकर जा सकती थी किंतु सारा वजन संतुलन में होना चाहिए संतुलन छोड़ कर चल पाना कठिन होगा |प्रकृति भी संतुलित होने पर ही संसार को धारण कर सकती है असंतुलित होकर नहीं !
असंतुलन प्रकृति के अंदर तो होता नहीं है वहाँ तो सब कुछ सुदृढ़ नियमों से बँधा हुआ है समय पर ऋतुएँ आती हैं समय पर सूर्य चंद्र का उदय अस्त होता है वहाँ तो सब कुछ समय से और सीमा से बँधा हुआ है उसी क्रम में करोड़ों अरबों वर्षों से समय चक्र घूमता चला आ रहा है ! सबके लिए प्राकृतिक नियम बने हुए हैं उन्हीं के अनुशार आप से होता चला आ रहा है!जिस प्रकृति में लाखों लोगों को निगल जाने वाली आँधी तूफान चक्रवात एवं बाढ़ जैसी भयावह प्राकृतिक आपदाएँ मानी जाने वाली घटनाएँ भी इस सृष्टि के लिए संजीवनी की तरह काम करती हैं अन्यथा इस सृष्टि का सुरक्षित रहा पाना ही संभव नहीं रह पाएगा !बाढ़ ,आँधी ,तूफान एवं भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाएँ पंचतात्विक प्रकृति के संतुलन को बनाए एवं बचाए रखने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं !इनके इस योगदान को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए इनके बिना पृथ्वी पर जीवन को बचाकर रखा भी केवल कठिन ही नहीं अपितु असंभव हो जाएगा !
इसीलिए तो सृष्टि को सुरक्षित संचालित करने के लिए अनंतकाल से प्रकृति के अपने नियम बने हुए हैं | सृष्टि में किसे कैसे रहना है उसके अनुशार जीवन जीने वाले लोग ही यहाँ स्वस्थ रह पाते हैं ऐसा समाज ही स्वस्थ सानंद एवं एक दूसरे के लिए सुखद बना रहता है | तो प्रकृति भी अपने अनुशार न केवल चला करती है अपितु उसका साथ देने वालों के लिए सुखदायिनी भी बनी रहती है |
कोयना जैसे मानवकृत जलाशयों को जलाशय निर्माण के बाद वहाँ आए भूकंपों के लिए जिम्मेदार माना जा सकता है किंतु उन जलाशयों के भारी वजन के कारण नहीं !अपितु ऐसे जलाशयों के कारण बिगड़ने वाले तत्वों के असंतुलन को मुख्य कारण माना जा सकता है |क्योंकि जल का इतना अधिक संग्रह ऐसे स्थान पर जहाँ की जलवायु रूक्षता और उष्णता के लिए जानी जाती रही हो ऐसे स्थान पर जल का इतना बड़ा संग्रह वहाँ के तात्विक संतुलन को बिल्कुल विपरीत दिशा में धकेल देता है इसलिए भूकंप आना स्वाभाविक है जबकि टिहरी जलाशय के साथ इसकी तुलना इसलिए नहीं की जा सकती है क्योंकि टिहरी की जलवायु के साथ टिहरी जलाशय में संग्रहीत जल तात्विक दृष्टि से विपरीत नहीं अपितु अनुकूल है !इसलिए टिहरी जलाशय में निर्माण के बाद वहाँ कोई भूकंप नहीं आया |
कोई स्त्री जब गर्भधारण करती है तब गर्भ को पोषण देने के लिए उस स्त्री के संपूर्ण शरीर के सारे पुष्टि कारक तत्व गर्भ की ओर चलने लगते हैं जो गर्भाशय में पहुँच कर गर्भ को पोषण प्रदान किया करते हैं ये प्रकृति विधान है इसलिए प्रसव होने तक इस प्रकार से उन्हें अपने कर्तव्य का निर्वाह अवाध गति से करना होता है इसीलिए तो गर्भावस्था में बढ़ने वाला पेट का वजन केवल पेट का न होकर अपितु संपूर्ण शरीर से गर्भाशय में एकत्रित हुआ भार होता है | इस भार के बढ़ने के कारणों की खोज करने के लिए केवल पेट को ही शोध का विषय बना लेने से भूकंप विज्ञान पर किए जा रहे शोध कार्यों की तरह ही इसमें भी कुछ विशेष हासिल नहीं होगा |इसके लिए तो गर्भकाल प्रारंभ होने के बाद शरीर के प्रत्येक अवयव में होने वाले परिवर्तनों को अनुसंधान का विषय बनाया जाना चाहिए तब संपूर्ण रहस्य उद्घाटित हो सकेगा | |
