Friday, 23 November 2018

मनोचिकित्सा


   

   

 









धियों ! से र नहीं मिलते हैं जब डोकर उसे कोई





 चिकित्सा शास्त्र में समय का महत्त्व -



     चिकित्सा के लिए औषधीय पद्धति से कम आवश्यक नहीं है समय के महत्त्व की समझ विकसित करना !  समय के संचरण को पहचानने वाले प्राचीन काल के वैद्य लोग किसी रोगी की चिकित्सा प्रारंभ करने से पहले ही उस रोगी के समय का पूर्वानुमान लगा लिया करते थे यदि रोगी ठीक होने लायक होता था तभी उसकी औषधि करते अन्यथा टाल दिया करते थे !क्योंकि औषधि कितनी भी अच्छी क्यों न हो किंतु लाभ तब तक नहीं करती है जब तक कि रोगी का अपना समय साथ नहीं देता है !जिस रोगी का अपना समय ही बुरा होता है उसके लिए अच्छी से अच्छी औषधि एवं अच्छे से अच्छे चिकित्सक और अत्यंत सघन चिकित्सा प्रक्रिया भी निष्प्रभावी सिद्ध हो जाती है तभी तो बड़े बड़े धनवान एवं सुविधा संपन्न लोगों को भी कई बार अल्प आयु में भी मरते  देखा जाता है !दूसरी बात कई रोगी ऐसे होते हैं कि जिनका अपना समय अच्छा होता है वे गरीब होते हैं गाँवों या जंगलों में रहने वाले होते हैं उनके पास चिकित्सा की कोई सुविधा नहीं होती है न धन होता है न अच्छे चिकित्सक और न ही अच्छी औषधि फिर भी वे बड़े बड़े रोगों को पराजित करके स्वस्थ होते देखे जाते हैं केवल उनका समय ठीक होता है इसीलिए तो !जंगलों में पशु या मनुष्य एक दूसरे से झगड़ कर एक दूसरे को घायल कर देते हैं किंतु ऐसे घायलों या बीमारों में से अनेकों को बिना किसी औषधि के भी स्वस्थ होते देखा जाता है !यहाँ तक कि उनके घावों को  भी  भरते देखा  जाता  है |

         कई बार बड़े बड़े विद्वान चिकित्सक लोग भी किसी रोगी को स्वस्थ करनेके लिए अपनी पूर्ण ताकत झोंक देते हैं किंतु उनका अपना समय अच्छा नहीं होता है इसलिए उस रोगी के स्वस्थ होने का श्रेय उनको नहीं मिल पाता है उसी रोगी को उनसे बहुत कम योग्यता रखने वाला कोई दूसरा चिकित्सक साधारण सी दवा दे देता है तो वो उसी से स्वस्थ हो जाता है और उस चिकित्सक को रोगी के रोग मुक्त करने का श्रेय मिल जाता है क्योंकि उस चिकित्सक का वो समय उसके अपने लिए अच्छा होता है |

      जिन चिकित्सकों का अपना समय अच्छा चल रहा होता है उनके पास रोगी भी वही पहुँचते हैं जिनका स्वयं का समय भी अच्छा होता है इसलिए उन्हें हर हाल में स्वस्थ होना ही होता है किन्तु उन्हें रोगमुक्त करवाने का श्रेय उन चिकित्सकों को मिल जाता है | जिन रोगियों का समय अच्छा नहीं होता है वो ऐसे चिकित्सकों तक पहुँच ही नहीं पाते हैं कभी उनका समय नहीं मिलता कभी रोगी ऐसे चिकित्सकों के पास खुद समय से नहीं पहुँच पाते हैं और कभी चिकित्सक को अचानक कहीं जाना पड़ा जाता है कई बार चिकित्सक स्वयं किसी समस्या का शिकार हो जाते हैं किंतु ऐसे रोगियों को देखने का संयोग उन्हें नहीं मिल पाता है रोगी का समय तो खराब था ही उसकी आयु भी पूरी हो ही चुकी थी उसे मरना ही था इसलिए जब ऐसे रोगियों की मृत्यु हो जाती है तो उसके अपयश से वो चिकित्सक बच जाता है और रोगी के परिजन फिर भी यह सोचा करते हैं कि वो एक बार देख लेते तो शायद सुधार हो सकता था !इस प्रकार से ऐसे चिकित्सकों को अपनी भूमिका न निभा पाने के बाद भी उसका यश मिल जाया करता है क्योंकि उनका अपना समय अच्छा होता है |

        बहुत अच्छे चिकित्सक भी किसी को बहुत अच्छी दवा दे सकते हैं किंतु किस रोगी पर किस दवा का कैसा परिणाम होगा इसके विषय में कोई गारंटी नहीं दे सकते !क्योंकि दवा आदि चिकित्सा प्रक्रिया तो चिकित्सक के हाथ में होती है इसलिए किसी रोगी को रोगमुक्त करने हेतु उसमें वो अच्छे से अच्छे प्रयास कर सकता है किंतु रोगी का स्वस्थ होना न होना ये रोगी के अपने समय के अनुशार निश्चित होता है इसलिए उस चिकित्सा का किस रोगी पर कैसा परिणाम होगा ये उस रोगी के अपने अच्छे बुरे समय के अनुशार फलित होता है !

