Thursday, 28 July 2016

कर्मचारियों की सैलरी बढ़ाने से पहले किसानों की जान बचाना सरकार की पहली प्राथमिकता क्यों नहीं है ?

   सैलरी बढ़ रही  है कर्मचारियों की और आत्महत्या कर रहे हैं किसान ! बारे वेतन आयोग !बारी मूल्यांकन की पद्धति ! इन सरकारों में किसानों का कोई अपना नहीं होता है क्या आखिर उनका संघर्ष किसी वेतन आयोग को क्यों नहीं दिखाई पड़ता है !!
   ये है हमारी वसुधैव "वसुधैवकुटुंबकं "की विश्व प्रसिद्ध भावना !बारे लोकतंत्र !इसमें प्रत्येक व्यक्ति का भला करने की कसमें खाई जाती हैं और सैलरी और सुविधाएँ केवल अपनी और अपने कर्मचारियों की बढ़वाई जाती है । भला केवल सरकारों में सम्मिलित लोगों का और सरकारी कर्मचारियों का होता है !बारे   कृषिप्रधान देश !
      कृषि प्रधान देश है तो सैलरी का मानक किसानों की औसत आमदनी को क्यों न रखा जाए।किसानों की अपेक्षा जिसके काम में जितना अधिक परिश्रम है रिस्क है जिम्मेदारी है उसे  उतने गुना अधिक  दी जानी चाहिए सैलरी !सरकार को अपने मुख कहने में संकोच होता है तो वेतन आयोगों की आड़ ले लेकर उड़ेले जा रही  है सैलरी !जनता का पैसा है जनता से पूछा गया क्या कि इनके काम से कितने प्रतिशत संतुष्ट हैं आप उतनी प्रतिशत बढ़ा दी जाती सैलरी !
   किसानों की सुध क्यों लेगा देश का कोई वेतन आयोग !किसान आखिर उनका रिश्ता क्या है और किसानों से हमदर्दी कैसी ये तो बने ही दुःख भोगने के लिए हैं बारी सोच ! 
      जिन कर्मचारियों को पहले से ही किसानों की आमदनी की अपेक्षा बीसों गुना अधिक सैलरी दी जा रही हो उनमें से बहुत लोग भ्रष्टाचार करके भी कमाने के लिए स्वतंत्र हों इसके बाद भी तब तक सैलरी बढ़ाने का क्या औचित्य जब तक देश के गरीबों मजदूरों किसानों  की आमदनी नहीं बढ़ ली जाती !मुख्यरूप से तब तक तो सैलरी बढ़ाना महा पाप है जब तक भ्रष्टाचार अर्थात घूस खोरी रोकने में सरकार की सामर्थ्य का असर समाज में न दिखाई पड़े !
   बड़ा से बड़ा अपराधी घूस देकर बच निकलने के बल पर करता है अपराध ! संभव है कि यदि भ्रष्टाचार न होता तो अपराध भी न होते ! 
    इसलिए अपराध रोकने की इच्छुक सरकारों की पहली प्राथमिकता घूस खोरी बंद करने की होनी चाहिए !दूसरी प्राथमिकता काम की क्वालिटी में सुधार होना चाहिए !सरकारी आफिसों में काम करने के लिए नियुक्त अधिकारियों कर्मचारियों में बहुत बड़ा वर्ग उन लोगों का है जो जिस काम के लिए रखे गए हैं वो करने की योग्यता ही नहीं है वो करें क्या ?उन शिक्षकों से पढ़वाया जा रहा है जिन्हें खुद कुछ नहीं आता भ्रष्टाचार से भरे गए सरकारी कर्मचारियों को चिन्हित करके उनसे आज तक की सैलरी वापस ली जाए और खदेड़ बाहर किया जाए !देश को इनसे कोई उमींद नहीं है जो लोग अपने अपने विभागों का भ्रष्टाचार नहीं बंद कर सके वो किसी लायक नहीं ऐसे अधिकारियों की सैलरी का बोझ देश की जनता के कन्धों पर जबर्दश्ती क्यों डाल रही है सरकार । 
    काश !देश के श्रद्धेय सैनिकों से सरकार और सरकारी कर्मचारी कुछ सीखें !जहाँ अपनी लापरवाही की कीमत केवल अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है जबकि देश के बाकी कर्मचारियों की लापरवाही की कीमत केवल जनता चुकाती है यदि सरकार ऐसा कुछ कर पावे कि इनकी लापरवाही भी इन्हें भोगनी पड़े तो अपने आप समाप्त हो जाएगा भ्रष्टाचार !    केंद्रीय कर्मचारियों की बढ़ेगी सैलरी ! महँगाई काबू करने एवं भुखमरी समाप्त करने के लिए सरकार ने उठाया एक साहसी कदम !सरकारों  सम्मिलित लोग और सरकारी कर्मचारियों के पेट जिस दिन भर जाएँगे उस दिन ये देश सकून की सांस ले सकेगा !क्योंकि उस दिन भ्रष्टाचार नहीं होगा !
    सरकारों में सम्मिलित लोग और सरकारी कर्मचारी जैसे चाहें वैसे जनता के कमाए हुए धन को भोगें वो चाहें तो सैलरी लें सैलरी बढ़ा लें ,महँगाई भत्ता लें ,पेंशन लें तब भी न पूरी पर तो घूस से कमा लें !सरकारें जो योजनाएँ बनाती हैं सरकारी कर्मचारी जिस तरह काम करते हैं या सरकारी स्कूलों कार्यालयों में जैसे शिक्षाप्रद श्लोगन लिखवाए जाते हैं उससे तो लगता है कि  सरकारों में सम्मिलित नेता और सरकारी कर्मचारी ईमानदारी पूर्वक जनता के लिए कुछ करना चाह रहे हैं किंतु जाता सब इन्हीं लोगों की जेब में हैं जनता पहले भी खाली हाथ थी और आज भी खाली हाथ है सरकारें आती हैं चली जाती हैं कुछ नए लोगों के माथे पर मंत्री मुंत्री होने का तमगा लग जाता है बस इससे ज्यादा कोई परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता है देश में !