भूकम्पों पर शोधकार्य करते समय हमें ध्यान यह रखना होता है कि गर्भ काल में सम्पूर्ण शरीर से गर्भाशय में एकत्रित होने वाले पुष्टिकारक तत्वों से भ्रूण पल्लवित होता है ये सच है किंतु अपुष्ट गर्भ की अवस्था में ही यदि गर्भ स्राव या पात अपने आप हो जाए या करा दिया जाए तो गर्भाशय में एकत्रित हुए वही पुष्टि कारक तत्व उस स्त्री के शरीर के लिए हितकर नहीं रह जाते अपितु बहुत दुखदायी होते हैं उनसे निर्मित गर्भ के लिए हितकारी उसी वायु का दबाव "प्रसूतिमक्कलशूल" नामक अत्यंत पीड़ा दायक स्त्री रोग को जन्म दे देता है जो कि पहले बहुत हितकारी था |इसलिए भूकंप के प्रति हमें एक धारणा और बदलनी चाहिए कि भूकंप केवल भूकंप आने तक ही प्रभावी होता है समय बीतने के बाद शांत हो जाता है |ऐसा नहीं है अपितु गर्भ विज्ञान की तरह ही भूकंप से प्रकट परिणामों का सामना भी मानव समाज को वर्षों तक करना होता है |
पृथ्वी के अंदर संग्रहीत गैसों के दबाव से भूकंप आते हैं भूकंपों के विषय में इस प्रकार का प्रचार प्रसार अक्सर देखा सुना जाता है | इस विषय में मेरा निवेदन है कि गैसें भी होती हैं और उनका दबाव भी होता है ये बात सिद्धांत रूप में स्वीकृत है किंतु गैसों का मतलब केवल इतना ही नहीं होता है कि ये हानिकारक ही होंगी क्योंकि प्रकृति में हानिकारक किसी भी वस्तु को संरक्षण मिल ही नहीं सकता है | पवित्र प्रकृति पंचतात्विक सिद्धांतों से दृढ़ता पूर्वक संगुंफित है इसलिए तात्विक संतुलन जहाँ बाधित होने लगता है प्रकृति वहीँ प्रतिक्रिया देने लगती है |पंचतात्विक सिद्धांतों के विरुद्ध कोयना में बनाए गए जलाशय को पचा नहीं पाई प्रकृति!जो कारण उस जलाशय का वृहद् बोझ मानते हैं उन्हें नदियों और समुद्रों की विशाल जलराशि को भी ध्यान रखना चाहिए !इसका कारण यदि वजन होता तो वहाँ भी आता !अधिक नहीं तो टिहरी जैसे मानव निर्मित सभी जलाशयों में तो आना ही चाहिए था | किन्तु ऐसा होते तो नहीं देखा गया और ऐसा होगा भी नहीं |
अतएव पृथ्वी के अंदर की गैसों को देखकर ये अनुमान लगा लेना कि इन्हीं के दबाव से पृथ्वी का आतंरिक संतुलन बिगड़ता है इसलिए भूकंप आते हैं ये कहना ठीक नहीं होगा !वो गैसें अतिरिक्त नहीं होती हैं जो पृथ्वी में कम्पन पैदा करेंगी वो गैसें तो पृथ्वी का साक्षात् अपना स्वरूप ही होती हैं उन्हें अतिरिक्त कैसे मान लिया जाए ?पृथ्वी को बनाए और बचाए रखने के लिए ऐसी गैसों का निर्माण पंचतात्विक प्रकृति स्वयं करती है और आवश्यकता के अनुशार करती है फिर वो अतिरिक्त मान कैसे ली जाएँ प्रकृति से इतनी बड़ी भूल की कल्पना ही नहीं की जानी चाहिए !गैस निर्माण के लिए आग चाहिए जल चाहिए आग जब जल को गरम करती है तो उसी जल से भाफ बनती है !पेट की भी यही प्रक्रिया है पित्ताशय(आग) भी है और जल भी है वहाँ भी इसी प्रक्रिया से पाचक वायु का निर्माण होता है और अपशिष्ट वायु का विसर्जन भी साथ के साथ होता रहता है उसकी सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया है अशुद्ध वायु के शरीर से निकलते समय शरीर में कोई कम्पन होते तो नहीं देखा जाता है फिर शरीर के निर्माण की प्रक्रिया से ही तो ब्रह्माण्ड का भी निर्माण हुआ है संसार के प्रत्येक द्रव्य का निर्माण उसी प्रक्रिया से हुआ है स्वाभाविक ही है कि पृथ्वी का निर्माण भी उसी प्रक्रिया से हुआ है फिर शारीरिक गैसों के विसर्जन में कंपन नहीं तो पार्थिव गैसों के विसर्जन के समय पृथ्वी में कम्पन क्यों होने लगेगा !जहाँ जहाँ गैसें भरी होंगी वहाँ वहाँ कम्पन होगा ही ऐसा कोई दृढ़ सिद्धांत तो है नहीं !