      एक जैसे कुछ रोगियों के शरीरों में एक जैसा रोग होने पर एक जैसे चिकित्सक उन सबकी चिकित्सा एक जैसी चिकित्सापद्धति  से करते हैं और सभी रोगियों पर एक जैसी औषधियों का प्रयोग करते हैं किंतु उस एक जैसी चिकित्सा पद्धति का अलग अलग रोगियों पर अलग अलग असर होते  देखा जाता है जिसके परिणाम स्वरूप कुछ रोगी स्वस्थ हो जाते हैं कुछ अस्वस्थ बने रहते हैं और कुछ मर जाते हैं ! जब रोगी एक जैसे चिकित्सा एक जैसी तो परिणाम अलग अलग होने का कारण उन सभी रोगियों का अपना अपना समय ही तो होता है !

     रोगियों की अच्छी से अच्छी  चिकित्सा चलते रहने पर भी कुछ  रोगी स्वस्थ हो जाते हैं और कुछ मर जाते हैं !ऐसी परिस्थिति में स्वस्थ होने वाले रोगियों का श्रेय (क्रेडिट)यदि चिकित्सापद्धति चिकित्सकों औषधियों आदि को दे भी दिया जाए तो जो रोगी चिकित्सा के बाद भी अस्वस्थ बने रहते हैं या मर जाते हैं तो उनकी जिम्मेदारी भी किसी को तो लेनी ही पड़ेगी !मर जाने वाले रोगियों के लिए कुदरत समय या भाग्य को यदि जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है तो जो स्वस्थ हो जाते हैं उसका भी श्रेय तो कुदरत समय और भाग्य को ही मिलना चाहिए ? दोनों प्रकार की परिस्थितियों के लिए या तो कुदरत जिम्मेदार या फिर चिकित्सा पद्धति !अच्छे परिणामों का श्रेय स्वयं लेना और बुरे परिणामों के लिए कुदरत को कोसने की नीति ठीक नहीं है | ऐसी ढुलमुल बातें विज्ञान की श्रेणी में  कैसे रखी जा सकती हैं |

      ऐसी परिस्थितियों में सबसे बड़ा प्रश्न ये पैदा होता है कि यदि एक जैसे चिकित्सक एक जैसी चिकित्सा प्रक्रिया का पालन करते हुए एक जैसे रोगियों पर किसी एक औषधि का प्रयोग  करते हैं तो उनमें से कुछ स्वस्थ होते हैं कुछ अस्वस्थ बने रहते हैं और कुछ मर जाते हैं !ऐसे तीन प्रकार के परिणाम मिलने पर जो स्वस्थ हुए उन्हें ही चिकित्सा का फल क्यों मान लिया जाए !चिकित्सा काल में भी जो अस्वस्थ बने रहे या जो मर गए उन पर चिकित्सा का प्रभाव कुछ हुआ ही नहीं या हुआ तो किस प्रकार का हुआ !इस बात का निश्चय कैसे किया जाए      ऐसे अलग अलग परिणामों को यदि रोगियों और चिकित्सकों के अपने अपने समय के अनुशार न देखा जाए तो किसी अन्य प्रकार के वर्गीकरण के माध्यम से इस अंतर को कैसे समझा जा सकता है |

     इसका सीधा सा मतलब है कि जिनके ग्रह उनके अनुकूल थे उनका समय ठीक था इसलिए उन्हें तो स्वस्थ होना ही था जिनका न समय ठीक था और न ग्रह अनुकूल थे उन्हें अस्वस्थ रहना या मरना ही था यदि जैसा होना था वैसा ही हो गया तो चिकित्सा पद्धति की अपनी भूमिका किस प्रकार की रही और यदि चिकित्सा पद्धति ने भी समय के सामने ही आत्म समर्पण कर ही दिया तो फिर चिकित्सा प्रक्रिया का अपना प्रभाव  कैसे कहाँ और कितना सिद्ध हुआ !

         सामूहिक बीमारियाँ या महामारियाँ फैलने के प्रकरण में समय की बहुत बड़ी भूमिका होती है जब समय खराब होता है तब सामूहिक महामारियाँ फैलती हैं समय ख़राब कब होता है इसका ज्ञान ज्योतिष शास्त्र  से होता है !ग्रहस्थिति खराब होने के कारण जो सामूहिक रोग फैलते हैं उन रोगों को समाप्त कर देने वाली एक से एक प्रभावी औषधियों का निर्माण यदि ऐसे समय किया जाए तो  उस समय ग्रहों के दुष्प्रभाव के कारण  वे ही औषधियाँ उतने समय के लिए  वीर्यविहीन हो जाती हैं !इसलिए ऐसे समयों में उन औषधियों से रोग मुक्ति की आशा नहीं की जानी चाहिए !इसलिए चरकसंहिता में स्पष्ट कहा गया है कि ग्रहों के अनिष्टकारक योग को आता देख कर रोगों का पूर्वानुमान पूर्वक औषधियों का संग्रह पहले ही कर लेना चाहिए जिससे महामारियों पर नियंत्रण पाया जा सके ! इसलिए भावी रोगों का पूर्वानुमान लगाने के लिए अच्छे बुरे समय को समझना होगा जिसके लिए आवश्यक है ज्योतिष विज्ञान !