   भ्रष्टाचार तो सरकारी तंत्र की अतिरिक्त कमाई का नाम है यही तो है सरकारों में सम्मिलित नेताओं और सरकारी कर्मचारियों का सैलरी के अतिरिक्त पार्ट टाइम व्यापार !भ्रष्टाचार की  कमाई में आम जनता सम्मिलित नहीं है ये ख़ुशी की बात है सरकारों में सम्मिलित लोग और सरकारी कर्मचारी जब तक चाहें तबतक भ्रष्टाचार का दोहन करें और जब चाहें तो बंद कर दें उनकी इच्छा !जनता इसमें क्या कह सकती है वही तो इस देश के मालिक लोग हैं !उनकी आफिसों में काम के समय भी सोने जैसा ठंडा ठंडा कूल कूल मौसम चाहिए बिजली बिल जो आवे सो आवे वो जनता भरेगी दूसरी ओर मई जून के महीने की दोपहर में भी किसान लू के थपेड़ों के बीच खुले आसमान में काम करता है गर्म गर्म पानी पीता है जब वो सरकारी किसी आफिस में किसी काम से जाता है तो ये बेशर्म बाबू लोग उसे लाइन में खड़ा कर देते हैं और घंटों खा जाते हैं उनके !कई बार तो चाय पानी के लिए पैसे माँगने लगते हैं । अरे बेशर्मों !किसान और मजदूरों के धैर्य की परीक्षा मत लीजिए अन्यथा यदि किसान ने भी हिम्मत तोड़  दी तो सोने की रोटियां खाओगे क्या ?
       'वेतनआयोग' किसानों का भी होता तो आत्महत्या क्यों करते किसान !सरकारी कर्मियों की तरह ही बढ़ा लिया करते वो भी अपना वेतन !
    ये स्वार्थी लोग गरीबों किसानों मजदूरों को पढ़ाते हैं "वसुधैव कुटुंबकं "का पाठ ! काश !ये वेतन आयोग को भी पढ़ाया गया होता तो उन्हें भी तो दिखाई पड़तीं गरीबकिसानों की आत्महत्याएँ !