इसलिए गैसों की उपस्थिति पर विचार करते समय हमें एक बात हमेंशा ध्यान रखना चाहिए कि जिन गैसों के विषय में हम सोचते हैं वे कहीं उसकी अंगभूत गैसें तो नहीं हैं |अगर वो अंगभूत गैसें हैं तो वो हानिकारक तो हो ही नहीं सकती हैं और यदि किसी कोण से उनके हानिकारक होने की संभावना लगे भी तो मुख्य व्यवस्था की अंगभूत गैसों को हम उन उन यंत्रों से अलग करके नहीं देख सकते क्योंकि उन गैसों के बिना उन यंत्रों का उद्दिष्ट धर्म ही नष्ट हो जाएगा अर्थात वे अपने कर्तव्य का निर्वाह ही नहीं कर सकेंगे !जैसे रसोई गैस है ज्वलन शील है विस्फोटक है किंतु रसोई के कार्यों में सहायक होने के कारण वो भी तो रसोई की साक्षात् अंगभूत ही है अतएव उसके विषय में अध्ययन करते समय जहाँ उसकी ज्वलनशीलता और विस्फोटकत्व की चर्चा की जाए वहीँ उस गैस की रसोई कार्यों में उपयोगिता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए और उसे रसोई का अंग मानकर ही आदर दिया जाना चाहिए न कि उसके द्वारा पकाया हुआ खाना भी कहते रहें और उसके ज्वलनशीलता , विस्फोटकत्व जैसे विकारों की चर्चा करते रहें !इसी प्रकार से फ्रीज़ एवं एयरकंडीशन आदि व्यवस्थाओं में भी गैसें उन यंत्रों की न केवल सहायक होती हैं अपितु उनकी मुख्य पहचान भी होती हैं क्योंकि ऐसे यंत्र जिन कार्यों के लिए जाने जाते हैं उनमें वो गुण इन्हीं गैसों के कारण ही तो आता है अन्यथा फ्रीज़ और एयरकंडीशनर की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी !गैसों के इस महत्त्व को भी समझना होगा |
ट्रक के पहियों में लगे ट्यूब में किए गए वायु भंडारण की तरह ही हिमालय जैसे विशाल बोझ को धारण कर पाने में कोई विशेष सहयोगी भूमिका निभा रही हों !आखिर ट्रकों का बोझ भी तो पहियों में भरी वायु ही धारण कर रही होती है !और उस वायु में बहुत भारी दबाव भी होता है इस दबाव को देखकर ये कल्पना करना आत्मघातक होगा कि ये हानिकर अपितु ट्रक का बोझ जैसे उन्हीं गैसों के दबाव पर टिका होता है वो गैसें निकलते ही ट्रक पलट जाएगा !ट्रक को ट्रक की तरह चलाने के लिए उसके के पहियों में जरूरी गैसें भीहोती हैं उनमें प्रेशर भी होता है उनके निकलते ही ट्रक लड़खड़ा भी सकता है पलट भी सकता है |ऐसे सभी दुर्गुण यदि उन गैसों में मान भी लिए जाएँ तो भी उन गैसों के बिना तो ट्रक चल ही नहीं सकता है इसलिए उस ट्रक को ट्रक बनाए रखने में उन गैसों की बहुत बड़ी सहायक भूमिका है इस बात को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए |
गर्भकाल में होने वाली उदर वृद्धि के लिए पेट में एकत्रित पाचक गैसों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है अपितु शरीर की प्रकृति एवं भ्रूण विज्ञान पर ध्यान देना होगा भ्रूण को विकसित करने वाली प्रकृति व्यवस्था ही बिल्कुल अलग है और वो गर्भवायु भ्रूण के लिए सहायक होने के कारण उसकी अंगभूत होती है उसके बिना भ्रूण की सुरक्षा संभव हो सकती है क्या ?इसी प्रकार से पेट के अंदर संचित पाचक गैसें भी तो शरीर का अंग स्वरूप ही होती हैं जिनके द्वारा पाचनतंत्र काम करता है ऐसी वायु शरीर के लिए अहितकारी नहीं हो सकती है | पृथ्वी के गर्भ में स्थित गैसों और उनके दबावों को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए !इन्हें केवल हानिकारक ही नहीं माना जा सकता है संभव है कि ट्रक के पहियों में भरी गैस की तरह ही अति विशाल हिमालय को धारण करने में उन गैसों की भी कोई बहुत बड़ी भूमिका हो !ऐसा भी हो सकता है कि हिमालय को हिमालय बनाए और बचाए रखने की प्रमुख भूमिका में वहीँ गैसें ही हों इसलिए उन्हें भी केवल भावी भूकंप कारक के रूप में ही नहीं प्रचारित किया जाना चाहिए उनकी विशेषताएँ भी बताई जानी चाहिए !
पेट से गैसों का प्रेसर बिल्कुल समाप्त कर दिया जाए तो जीना संभव रह पाएगा क्या ?इसी भावना से हिमालय आदि के नीचे की संचित गैसों को केवल भूकंप कारक ही न मानकर अपितु उनकी उपस्थिति को पृथ्वी के अंदर की बनावट का वृहद् अंग क्यों न माना जाए !
