विज्ञान -
प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान तो वैसे
भी हर जगह परीक्षण से प्रकट होने वाली प्रामाणिक पवित्र पारदर्शिता को ही
स्वीकार करता है !जितने प्रकार के भी वैज्ञानिक अनुसंधान किए जाते हैं वो
परीक्षण की कसौटी पर कसे जाने के बाद ही शुद्ध प्रमाणित एवं पारदर्शी माने
जाते हैं !परीक्षण की कसौटी पर निरंतर गलत सिद्ध होते रहने वाले प्रयोगों
को सफल एवं विश्वसनीय कैसे माना जा सकता है !परीक्षण में सफल सिद्ध होने के बाद ही औषधियों का प्रयोग किया जाता है परमाणु परीक्षण से लेकर सभी आविष्कारों को अपनी प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए परीक्षण की कसौटी पर कसे जाने पर अपने को प्रमाणित सिद्ध करना होता है !ये विज्ञान का सिद्धांत है किंतु पर्यावरण प्रदूषण
वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान भूकंप जैसी बड़ी बड़ी घटनाओं के आधारभूत मनगढंत तर्क
दिए जा रहे हैं जिन्हें प्रमाणित किसी कसौटी पर कसे बिना उनकी प्रमाणिकता
सिद्ध हुए बिना वो मनगढंत अपरिपक्व आविष्कार ही समाज को परोसे जा रहे हैं
!कारण और निवारण बताए जा रहे हैं समाज को सुधरने की सलाहें दी जा रही हैं
!हद तो तब हो जाती है जब यही अप्रमाणित अपरिपक्व मनगढंत कथा कहानियों को
प्राकृतिक घटनाओं में गूँथ गूँथ कर स्कूलों में पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जा
रहा है जिनसे कल्पित वैज्ञानिक तैयार किए जा रहे हैं वो जिस विषय के
वैज्ञानिक होने की डिग्रियाँ लिए होते हैं उसी विषय की जानकारी के अभाव में
उन्हें वैज्ञानिक मान लेना कहाँ तक तर्क संगत है !
पूर्वानुमान -
किसी भी विषय में किया जाने वाला
पूर्वानुमान यदि 50 प्रतिशत सच और 50 प्रतिशत गलत निकले तो ये आम बात है ये
पूर्वानुमान सिद्धांत के विरुद्ध हैं ऐसे तीर तुक्के तो किसान ग्रामीण या
आदिवासी लोग भी लगा लेते हैं !ऐसे अनुमान लगाने का खिलवाड़ तो बच्चे खेल खेल
में अक्सर कर लिया करते हैं कई बार उनमें भी 50 प्रतिशत सच्चाई घटित होते
देखी जाती है !75 प्रतिशत या उससे अधिक सच होने वाले अनुमान ही विश्वास
करने योग्य होते हैं !पिछले
बारह वर्षों में मौसम विज्ञान के द्वारा मौसम के विषय में की जाने वाली
दीर्घावधि 12 भविष्यवाणियों में से केवल 5 का सही होने से लगता तो है कि
मौसम विज्ञान का आकलन मात्र चालीस फीसदी ही सटीक बैठा है किंतु ये चालीस
प्रतिशत अन्य मामलों में तो आधे से कुछ कम होने के कारण कुछ महत्त्व रखता
भी है किंतु पूर्वानुमान की कसौटी पर आधे से कम होने का मतलब केवल शून्य
होता है इसके अलावा कुछ भी नहीं ! सच्चाई तो ये है कि चालीस प्रतिशत ही सही
ये इतना आगे भी घटित होता रहेगा इसकी विश्वसनीयता पर भी अभी तक प्रश्न चिन्ह है !इस प्रकार से
तमाम शंकाओं संभावनाओं के बाद वर्षा संबंधी पूर्वानुमानों पर विश्वास कितने
प्रतिशत किया जाए समाज को ये विश्वास दिलाया जाना भी अभी तक बाकी है !
2017 में मानसून पूर्वानुमान करने के विषय में भविष्यवाणियाँ की गईं
!जिसमें स्काईमेट ने अपने अनुमान में कहा कि इस बार मानसून कमजोर रहेगा,
जबकि एक दिन बाद भारतीय मौसम विभाग
ने देशभर में सामान्य बारिश की भविष्यवाणी कर दी !स्काईमेट ने अपनी
भविष्यवाणी का आधार प्रशांत महासागर की
परिघटना अलनीनो को बताया है, जबकि भारतीय मौसम विभाग ने अपनी भविष्यवाणी का
आधार हिन्द महासागर की परिघटना इंडियन ओशन डाइपोल अर्थात 'आईओडी' को माना है ! आईओडी को दो क्षेत्रों–अरब सागर का
पश्चिमी ध्रुव और दूसरा दक्षिण इंडोनेशिया स्थित पूर्वी हिन्द महासागर का
पूर्वी ध्रुव के बीच समुद्र के सतह के तापमान के अंतर के तौर पर परिभाषित
किया जा सकता है.
अलनीनो -
प्रशांत महासागर की परिघटना अलनीनो और हिन्द
महासागर की परिघटना इंडियन ओशन डाइपोल, दोनों ही परिघटनाएं अभी पूर्णतः
विकसित नहीं हुई हैं। इसलिए मौसम पूर्वानुमान का आधार मानकर इन दोनों को ही
तब तक नहीं माना जा सकता जब तक कि पूर्वानुमानों की सत्यता से ये प्रमाणित
न हो जाएँ और इन दोनों का ही प्रमाणित होना अभी बाकी है !