    किसी रोगी के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चिकित्सा होती है या उसका अपना समय ?साधन विहीन गरीब या जंगलों में रहने वाले रोगी या घायल लोग या पशु पक्षियों को देखा जाता है कि वे तो बिना चिकित्सा के भी स्वस्थ होते देखे जाते हैं | बाक़ी सभी साधनों से सम्पन्न बड़े लोगों की सघन चिकित्सा व्यवस्था होने पर भी मृत्यु होते देखी जाती है ऐसी परिस्थितियाँ समय के महत्त्व को सिद्ध करती हैं |

        कई कम उम्र के बच्चों को भी बड़े बड़े रोग होते देखे जाते हैं और कई बूढ़े लोगों को भी स्वस्थ देखा जाता है कई बहुत सात्विकता और संयम पूर्वक जीवन जीने वाले लोगों के भी शरीरों में बहुत बड़े बड़े रोग होते देखा जाता है तो कई अत्यंत असंयमित जीवन जीने वाले लोग भी आजीवन स्वस्थ रहते देखे जाते हैं  ऐसी दोनों ही परिस्थितियाँ पैदा होने  का कारण उन दोनों का अपना अपना  समय ही तो है |

     किसी व्यक्ति को कोई रोग होगा या नहीं होगा और होगा तो किस उम्र में होगा कितना बड़ा रोग होगा और कितने समय के लिए होगा ! रोग के बढ़ने की सीमा कहाँ तक होगी !ऐसी बातों का पूर्वानुमान लगाकर संभावित समय में छोटी छोटी बीमारियों को भी बहुत बड़े बड़े रोगों की तरह गंभीरता से लेकर चिकित्सा संबंधी प्रयासों में अत्यंत सतर्कता बरती जा सकती है !

     रोगों के  पूर्वानुमान की पद्धति यदि चिकित्सा के क्षेत्र में भी होती तो कई रोगों को पैदा होने से पहले ही रोका जा सकता था !पैदा हो चुके कुछ रोगों को अधिक बढ़ने से रोका जा सकता था !समय के अनुशार सतर्क चिकित्सा एवं पथ्य परहेज की गंभीरता से संभावित कई बड़े रोग भी  नियंत्रित रखे जा सकते थे |

        सामूहिक रूप से पैदा होने वाले रोगों के विरुद्ध समय रहते जन जागरूकता अभियान चलाए जा सकते थे और चिकित्सकीय व्यवस्थाओं को विस्तारित किया जा सकता था एवं उपयोगी औषधियों का संग्रह किया जा सकता था ! चरक संहिता में इस विधा के स्पष्ट संकेत मिलते हैं !

       मनोरोग होने या बढ़ने के विषय में पूर्वानुमान लग जाने से समय से पूर्व अपने को उस तरह की परिस्थितियों  के सहने योग्य बनाया जा सकता है विवादों से बचाया अथवा उन्हें टाला जा सकता है दुविधा या रिस्क पूर्ण कार्यों व्यवसायों संपर्कों से अपने को अलग रखा जा सकता है |

  आयुर्वेद के शीर्ष ग्रन्थ चरकसंहिता में महर्षि कहते हैं

      समय और चिकित्सा रोगी के लिए दोनों आवश्यक है किंतु इन दोनों में रोगी के लिए वास्तव में अधिक महत्त्व  समय का या चिकित्सा का यह अंतर खोजने के लिए मैंने अपना शोधकार्य प्रारम्भ किया तो देखा कि जब तक जिसका समय अच्छा होता है तब तक उसे कोई बड़ी बीमारी नहीं होती और यदि किसी कारण से  हो भी जाए तो उसे अच्छे डॉक्टर आसानी से मिल जाते हैं अच्छी दवाएँ मिल जाती हैं चिकित्सा के लिए  धन का इंतजाम भी आसानी से हो जाता है और दवा का असर भी आशा से अधिक होने लगता है इसी विचार से मैंने महत्वपूर्ण है क्या किसी रोगी के लिए समय अधिक महत्वपूर्ण है या चिकित्सा ?

    पिछले 20 वर्षों से चिकित्सा के क्षेत्र में वैदिक विज्ञान ज्योतिष एवं आयुर्वेद के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के अध्ययन एवं अनुभवों से पता लगा कि रोगों के निदान तथा रोगों के पूर्वानुमान  के साथ साथ प्रिवेंटिव चिकित्सा एवं मनोरोगों के विषय में लोगों के स्वभावों को समझने में ज्योतिष की बड़ी भूमिका सिद्ध हो सकती है ।कई बार किसी को कोई छोटी बीमारी चोट या फुंसी प्रारंभ होती है और बाद में वो भयंकर रूप ले लेती है।इसी प्रकार कई अन्य बीमारियाँ होती हैं जो प्रारंभ में छोटी बीमारी दिखने के कारण चिकित्सा में लापरवाही कर दी जाती है और बाद में नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं ऐसी परिस्थिति में किसी भी छोटी बड़ी बीमारी का पूर्वानुमान ज्योतिष के द्वारा प्रारम्भ में ही लगा लिया जा सकता है और उसी समय चिकित्सा में सतर्कता बरत लेने से बीमारी पर नियंत्रण किया जा सकता है ।

      आयुर्वेद के बड़े ग्रंथों में  भी समय का महत्त्व समझने के लिए ज्योतिष का उपयोग किया गया है ।     आयुर्वेद का उद्देश्य शरीर को निरोग बनाना एवं आयु की रक्षा करना है जीवनके लिए हितकर  द्रव्य,गुण और कर्मों के उचित  मात्रा  में सेवन से आरोग्य मिलता है एवं अनुचित सेवन से मिलती हैं बीमारियाँ ! यही हितकर और अहितकर द्रव्य गुण और  कर्मों के सेवन और त्याग का विधान आयुर्वेद में किया गया है । ' चिकित्सा शास्त्र में समय  का विशेष महत्त्व  है ।