ऐसी संग्रहीत गैसों के होने से धरती है और न होने से धरती का कोई आस्तित्व बचेगा ही नहीं ऐसी परिस्थिति में पृथ्वी के अंदर की गैसों की डरावनी छवि प्रस्तुत किया जाना ठीक नहीं होगा ! उन्हें इस पृथ्वी को धारण करने वाली सहायक के रूप में ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए और भूकम्पीय अध्ययनों में भी उनके इसी रूप को ही याद रखा जाना चाहिए |
किसी भी व्यक्ति वस्तु या परिस्थिति पर अनुसंधान करने से पहले हमें उसका समय और स्वभाव समझना बहुत आवश्यक होता है अन्यथा शोध सिद्धि हमेंशा संदिग्ध बनी रहती है !
समय और स्वभाव समझने के पीछे कारण यह है कि जैसे दाल को पकाना हो तो चूल्हा भी हो आग भी जल रही हो बर्तन में पकने के लिए पूरी तरह तैयार रखी दाल हो इसके बाद भी पकने के लिए समय तो चाहिए !
इसी प्रकार बात स्वभाव की है पकने की सारी पर्याप्त व्यवस्था हो और समय भी पूरा दिया जा रहा हो किंतु पकाई वाली वस्तु दाल न हो अपितु छोटे छोटे कंकड़ हों तो कितना भी पकाया जाए क्या वे भी पाक सकते हैं अर्थात नहीं क्योंकि पकने का उनका स्वभाव ही नहीं है तो उन्हें केवल साधनों से तो नहीं ही पचाया जा सकता है |
भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन करते समय भी हमें समय और स्वभाव दोनों को ध्यान रखना ही चाहिए इस दृष्टि से जब हम भूकंपों का अध्ययन करते हैं तब चिंतन यहाँ से प्रारम्भ होता है कि धूल के छोटे छोटे कणों की थोड़ी मात्रा जब कहीं एक जगह आपस में जुड़ कर पिंड बन जाते हैं तो ढेला कहा जाता है यही प्रक्रिया जब कभी बहुत बड़े स्तर पर हुई होगी उसी से तो बनी है यह विशाल धरती | अर्थात अतिविशाल पृथ्वी का ही छोटा सा स्वरूप तो मिट्टी का ढेला है किंतु आतंरिक गैसों से ढेले को तो कभी काँपते नहीं देखा गया फिर उन्हीं आतंरिक गैसों से पृथ्वी कैसे काँप सकती है |
पृथ्वी की आतंरिक गैसों के दबाव के साथ निकलने से यदि भूकंप आता होता तो ऊर्जा जनित बड़े विस्फोट के साथ भी तो वे गैसें बाहर आ सकती थीं उन गैसों के वेग के साथ पृथ्वी के गर्भ में स्थित अन्य वस्तुएँ भी तो बाहर आ सकती थीं और बहुत कुछ नहीं तो धूल का बहुत बड़ा गुबार तो निकल ही सकता था आखिर पृथ्वी की ऊपरी पर्त में रज के छोटे छोटे कण ही तो हैं जब गैसों का इतना भयंकर वेग होगा जो धरती को हिला सकता हो तब तो भूकंप स्थलों पर धूल का भारी भरकम बवंडर जरूर खड़ा हो जाता किंतु ऐसा होते तो कभी नहीं देखा गया !भूकंप के केंद्रीय क्षेत्रों में पृथ्वी के अंदर से निकल रही गैसों के दबाव से उस क्षेत्र के कुओं नलों बोरिंगों या चूहों के गहरे बिलों से पानी अपने आप से उबाल मारने लगता किंतु ऐसा होते तो कभी नहीं देखा गया !फिर इस बात पर भरोसा कैसे कर लिया जाए कि जमीन के अंदर भरी गैस रूपी ऊर्जा के कारण जब प्लेटें हिलती हैं तभी भूकंप आता होगा !और भूकंप आने के समय जमीन में पड़ जाने वाली दरारों के विषय में इस तर्क पर कैसे भरोसा किया जा सकता है कि जमीन के अंदर से निकलने वाली गैसों के दबाव से ही पृथ्वी की ऊपरी सतह पर दरारें पड़ जाती हैं दरारें पड़ते समय न धूल उड़ती है और न ही कोई शब्द होता है फिर भूकंप के विषय में ऐसी काल्पनिक बातों पर भरोसा कैसे कर लिया जाए !रजकणों के एक दूसरे से चिपक जाने के कारण निर्मित पृथ्वी में कम्पन होने मात्र से अति भारवती पृथ्वी में दरारें पड़ जाना सहज और स्वाभाविक है उन दरारों को धरती के अंदर की ऊर्जा रूपी गैसों के निकलने के साथ कभी नहीं जोड़ा जा सकता है |अन्यथा भूकंप समय धरती के अंदर की गैसों के साथ साथ भारी मात्रा में वायु तो होनी ही चाहिए थी |
परमाणु परिक्षण के समय "18 मई 1974, बुद्धपूर्णिमा, सुबह 8 बजकर 5 मिनट। पोकरण फील्ड फायरिंग रेंज में लोहारकी गांव के पास थार रेगिस्तान में कर्णभेदी धमाके की गूंज।वृक्ष और मकान टूट गए थे कुएं से भीमकाय पत्थर बाहर गिर रहे थे, रेत का गुबार आसमान छू रहा था। काफी देर तक जमीन हिलती रही।"किंतु भूकंप आने के समय ऐसा कुछ तो नहीं होता है केवल जमीन ही हिलते देखी जाती है !