मौसम का पूर्वानुमान लगाने वाले कुछ
वैज्ञानिकों ने अपने द्वारा बताए जाने वाले मौसमी पूर्वानुमानों का आधार
'अलनीनों' को माना है तो भारतीय मौसम विभाग ने अपनी भविष्यवाणी के लिए
हिन्द महासागर की परिघटना इंडियन ओशन डाइपोल को माना है !
किंबदंती है कि प्रशांत महासागर में अलनीनो के पैदा होने से समुद्र की
सतह गर्म हो जाती
है, जिसकी वजह से हवाओं की राह और रफ्तार बदल जाती है। माना जाता है कि इस
कारण मौसम-चक्र
प्रभावित हो जाता है और समय समय पर दिखने वाले सूखा या बाढ़ के प्रकोप का
प्रमुख कारण अलनीनों है किंतु अलनीनों को आधार मानकर की जाने वाली मौसम से
संबंधित भविष्यवाणियाँ जब तक 75 प्रतिशत सच न घटित हों तब तक मौसम
पूर्वानुमान के लिए अलनीनों को प्रमाणित प्रमाणित आधार नहीं माना जा सकता
है !मौसम से अलनीनों का सीधा संबंध सिद्ध हुए बिना यह कहानी मनगढ़ंत नहीं है
ऐसा कैसे मानलिया जाए !
184 देशों पर जलवायु-परिवर्तन - धरती का बढ़ता तापमान
सदी के अंत तक प्रलय-दृश्य को साकार कर सकता है। कहीं अल्प-वर्षा, तो कहीं
अति-वर्षा दिखाई दे सकती है।
कुछ विचारकों का मानना है कि अगले दो सौ वर्षों में
जलवायु-परिवर्तन के कारण, भारत को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली, मानसून
प्रणाली बहुत कमजोर पड़ जाएगी। इस दौरान भारत सहित तमाम दुनिया का तापमान छः
डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। यहां तक कि मानसून में बारिश कम होने के
कारण भी स्थितियां ज्यादा भयावह हो सकती हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तरी गोलार्द्ध में जो अतिआक्रामक प्रदूषण हो
रहा है, उससे दक्षिणी गोलार्द्ध प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकता है ?
थर्मल पॉवर प्लांट्स से निकलने वाली कार्बन डाई-ऑक्साइड और सल्फर
डाई-ऑक्साइड दुनिया के कई-कई देशों सहित भारत में भी तबाही मचा रही है।
इंपीरियल कॉलेज, लंदन के एक शोध में बताया गया है कि यूरोप में
वायु-प्रदूषण-विस्तार के चलते यूरोप से करीब छः हजार किलोमीटर दूर स्थित
भारत, वर्ष 2000 में कितने विकराल सूखे से प्रभावित हुआ था ? स्मरण रखा जा
सकता है कि तब हमारे देश में एक करोड़ तीस लाख से भी कहीं ज़्यादा लोग सूखे
की भयानकता के शिकार हुए थे।
सामान्यतः व्यापारिक पवन समुद्र के गर्म सतही जल को दक्षिण अमेरिकी तट से दूर ऑस्ट्रेलिया एवं फिलीपींस
की ओर धकेलते हुए प्रशांत महासागर के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर बहती है।
एल निनो गर्म जलधारा है जिसके आगमन पर सागरीय जल का तापमान सामान्य से
३-४° बढ़ जाता है। पेरू के तट के पास जल ठंडा होता है एवं पोषक-तत्वों से
समृद्ध होता है जो कि प्राथमिक उत्पादकों, विविध समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों
एवं प्रमुख मछलियों को जीवन प्रदान करता है। एल नीनो के दौरान, व्यापारिक
पवनें मध्य एवं पश्चिमी प्रशांत महासागर में शांत होती है। इससे गर्म जल को
सतह पर जमा होने में मदद मिलती है जिसके कारण ठंडे जल के जमाव के कारण
पैदा हुए पोषक तत्वों को नीचे खिसकना पड़ता है और प्लवक जीवों एवं अन्य
जलीय जीवों जैसे मछलियों का नाश होता है तथा अनेक समुद्री पक्षियों को भोजन
की कमी होती है। इसे एल नीनो प्रभाव कहा जाता है जो कि विश्वव्यापी मौसम
पद्धतियों के विनाशकारी व्यवधानों के लिए जिम्मेदार है।[2]
एक बार शुरू होने पर यह प्रक्रिया कई सप्ताह या महीनों चलती है। एल-नीनो
अक्सर दस साल में दो बार आती है और कभी-कभी तीन बार भी। एल-नीनो हवाओं के
दिशा बदलने, कमजोर पड़ने तथा समुद्र के सतही जल के ताप में बढोत्तरी की
विशेष भूमिका निभाती है। एल-नीनो का एक प्रभाव यह होता है कि वर्षा के
प्रमुख क्षेत्र बदल जाते हैं। परिणामस्वरूप विश्व के ज्यादा वर्षा वाले
क्षेत्रों में कम वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्यादा वर्षा होने
लगती है। कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है।[3]
No comments:
Post a Comment