    आरोग्य लाभ के लिए हितकर द्रव्य गुण और  कर्मों का सेवन करने का विधान करता है आयुर्वेद ये सत्य है किंतु हितकर द्रव्य गुण और  कर्मों का सेवन करके भी स्वास्थ्य लाभ तभी होता है जब  रोगी का अपना समय भी रोगी के अनुकूल हो !अन्यथा अच्छी से अच्छी औषधि लेने पर भी अपेक्षित लाभ नहीं होता है । कई बार एक चिकित्सक एक जैसी बीमारी के लिए एक जैसे कई रोगियों का उपचार एक साथ करता है किंतु उसमें कुछ को लाभ होता है और कुछ को नहीं भी होता है उसी दवा के कुछ को साइड इफेक्ट होते भी देखे जाते हैं !ये परिणाम में अंतर होने का कारण  उन रोगियों का अपना अपना समय है अर्थात चिकित्सक एक चिकित्सा एक जैसी किंतु रोगियों के अपने अपने समय के अनुसार ही औषधियों का परिणाम अलग अलग होते देखा जाता है कई बार एक जैसी औषधि होते हुए भी किन्हीं एक जैसे दो रोगियों पर परस्पर विरोधी परिणाम देखने को मिलते हैं !

      जिस व्यक्ति का जो समय अच्छा होता है उसमें उसे बड़े रोग नहीं होते हैं आयुर्वेद की भाषा में उसे साध्य रोगी माना जाता है ऐसे रोगियों को तो ठीक होना ही होता है उसकी चिकित्सा  हो या न हो चिकित्सा करने पर जो घाव 10 दिन में भर जाएगा !चिकित्सा न होने से महीने भर में भरेगा बस !यही कारण  है कि जिन लोगों को गरीबी या संसाधनों के अभाव में चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती है जैसे जंगल में रहने वाले बहुत से आदिवासी लोग या पशु पक्षी आदि भी बीमार होते हैं या लड़ते झगड़ते हैं चोट लग जाती है बड़े बड़े घाव हो जाते हैं फिर भी जिन जिन का समय अच्छा होता है वो सब बिना चिकित्सा के भी समय के साथ साथ धीरे धीरे स्वस्थ हो जाते हैं !

     जिसका जब समय मध्यम होता है ऐसे समय होने वाले रोग कुछ कठिन होते हैं ऐसे समय से पीड़ित रोगियों को कठिन रोग होते हैं इन्हें आयुर्वेद की भाषा में कष्टसाध्य रोगी माना जाता है । इसी प्रकार से जिनका जो समय ख़राब होता हैं उन्हें ऐसे समय में जो रोग होते हैं वे किसी भी प्रकार की चिकित्सा से ठीक न होने के लिए ही होते हैं इन्हें आयुर्वेद की भाषा में 'असाध्य रोग' कहा जाता है !ये चिकित्सकों चिकित्सापद्धतियों एवं औषधियों के लिए चुनौती होते हैं । ऐसे रोगियों पर योग आयुर्वेद आदि किसी भी विधा का कोई असर नहीं होता है ऐसे समय में गरीब और साधन विहीन लोगों की तो छोड़िए बड़े बड़े राजा महराजा तथा सेठ साहूकार आदि धनी वर्ग के लोग जिनके पास चिकित्सा के लिए उपलब्ध बड़ी बड़ी व्यवस्थाएँ हो सकती हैं किंतु उनका भी वैभव काम नहीं आता है और उन्हें भी गम्भीर बीमारियों से बचाया नहीं जा पाता है !ऐसे समय कई बार प्रारम्भ में दिखाई पड़ने वाली छोटी छोटी बीमारियाँ   इलाज चलते रहने पर भी बड़े से बड़े रूप में बदलती चली जाती हैं छोटी छोटी सी फुंसियाँ कैंसर का रूप ले लेती हैं ये समय का ही प्रभाव है ।

        

    'समयशास्त्र' (ज्योतिष) के बिना अधूरा है चिकित्साशास्त्र !

        सुश्रुत संहिता में भगवान धन्वंतरि कहते हैं कि आयुर्वेद का उद्देश्य है रोगियों की रोग से मुक्ति और स्वस्थ पुरुषों के स्वास्थ्य की रक्षा !अर्थात रोगों के पूर्वानुमान के आधार पर द्वारा भविष्य में होने वाले रोगों की रोक थाम ! 'स्वस्थस्यरक्षणंच'आदि आदि ! किंतु भविष्य में होने वाले रोगों का पूर्वानुमान लगाकर रोग होने से पूर्व सतर्कता कैसे वरती जाए !अर्थात 'समयशास्त्र' (ज्योतिष) के बिना ऐसे पूर्वानुमानों की कल्पना कैसे की जा सकती है ! इसके लिए भगवान धन्वंतरि कहते हैं कि इस आयुर्वेद में ज्योतिष आदि शास्त्रों से संबंधित विषयों का वर्णन जगह जगह जो आवश्यकतानुसार आया हैउसे ज्योतिष आदि शास्त्रों  से  ही पढ़ना  और समझना चाहिए !क्योंकि एक शास्त्र में ही सभी शास्त्रों का समावेश करना असंभव है ।'अन्य शस्त्रोपपन्नानां चार्थानां' आदि ! दूसरी बात उन्होंने कही है कि किसी भी विषय में किसी एक शास्त्र को पढ़कर शास्त्र के निश्चय को नहीं जाना जा सकता इसके लिए जिस चिकित्सक ने बहुत से शास्त्र पढ़े हों वही  चिकित्सक शास्त्र के निश्चय को समझ सकता है ।

                     " तस्मात् बहुश्रुतः शास्त्रं विजानीयात्चिकित्सकः ||"

                                                                                        -सुश्रुत संहिता

            'आयुर्वेद ' में दो शब्द  होते हैं 'आयु' और 'वेद' ! 'आयु ' का अर्थ है शरीर और प्राण का संबंध !