संसार में शरीरों या वस्तुओं के अंदर या बाहर खुले वातावरण में जो भी खाली जगहें दिखाई देती हैं वो सब आकाश है घड़े के अंदर जो खाली जगह है वो घटाकाश है ऐसे ही अन्यत्र भी चिंतन किया जाना चाहिए वायु भी खाली जगहों में ही होती है इसलिए खाली जगहें तो बहुत व्यक्तियों वस्तुओं या अन्य प्रकार के जीव धारियों के शरीर के अंदर भी मिल जाएँगी उनमें वायु प्रवाह का अनुभव भी किया जा सकता होगा किंतु उस आतंरिक वायु से उन शरीरों में कंपन होते तो कभी कहीं नहीं देखा सुना जाता है | फिर उसी प्रक्रिया से बनी पृथ्वी में आतंरिक गैसों से अचानक कम्पन कैसे होने लगेगा !
शीत ऋतु में किसी व्यक्ति के शरीर में सर्दी लगने के कारण कंपन होने का मतलब ये तो नहीं होता है कि उसके पेट में गैस भरी होगी उसी के प्रेशर से वो काँप रहा है ऐसा मान कर यदि उसके पेट में छेद किया जाए तो क्या उस शीत पीड़ित व्यक्ति का काँपना बंद हो जाएगा ?या फिर ऐसा कर देने से शरीर में होने वाले कम्पन के कारण का पता लग पाएगा क्या ?
इसी प्रकार से सामने खड़े शेर के भय से यदि कोई व्यक्ति भयवश काँपने लग जाए या भविष्य के भय से किसी को घबड़ाहट होने लगे तो भी उसके कम्पन का कारण जानने के लिए क्या उसके भी पेट में छेद किया जाना चाहिए और उसके पेस की गैसों के प्रेशर को चेक किया जाना चाहिए या उन्हें उस व्यक्ति के कंपन के लिए जिम्मेदार मान लिया जाना चाहिए और उन्हें निकालने का प्रयास किया जाना चाहिए क्या ?
भूकम्पों के विषय में सबसे बड़ी शंका एक और होती है कि विश्व वैज्ञानिकों के द्वारा एक ओर तो ये कहा जाता है कि भूकंपों के आने के कारणों के विषय में अभी तक निश्चित तौर पर कुछ भी कह पाना संभव नहीं है तो वहीँ दूसरी ओर भूकंपों के आने के कारणों के विषय में धरती के अंदर की संचित ऊर्जा के दबाव से जमीन के अंदर की प्लेटों का हिलना उससे भूकम्पों के आने के संबंध में डेंजरजोन के बारे में इतनी निर्भीकता से न केवल बता देना अपितु यही सब कुछ स्कूलों में पढ़ाया जाना है !क्योंकि सामान्य तौर पर देखा जाता है कि जिस वस्तु के विषय में अपने को ही ठीक ठीक पता न हो फिर उसी विषय का स्कूलों में पाठ्यक्रम पूर्वक पढ़ाया जाना परीक्षाएँ होना डिग्री आदि मिलना आदि कितना न्यायसंगत अर्थात विश्वास करने योग्य है ?
भूकंपों के विषय में अध्ययन करते समय अब हमें अपने अंदर भी कुछ सुधार कर लेने चाहिए इससे समाज को बहुत सुविधा होगी और भूकंप संबंधी अध्ययनों पर विश्वास बरकरार बना रहेगा !इस आस्था को सुरक्षित बनाए रखना बहुत आवश्यक है !