    'शरीर प्राणयोरेवं संयोगादायुरुच्यते !' 'वेद' का अर्थ है 'जानो ' अर्थात शरीर और प्राणों के संबंध को समझो ! ये है आयुर्वेद शब्द का अर्थ ।  प्राणों की चर्चा पूरे आयुर्वेद में अनेकों स्थलों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर देखी जा सकती है चूँकि आयु की दृष्टि से शरीर सबसे कमजोर कड़ी है ये इतना नाजुक है कि कभी भी कहीं भी कैसे भी बीमार आराम नष्ट  आदि कुछ भी हो सकता है इसलिए प्रत्यक्ष तौर पर शरीर की चिंता ही सबसे ज्यादा दिखती है !यहाँ प्राणों की भूमिका बड़ी होते हुए उसकी चर्चा कुछ कम और शरीर की चर्चा अधिक की गई है !फिर भी जीवन के लिए हितकर  द्रव्य,गुण और कर्मों के उचित  मात्रा  में सेवन से आरोग्य मिलता है एवं अनुचित सेवन से मिलती हैं बीमारियाँ ! यही हितकर और अहितकर द्रव्य गुण और  कर्मों के सेवन और त्याग का विधान आयुर्वेद में किया गया है । '

                                   चिकित्सा शास्त्र में समयशास्त्र का महत्त्व

         आरोग्य लाभ के लिए हितकर द्रव्य गुण और  कर्मों का सेवन करने का विधान करता है आयुर्वेद ये सत्य है किंतु हितकर द्रव्य गुण और  कर्मों का सेवन करके भी स्वास्थ्य लाभ तभी होता है जब  रोगी का समय भी रोगी के अनुकूल हो !अन्यथा अच्छी से अच्छी औषधि लेने पर भी अपेक्षित लाभ नहीं होता है । कई बार एक चिकित्सक एक जैसी बीमारी के लिए एक जैसे कई रोगियों का उपचार एक साथ करता है किंतु उसमें कुछ को लाभ होता कुछ को नहीं भी होता हो उसी दवा के कुछ को साइड इफेक्ट होते भी देखे जाते हैं !ये परिणाम में अंतर होने का कारण  उन रोगियों का अपना अपना समय है अर्थात चिकित्सक एक चिकित्सा एक जैसी किंतु रोगियों के अपने अपने समय के अनुसार ही औषधियों का परिणाम होता है कई बार एक जैसी औषधि होते हुए भी दो एक जैसे रोगियों पर परस्पर विरोधी परिणाम देखने को मिलते हैं !

         जिस व्यक्ति का जो समय अच्छा होता है उसमें उसे बड़े रोग नहीं होते हैं आयुर्वेद की भाषा में उसे साध्य रोगी माना जाता है ऐसे रोगियों को तो ठीक होना ही होता है उसकी चिकित्सा  हो या न हो चिकित्सा करने पर जो घाव 10 दिन में भर जाएगा !चिकित्सा न होने से महीने भर में भरेगा बस !यही कारण  है कि जिन लोगों को गरीबी या संसाधनों के अभाव में चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती है जैसे जंगल में रहने वाले बहुत से आदिवासी लोग या पशु पक्षी आदि भी बीमार होते हैं या लड़ते झगड़ते हैं चोट लग जाती है बड़े बड़े घाव हो जाते हैं फिर भी जिन जिन का समय अच्छा होता है वो सबबिना चिकित्सा के भी समय के साथ साथ धीरे धीरे स्वस्थ हो जाते हैं !

           जिसका जब समय मध्यम होता है ऐसे समय होने वाले रोग कुछ कठिन होते हैं ऐसे समय से पीड़ित रोगियों को कठिन रोग होते हैं इन्हें आयुर्वेद की भाषा में कष्टसाध्य रोगी माना जाता है इन्हें सतर्क चिकित्सा से आयु पर्यंत यथा संभव के  सुरक्षित किया जा सकता है अर्थात आयु अवशेष होने के कारण मरते नहीं हैं और सतर्क चिकित्सा के कारण घसिटते नहीं हैं अस्वस्थ होते हुए भी औषधियों के बल पर काफी ठीक जीवन बिता लिया करते हैं किंतु जब तक समय अच्छा नहीं होता तब तक पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाते हैं !कई बार वह मध्यम समय बीतने के बाद कुछ रोगियों का अच्छा समय भी आ जाता है जिसमें वे पूरी तरह स्वस्थ होते देखे जाते हैं ऐसे समय वो जिन जिन औषधियों उपचारों या चिकित्सकों के संपर्क में होते हैं अपने स्वस्थ होने का श्रेय उन्हें देने लगते हैं कई कोई इलाज नहीं कर रहे होते हैं वो भगवान को श्रेय देने लगते हैं !

               इसी प्रकार से जिनका जो समय ख़राब होता हैं उन्हें ऐसे समय में जो रोग होते हैं वे किसी भी प्रकार की चिकित्सा से ठीक न होने के लिए ही होते हैं इन्हें आयुर्वेद की भाषा में 'असाध्य रोग' कहा जाता है !ये चिकित्सकों चिकित्सापद्धतियों एवं औषधियों के लिए चुनौती होते हैं । ऐसे रोगियों पर योग आयुर्वेद आदि किसी भी विधा का कोई असर नहीं होता है ऐसे समय में गरीब और साधन विहीन लोगों की तो छोड़िए बड़े बड़े राजा महराजा तथा सेठ साहूकार आदि धनी वर्ग के लोग जिनके पास चिकित्सा के लिए उपलब्ध बड़ी बड़ी व्यवस्थाएँ हो सकती हैं किंतु उनका भी वैभव काम नहीं आता है और उन्हें भी गम्भीर बीमारियों से बचाया नहीं जा पाता है !ऐसे समय कई बार प्रारम्भ में दिखाई पड़ने वाली छोटी छोटी बीमारियाँ   इलाज चलते रहने पर भी बड़े से बड़े रूप में बदलती चली जाती हैं छोटी छोटी सी फुंसियाँ कैंसर का रूप ले लेती हैं ।

             ऐसी परिस्थिति में इस बात पर विश्वास  किया जाना चाहिए कि जिस रोगी का जब जैसा अच्छा बुरा समय होता है तब तैसी बीमारियाँ होती हैं और उस पर औषधियों का असर भी उसके समय के अनुसार ही होता है । जिसका समय ठीक होता है ऐसे रोगी का इलाज करने पर उसे आसानी से रोग से मुक्ति मिल जाती है इसलिए ऐसे डॉक्टरों को आसानी से यश लाभ हो जाता है !

             इसलिए चिकित्सा में सबसे अधिक महत्त्व रोगी के समय का होता है जिसका समय अच्छा होता है ऐसे लोगों पर रोग भी छोटे होते हैं इलाज का असर भी जलदी होता है इसके साथ साथ ऐसे लोग यदि किसी दुर्घना का भी शिकार हों तो अन्य लोगों की अपेक्षा इन्हें चोट कम आती है या फिर बिलकुल नहीं आती है एक कर पर चार लोग बैठे हों तो और एक्सीडेंट हों टी कई बार देखा जाता है कि तीन लोग नहीं बचे किंतु एक को खरोंच भी नहीं आती है क्योंकि उसका समय अच्छा चल  रहा होता है ।

     भूतविद्या -आयुर्वेद के 6 अंगों में से चौथे अंग का नाम है भूत विद्या !इसी भूत विद्या के अंतर्गत महर्षि सुश्रुत कहते हैं कि देव असुर गन्धर्व यक्ष राक्षस पिटर पिशाच नाग ग्रह आदि के आवेश से दूषित मन वालों की  शांति कर्म ही भूत विद्या है । इसमें ग्रहों का वर्णन भी आया है !

           जिनका समय मध्यम होता है ऐसे लोग इस तरह के विकारों से  तब तक ग्रस्त रहते हैं जब तक  समय मध्यम रहता है ऐसे रोगी इन आवेशों के  कारण ही अचानक कभी बहुत बीमार हो जाते हैं और कभी ठीक हो जाते हैं जाँच होती है तो इनकी छाया हट जाती है और फिर पीड़ित करने लगती है ऐसे में जाँच रिपोर्टों में कुछ आता नहीं है और बीमारी बढ़ती चली जाती है दूसरी बात ऐसे लोग जहाँ जहाँ इलाज के लिए जाते हैं वहाँ वहाँ इन्हें एक बार एक दो बार फायदा मिल जाता है फिर वहीँ पहुँच जाते हैं इसीलिए ऐसे लोगों का चिकित्सा की सभी पद्धतियों पर भरोसा जमता चला जाता है किंतु पूरा लाभ कहीं से नहीं होता है यहाँ तक कि तांत्रिकों आदि पर भी ऐसी परिस्थिति में ही लोग भरोसा करने लगते हैं !जबकि सारा दोष इनके समय की खराबी का होता है ।

           समय स्वयं ही  सबसे बड़ी औषधि है -

           किसी को कोई बीमारी हो जाए और उसे कितनी भी अच्छी दवा क्यों न दे दी जाए किंतु लोग समय से ही स्वस्थ होते देखे जाते हैं चिकित्सा न होने पर स्वस्थ होने मेंसमय कुछ अधिक लगता है और चिकित्सा होने पर  समय कुछ कम लग जाता है ।विशेष बात ये भी है कि औषधि किसी को कितनी भी अच्छी क्यों न दे दी जाए किंतु ठीक वही होते हैं जिन्हें ठीक होना होता है यदि  ऐसा न होता तो बड़े बड़े राजा महाराजा सेठ साहूकार आदि सुविधा सम्पन्न बड़े बड़े धनी लोग हमेंशा हमेंशा के लिए स्वस्थ अर्थात अमर हो जाते !इससे सिद्ध होता है कि जीवनरक्षा की दृष्टि से चिकित्सा बहुत कुछ है किंतु सबकुछ नहीं है ।इसमें समय की भी बहुत बड़ी भूमिका है इसलिए समय का भी अध्ययन किया जाना चाहिए ।