भूकंपों से संबंधित अध्ययनों पर विश्व में बहुत सारे शोधकार्य चल रहे हैं और सबका मत लगभग एक ही है क़ि पृथ्वी के अंदर गैसों का भारी भंडारण है उन्हीं गैसों के दबाओं से धरती के अंदर की प्लैटें आपस में रगड़ती हैं उस रगड़ से ही कम्पन प्रकट होता है जिसे हम भूकंप कहते हैं किंतु इस बात को तब तक सच कैसे मान लिया जाए जब तक इस तथ्य पर अध्ययन करते हुए आगे बढ़ने पर कुछ नए तथ्य सामने न आवें !क्योंकि भूकंपों के संबंध में हमारा अध्ययन अनुमान अभिव्यक्ति आदि तब तक प्रमाणित नहीं माने जा सकते जब तक तर्क युक्त कुछ मजबूत बातें समाज के सम्मुख न रखी जा सकें |
भूकंपों के लिए जिस विश्वास के साथ पृथ्वी के अंदर की गैसों के दबाव एवं उससे होने वाले धरती की आतंरिक प्लैटों के घर्षण को जिम्मेदार मान लिया जाता है जैसे सच हो जबकि दूसरे ही क्षण ये कह दिया जाता है कि भूकम्पों के आने के कारणों के विषय में अभी तक कुछ भी कह पाना संभव नहीं है इसका मतलब क्या यह निकाला जाए कि भूकंपों के विषय में आधुनिक वैज्ञानिकों के द्वारा जो गैसों प्लेटों के घर्षण आदि की थ्यौरी दी जा रही है वो आधुनिक वैज्ञानिकों की भूकम्पों के विषय में की गई केवल कल्पना मात्र है इसमें कोई सच्चाई नहीं है!
यदि ये सब कुछ वास्तव में केवल कल्पना प्रसूत ही है है तो फिर ऐसी बातें क्यों बोली जाती हैं कि हिमालय की पर्वत श्रंखला में जमीन के अंदर गैसों का बहुत बड़ा भंडारण है उसके कारण कभी भी कोई बहुत बड़ा भूकंप आ सकता है जिससे बहुत भारी जन धन की हानि हो सकती है किंतु ये सब बातें सुनकर एक प्रश्न उठता है कि जब भूंकपों के विषय में अध्ययन करने वालों को अभी तक कुछ हाथ ही नहीं लगा है तो फिर भ्रम फैलाने एवं समाज के मन में भय उत्पन्न करने वाली बातें कही क्यों जाती हैं |यदि ये झूठ है तो बोला क्यों जाता है और यदि ये सच है तो छिपाया क्यों जाता है इसे सत्य मानकर तर्क पूर्वक स्थापित क्यों नहीं किया जाता है ?कछुए की तरह मुख निकालना और फिर अंदर कर लेने का खेल आखिर चलेगा कब तक !
भूंकपों के आने का कारण समझने की दिशा में चल रही आधुनिक विज्ञान की रिसर्च यात्रा को कितने प्रतिशत सच माना जाए !साथ ही पृथ्वी के अंदर की गैसों के दबाओं के कारण रगड़ने वाली धरती के अंदर की प्लैटों को कितना जिम्मेदार माना जाए ?साथ ही भूकंप संबंधी सच से समाज को भी अवगत करा देने में बुराई भी क्या है ?
कुल मिलाकर भूकंपों के रहस्यों को समझने के लिए केवल धरती के अंदर की गैसों प्लेटों में ही अपने को उलझाए रहना ठीक होगा या इसके अलावा कुछ अन्य विषयों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए !
समय और स्वभाव समझने के पीछे कारण यह है कि जैसे दाल को पकाना हो तो चूल्हा भी हो आग भी जल रही हो बर्तन में पकने के लिए पूरी तरह तैयार रखी दाल हो इसके बाद भी पकने के लिए समय तो चाहिए !
इसी प्रकार बात स्वभाव की है पकने की सारी पर्याप्त व्यवस्था हो और समय भी पूरा दिया जा रहा हो किंतु पकाई वाली वस्तु दाल न हो अपितु छोटे छोटे कंकड़ हों तो कितना भी पकाया जाए क्या वे भी पाक सकते हैं अर्थात नहीं क्योंकि पकने का उनका स्वभाव ही नहीं है तो उन्हें केवल साधनों से तो नहीं ही पचाया जा सकता है |
भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन करते समय भी हमें समय और स्वभाव दोनों को ध्यान रखना ही चाहिए इस दृष्टि से जब हम भूकंपों का अध्ययन करते हैं तब चिंतन यहाँ से प्रारम्भ होता है कि धूल के छोटे छोटे कणों की थोड़ी मात्रा जब कहीं एक जगह आपस में जुड़ कर पिंड बन जाते हैं तो ढेला कहा जाता है यही प्रक्रिया जब कभी बहुत बड़े स्तर पर हुई होगी उसी से तो बनी है यह विशाल धरती | अर्थात अतिविशाल पृथ्वी का ही छोटा सा स्वरूप तो मिट्टी का ढेला है किंतु आतंरिक गैसों से ढेले को तो कभी काँपते नहीं देखा गया फिर उन्हीं आतंरिक गैसों से पृथ्वी कैसे काँप सकती है |