    महामारी आदि सामूहिक बीमारियाँ होने के कारण -

            जब अश्विनी आदि नक्षत्र चन्द्र सूर्य आदि ग्रहों के विकार से समय दूषित हो जाता है उससे  ऋतुओं में विकार आने लगते हैं और समय में विकार आते ही देश और समाज पर उसका दुष्प्रभाव दिखने लगता है इससे वायु प्रदूषित होने लगती है और वायु प्रदूषित  होते ही जल दूषित होने लगता है और जब इन चारों चीजों में प्रदूषण फैलने लगता है तब विभिन्न प्रकृति वाले स्त्री पुरुषों को एक समय में एक जैसा  रोग हो जाता है । यथा -"वायुरुदकं देशः  काल इति "-चरक संहिता

         वायु से जल और जल से देश और देश से काल अर्थात समय सबसे अधिक बलवान होता है !

      " वाताज्जलं जलाद्देशं देषात्कालं स्वभावतः "-चरक संहिता

     महामारियाँ फैलते समय बनौषधियाँ भी गुणहीन हो जाती हैं !

         इसीलिए समय के विपरीत होने पर प्रकृति में दिखने वाले उत्पातों के फल जब प्रकट होते हैं तो सामूहिक रूप से बीमारियाँ फैलने लगती हैं कई बार तो यही बीमारियाँ महामारियों तक का रूप ले जाती हैं !जब नक्षत्र चन्द्र सूर्य आदि ग्रहों के विकारों के फल स्वरूप फल स्वरूप समाज में महामारियाँ फैलती हैं तो इनमें लाभ करने वालीबनौषधियाँ भी ग्रह विकारों के दुष्प्रभावों से इतना प्रभावित होती हैं कि महामारियों में लाभ करने वाले गुणों से हीन  हो जाती हैं अर्थात वो बनौषधियाँ अपने जिन गुणों के कारण जिन रोगों से मुक्ति दिलाने में सक्षम होने के कारण प्रसिद्ध होती हैं किंतु महामारी फैलते समय उन औषधियों से भी उन गुणों का लोप हो जाता है ।इसलिए  ऐसी महामारियाँ फैलने का समय आने से पहले यदि बनौषधियों  का संग्रह कर लिया जाए तो वो बनौषधियाँ  महामारी फैलने के समय भी बीमारियों से लड़ने में सक्षम होती हैं क्योंकि प्राकृतिक उत्पातों का समय प्रारम्भ होने से पहले ही उनका संग्रह कर लिया जा चुका होता है ।

             यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि महामारी फैलने से पहले ये पता कैसे चले ?

            कब महामारी फैलने वाली है और बिना पता चले ऐसे किन किन बनौषधियों  का कितना संग्रह किया जा सकता है !इसका उत्तर देते समय चरक संहिता में कहा गया है कि भगवान पुनर्वसुआत्रेय आषाढ़ के महीने में गंगा के किनारे बनों में घूमते हुए अपने शिष्य पुनर्वसु से बोले "देखो -स्वाभाविक अवस्था में स्थित अश्विनी आदि नक्षत्र चन्द्र सूर्य आदि ग्रह ऋतुओं में विकार करने वाले देखे जाते हैं इस समय शीघ्र ही पृथ्वी भी औषधियों के रस वीर्य विपाक तथा प्रभाव को यथावत उत्पन्न न करेगी इससे रोगों का होना अवश्यंभावी है अतएव जनपद विनाश से पूर्व भूमि के रस रहित होने से पूर्व औषधियों के रस,वीर्य,विपाक और प्रभाव के नष्ट होने से पूर्व बनौषधियों का संग्रह कर लो समय अाने पर हम इनके रस वीर्य विपाक तथा प्रभाव का उपयोग करेंगे !इससे जनपद नाशक विकारों को रोकने में कुछ कठिनाई नहीं होगी !"यथा -

      " दृश्यंते हि खलु सौम्य नक्षत्र ग्रह चंद्रसूर्यानिलानलानां दिशां च प्रकृति भूतानामृतु  वैकारिकाः भावाः "-चरक संहिता       

     मेरे कहने का आशय  यह है कि भगवान पुनर्वसुआत्रेय जी को  'समय शास्त्र (ज्योतिष)'का ज्ञान होने के कारण ही तो पता लग पाया कि आगे जनपद विद्ध्वंस  होने जैसी परिस्थिति पैदा  होने वाली है तभी संबंधित बीमारियों में लाभ करने वाली बनौषधियों के संग्रह के विषय में वे निर्णय ले सके ! सुश्रुत संहिता में तो ऐसे खराब ग्रह योगों को काटने के लिए प्रायश्चित्त एवं ग्रहों की शांति करने का विधान कहा गया है -

                                                प्रायश्चित्तं प्रशमनं चिकित्सा शांतिकर्म  च  ।

                                                                                                       -  सुश्रुतसंहिता       

    इसलिए चिकित्सा शास्त्र के लिए बहुत आवश्यक है 'समय शास्त्र (ज्योतिष)' का अध्ययन ! इसके बिना चिकित्सा शास्त्र  का सम्यक निर्वाह कर पाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव भी है ।

    मनोरोग -

      सुश्रुत संहिता में शारीरिक रोगों के लिए तो औषधियाँ बताई गई हैं  किंतु मनोरोग के लिए किसी औषधि का वर्णन न करते हुए उन्होंने कहा कि इसके लिए शब्द स्पर्श रूप रस गंध आदि का सुखकारी प्रयोग करना चाहिए !

        यथा -  "मानसानां तु शब्दादिरिष्टो वर्गः सुखावहः |'

         कुल मिलाकर विश्व की किसी  भी चिकित्सा पद्धति में मनोरोगियों को स्वस्थ करने की कोई दवा नहीं होती नींद लाने के लिए दी जाने वाली औषधियाँ  मनोरोग की दवा नहीं अपितु नशा  हैं उन्हें मनोरोग की दवा नहीं कहा जा सकता है ! अब बात आती है  काउंसलिंग अर्थात परामर्श चिकित्सा की !

        काउंसलिंग अर्थात परामर्श चिकित्सा -

            काउंसलिंग के नाम पर चिकित्सावैज्ञानिक मनोरोगी को जो बातें समझाते हैं उनमें उस मनोरोगी के लिए कुछ नया और कुछ अलग से नहीं होता है क्योंकि स्वभावों के अध्ययन के लिए उनके पास कोई ठोस आधार नहीं हैं और बिना उनके किसी को कैसे समझा सकते हैं आप !कुछ मनोरोगियों पर किए गए कुछ अनुभव कुछ अन्य लोगों पर अप्लाई किए जा रहे होते हैं किंतु ये विधा कारगर है ही नहीं  हर किसी की परिस्थिति मनस्थिति सहनशीलता स्वभाव साधन और समस्याएँ आदि अलग अलग होती हैं उसी हिसाब से स्वभावों के अध्ययन की भी कोई तो प्रक्रिया होनी चाहिए !इस विषय में मैं ऐसे कुछ समझदार लोगों से मिला भी उनसे चर्चा की किंतु वे कहने को तो मनोचिकित्सक  थे किंतु मनोचिकित्सा के   विषय में  बिलकुल कोरे और खोखले थे !मैंने उनसे पूछा कि मन के आप चिकित्सक है तो मन होता क्या है तो उन्होंने कई बार हमें जो समझाया उसमें मन बुद्धि आत्मा विवेक आदि सबका घालमेल था किंतु मनोचिकित्सा की ये प्रक्रिया ठीक है ही नहीं क्योंकि इसके लिए हमें मन बुद्धि आत्मा आदि को अलग अलग समझना पड़ेगा और चोट कहाँ है ये खोजना होगा तब वहाँ लगाया जा सकता है प्रेरक विचारों का मलहम ! इसलिए ऐसी आधुनिक काउंसलिंग से केवल सहारा दे दे कर मनोरोगी का  कुछ समय तो  पास किया जा सकता है बस इससे ज्यादा कुछ नहीं !

     'समयशास्त्र' (ज्योतिष) -के द्वारा मनोचिकित्सा के क्षेत्र में किसी मनोरोगी का विश्लेषण करने के लिए उसके जन्म समय तारीख़ महीना वर्ष आदि पर रिसर्च कर के सबसे पहले उस मनोरोगी का स्थाई स्वभाव खोजना होता है इसके बाद उसी से उसका वर्तमान स्वाभाव निकालना होता है फिर देखना होता है कि रोगी का दिग्गज फँसा कहाँ है ये सारी चीजें समय शास्त्रीय स्वभाव विज्ञान के आधार पर तैयार करके इसके बाद मनोरोगी से करनी होती है बात और उससे पूछना कम और बिना  बताना ज्यादा होता है उसमें उसे बताना पड़ता है कि आप अमुक वर्ष के अमुक महीने से इस इस प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं उसमें कितनी गलती आपकी है और कितनी किसी और की ये सब अपनी आपसे बताना होता है उसके द्वारा दिया गया डिटेल यदि सही है तो ये प्रायः साठ से सत्तर प्रतिशत तक सही निकल आता है जो रोगी और उसके घरवालों ने बताया नहीं होता है इस कारण मनोरोगी को इन बातों पर भरोसा होने लगता है इसलिए उसका मन मानने को तैयार हो जाता है फिर वो जानना चाहता है कि ये तनाव घटेगा कब और घटेगा या नहीं !ऐसे समय इसी विद्या से इसका उत्तर खोजना होता है यदि घटने लायक संभावना निकट भविष्य में है तब तो वो बता दी जाती है और विश्वास दिलाने के लिए रोगी से कह  दिया जाता है कि मैं आपके बीते हुए जीवन से अनजान था मेरा बताया हुआ आपका पास्ट जितना सही है उतने प्रतिशत फ्यूचर भी सही निकलेगा !इस बात से रोगी को बड़ा भरोसा मिल जाता है और वह इसी सहारे बताया हुआ समय बिता लेता है !

     दूसरी बात इससे विपरीत अर्थात निकट भविष्य में या भविष्य में जैसा वो चाहता है वैसा होने की सम्भावना नहीं लगती है तो भी उसके  बीते  हुए समय के बारे में बताकर पहले तो विश्वास में ले लिया जाता है फिर फ्यूचर के विषय  में न बताकर  अपितु  घुमा फिरा कर कुछ ऐसा समझा दिया जाता है जिससे तनाव घटे और वो धीरे धीरे भूले इसके लिए कईबार उसके साथ बैठना होता है । आदि

     इस प्रकार से   मनोचिकित्सा के   विषय में भी  'समयशास्त्र' (ज्योतिष)की बड़ी भूमिका है

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