पृथ्वी की आतंरिक गैसों के दबाव के साथ निकलने से यदि भूकंप आता होता तो ऊर्जा जनित बड़े विस्फोट के साथ भी तो वे गैसें बाहर आ सकती थीं उन गैसों के वेग के साथ पृथ्वी के गर्भ में स्थित अन्य वस्तुएँ भी तो बाहर आ सकती थीं और बहुत कुछ नहीं तो धूल का बहुत बड़ा गुबार तो निकल ही सकता था आखिर पृथ्वी की ऊपरी पर्त में रज के छोटे छोटे कण ही तो हैं जब गैसों का इतना भयंकर वेग होगा जो धरती को हिला सकता हो तब तो भूकंप स्थलों पर धूल का भारी भरकम बवंडर जरूर खड़ा हो जाता किंतु ऐसा होते तो कभी नहीं देखा गया !भूकंप के केंद्रीय क्षेत्रों में पृथ्वी के अंदर से निकल रही गैसों के दबाव से उस क्षेत्र के कुओं नलों बोरिंगों या चूहों के गहरे बिलों से पानी अपने आप से उबाल मारने लगता किंतु ऐसा होते तो कभी नहीं देखा गया !फिर इस बात पर भरोसा कैसे कर लिया जाए कि जमीन के अंदर भरी गैस रूपी ऊर्जा के कारण जब प्लेटें हिलती हैं तभी भूकंप आता होगा !और भूकंप आने के समय जमीन में पड़ जाने वाली दरारों के विषय में इस तर्क पर कैसे भरोसा किया जा सकता है कि जमीन के अंदर से निकलने वाली गैसों के दबाव से ही पृथ्वी की ऊपरी सतह पर दरारें पड़ जाती हैं दरारें पड़ते समय न धूल उड़ती है और न ही कोई शब्द होता है फिर भूकंप के विषय में ऐसी काल्पनिक बातों पर भरोसा कैसे कर लिया जाए !रजकणों के एक दूसरे से चिपक जाने के कारण निर्मित पृथ्वी में कम्पन होने मात्र से अति भारवती पृथ्वी में दरारें पड़ जाना सहज और स्वाभाविक है उन दरारों को धरती के अंदर की ऊर्जा रूपी गैसों के निकलने के साथ कभी नहीं जोड़ा जा सकता है |अन्यथा भूकंप समय धरती के अंदर की गैसों के साथ साथ भारी मात्रा में वायु तो होनी ही चाहिए थी |
परमाणु परिक्षण के समय "18 मई 1974, बुद्धपूर्णिमा, सुबह 8 बजकर 5 मिनट। पोकरण फील्ड फायरिंग रेंज में लोहारकी गांव के पास थार रेगिस्तान में कर्णभेदी धमाके की गूंज।वृक्ष और मकान टूट गए थे कुएं से भीमकाय पत्थर बाहर गिर रहे थे, रेत का गुबार आसमान छू रहा था। काफी देर तक जमीन हिलती रही।"किंतु भूकंप आने के समय ऐसा कुछ तो नहीं होता है केवल जमीन ही हिलते देखी जाती है !
संसार में शरीरों या वस्तुओं के अंदर या बाहर खुले वातावरण में जो भी खाली जगहें दिखाई देती हैं वो सब आकाश है घड़े के अंदर जो खाली जगह है वो घटाकाश है ऐसे ही अन्यत्र भी चिंतन किया जाना चाहिए वायु भी खाली जगहों में ही होती है इसलिए खाली जगहें तो बहुत व्यक्तियों वस्तुओं या अन्य प्रकार के जीव धारियों के शरीर के अंदर भी मिल जाएँगी उनमें वायु प्रवाह का अनुभव भी किया जा सकता होगा किंतु उस आतंरिक वायु से उन शरीरों में कंपन होते तो कभी कहीं नहीं देखा सुना जाता है | फिर उसी प्रक्रिया से बनी पृथ्वी में आतंरिक गैसों से अचानक कम्पन कैसे होने लगेगा !
शीत ऋतु में किसी व्यक्ति के शरीर में सर्दी लगने के कारण कंपन होने का मतलब ये तो नहीं होता है कि उसके पेट में गैस भरी होगी उसी के प्रेशर से वो काँप रहा है ऐसा मान कर यदि उसके पेट में छेद किया जाए तो क्या उस शीत पीड़ित व्यक्ति का काँपना बंद हो जाएगा ?या फिर ऐसा कर देने से शरीर में होने वाले कम्पन के कारण का पता लग पाएगा क्या ?
इसी प्रकार से सामने खड़े शेर के भय से यदि कोई व्यक्ति भयवश काँपने लग जाए या भविष्य के भय से किसी को घबड़ाहट होने लगे तो भी उसके कम्पन का कारण जानने के लिए क्या उसके भी पेट में छेद किया जाना चाहिए और उसके पेस की गैसों के प्रेशर को चेक किया जाना चाहिए या उन्हें उस व्यक्ति के कंपन के लिए जिम्मेदार मान लिया जाना चाहिए और उन्हें निकालने का प्रयास किया जाना चाहिए क्या ?
भूकम्पों के विषय में सबसे बड़ी शंका एक और होती है कि विश्व वैज्ञानिकों के द्वारा एक ओर तो ये कहा जाता है कि भूकंपों के आने के कारणों के विषय में अभी तक निश्चित तौर पर कुछ भी कह पाना संभव नहीं है तो वहीँ दूसरी ओर भूकंपों के आने के कारणों के विषय में धरती के अंदर की संचित ऊर्जा के दबाव से जमीन के अंदर की प्लेटों का हिलना उससे भूकम्पों के आने के संबंध में डेंजरजोन के बारे में इतनी निर्भीकता से न केवल बता देना अपितु यही सब कुछ स्कूलों में पढ़ाया जाना है !क्योंकि सामान्य तौर पर देखा जाता है कि जिस वस्तु के विषय में अपने को ही ठीक ठीक पता न हो फिर उसी विषय का स्कूलों में पाठ्यक्रम पूर्वक पढ़ाया जाना परीक्षाएँ होना डिग्री आदि मिलना आदि कितना न्यायसंगत अर्थात विश्वास करने योग्य है ?
भूकंपों के विषय में अध्ययन करते समय अब हमें अपने अंदर भी कुछ सुधार कर लेने चाहिए इससे समाज को बहुत सुविधा होगी और भूकंप संबंधी अध्ययनों पर विश्वास बरकरार बना रहेगा !इस आस्था को सुरक्षित बनाए रखना बहुत आवश्यक है !
भूकंपों से संबंधित अध्ययनों पर विश्व में बहुत सारे शोधकार्य चल रहे हैं और सबका मत लगभग एक ही है क़ि पृथ्वी के अंदर गैसों का भारी भंडारण है उन्हीं गैसों के दबाओं से धरती के अंदर की प्लैटें आपस में रगड़ती हैं उस रगड़ से ही कम्पन प्रकट होता है जिसे हम भूकंप कहते हैं किंतु इस बात को तब तक सच कैसे मान लिया जाए जब तक इस तथ्य पर अध्ययन करते हुए आगे बढ़ने पर कुछ नए तथ्य सामने न आवें !क्योंकि भूकंपों के संबंध में हमारा अध्ययन अनुमान अभिव्यक्ति आदि तब तक प्रमाणित नहीं माने जा सकते जब तक तर्क युक्त कुछ मजबूत बातें समाज के सम्मुख न रखी जा सकें |
भूकंपों के लिए जिस विश्वास के साथ पृथ्वी के अंदर की गैसों के दबाव एवं उससे होने वाले धरती की आतंरिक प्लैटों के घर्षण को जिम्मेदार मान लिया जाता है जैसे सच हो जबकि दूसरे ही क्षण ये कह दिया जाता है कि भूकम्पों के आने के कारणों के विषय में अभी तक कुछ भी कह पाना संभव नहीं है इसका मतलब क्या यह निकाला जाए कि भूकंपों के विषय में आधुनिक वैज्ञानिकों के द्वारा जो गैसों प्लेटों के घर्षण आदि की थ्यौरी दी जा रही है वो आधुनिक वैज्ञानिकों की भूकम्पों के विषय में की गई केवल कल्पना मात्र है इसमें कोई सच्चाई नहीं है!
यदि ये सब कुछ वास्तव में केवल कल्पना प्रसूत ही है है तो फिर ऐसी बातें क्यों बोली जाती हैं कि हिमालय की पर्वत श्रंखला में जमीन के अंदर गैसों का बहुत बड़ा भंडारण है उसके कारण कभी भी कोई बहुत बड़ा भूकंप आ सकता है जिससे बहुत भारी जन धन की हानि हो सकती है किंतु ये सब बातें सुनकर एक प्रश्न उठता है कि जब भूंकपों के विषय में अध्ययन करने वालों को अभी तक कुछ हाथ ही नहीं लगा है तो फिर भ्रम फैलाने एवं समाज के मन में भय उत्पन्न करने वाली बातें कही क्यों जाती हैं |यदि ये झूठ है तो बोला क्यों जाता है और यदि ये सच है तो छिपाया क्यों जाता है इसे सत्य मानकर तर्क पूर्वक स्थापित क्यों नहीं किया जाता है ?कछुए की तरह मुख निकालना और फिर अंदर कर लेने का खेल आखिर चलेगा कब तक !
भूंकपों के आने का कारण समझने की दिशा में चल रही आधुनिक विज्ञान की रिसर्च यात्रा को कितने प्रतिशत सच माना जाए !साथ ही पृथ्वी के अंदर की गैसों के दबाओं के कारण रगड़ने वाली धरती के अंदर की प्लैटों को कितना जिम्मेदार माना जाए ?साथ ही भूकंप संबंधी सच से समाज को भी अवगत करा देने में बुराई भी क्या है ?
कुल मिलाकर भूकंपों के रहस्यों को समझने के लिए केवल धरती के अंदर की गैसों प्लेटों में ही अपने को उलझाए रहना ठीक होगा या इसके अलावा कुछ अन्य विषयों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए !
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