      शायद उनके घमंडी स्वभावों में इस बात का भी एहसास होता कि गरीबों मजदूरों की मासिक आमदनी कितनी है क्या उतने में उनका हो पाता होगा गुजारा ! अपनी घर गृहस्थी चला लेते होंगे वो !अपने बच्चों को कैसे पालते होंगे !कैसे करते होंगें बच्चों के काम काज !कैसे मनाते होंगे तिथि त्यौहार !कैसे कराते होंगे बीमारी आरामी में अपने घर वालों का इलाज !कैसे खरीदते होंगे इतनी महँगी दाल सब्जी ! उनके दुलारे बच्चों के ओंठ तरस जाते होंगे बिना दूध के ! दूध के बिना बीत रहा होगा बचपन !फिर भी उनकी अनदेखी और सरकारी कर्मचारियों की बढ़ाई जा  रही है सैलरी ? हे सरकारी नीति निर्धारको !तुम ग़रीबों को कितनी भी गिरी निगाह से देखो किंतु भारत माता की संतान वो भी हैं ये मत भूलना !बढ़ा लो अपनी सैलरी किंतु याद ये भी रखना कि मातृभूमि को जब जरूरत पड़ेगी तब तुम ज्यादा सैलरी भोगने वालों से पहले अपना और अपनों का बलिदान कर देंगे वो !अरे सरकारी बाबुओ ! उन्हें इतनी गिरी निगाह से मत देखो !वो गरीब हैं गद्दार नहीं हैं ! उन्होंने अपने आचार व्यवहार से अपने कर्तव्य का पालन किया है किंतु वो फलित नहीं हुआ तो इसमें उनका क्या दोष !         
    दूसरी ओर सरकारी कर्मचारियों की सैलरी बढ़ाना आखिर ऐसा वो कर क्या रहे हैं देश के लिए न तो अपने काम काज से जनता को खुश रख पा रहे हैं और न ही अपने अपने विभागों से भ्रष्टाचार ही मिटा पा रहे हैं फिर भी सरकार उड़ेले जा रही है सैलरी आखिर क्यों ?उनके पास अभाव आखिर क्या है ?उनकी सैलरी बढ़ाना इतना जरूरी क्यों हैं ?आम जनता की कमाई को सामने रखकर सोचिए कि उनसे कितने गुना अधिक वेतन अपने कर्मचारियों को देना चाहती है सरकार !ऊपर से सरकारी विभागों में काम क्या और कितना होता है ये इंसान तो छोडिए भगवान को भी नहीं पता है फिर भी सरकार खुश है आखिर उनके किस व्यवहार से जनता को भी तो पता लगे !    जब  जनता उनके काम से खुश नहीं है भ्रष्टाचार कम होने का नाम नहीं ले रहा है आम लोगों की आमदनी से बीसों गुना अधिक सैलरी पहले से ही चली आ रही है फिर बढ़ाने की जरूरत क्या है ? सरकार के पास पैसा इतना अधिक हो गया है या वो भूखों मरने की कगार पर आ गए हैं आखिर आत्म हत्याकरने वाले किसानों को भूलकर केवल सरकारी कर्मचारियों पर इतनी मेहरबानी क्यों ?अफसरों की भी कुछ जिम्मेदारी होती है क्या ? अफसर भी कुछ काम करते हैं क्या ? सरकार उन्हें काम के लिए सैलरी देती है क्या ?


  सरकारों में सम्मिलित लोग अपने अधिकारियों कर्मचारियों से यदि जनता के काम नहीं करवा पाते हैं तो उन्हें सैलरी क्यों देते हैं उनकी छुट्टी करके नई भर्तियाँ क्यों न करें !यदि वे भ्रष्टाचारी नहीं हैं तो !

  सरकार के हर विभाग में भ्रष्टाचार के द्वारा अंधाधुंध जनता का शोषण हो रहा है सरकार उसे रोक  नहीं पा रही है फिर भी अधिकारियों कर्मचारियों की सैलरी बढ़ाए जा रही है आखिर क्यों ?

     स्कूलों में जनता के बच्चों को पढ़ाई नहीं मिलती अस्पतालों में जनता को दवाई नहीं मिलती डाक खाने का काम कोरियर से करवाना पड़ता है !ये सरकारी अधिकारी कर्मचारी सरकारी टेलीफोन इंटरनेट इतने बिगाड़े रहते हैं ताकि लोग यहाँ से कटवाकर प्राइवेट कंपनियों की  सेवाएं लेते रहें फिर भी इन्हें भारी भरकम सैलरी देती है सरकार आखिर किस काम की !
    अफसर लोग जनता के किस काम आते हैं वो करते आखिर क्या हैंजनता के काम काज में अफसरों की कोई विशेष  भूमिका ही नहीं दिखती है !अपने अपने पदों की ठसक ,रुतबा आदि  दिखाने एवं सुख सुविधाओं को भोगने में व्यस्त रहते हैं अफसर !जनता से लिया गया सुविधा शुल्क का पैसा सरकारों तक पहुँचाने के माध्यम बने रहते हैं अफसर ! अफसरों के द्वारा वसुलवाई  गई  उगाही की भारी भरकम धनराशि अकेले न पचा कर अपितु सरकारों में सम्मिलित लोग महँगाई भत्ता सैलरी वृद्धि आदि रूपों में दसांश लौटा दिया करते हैं उन्हीं  अफसरों व अन्य सरकारी कर्मचारियों को ! ये सब कुछ बिना लिखा पढ़ी के चलने के कारण इसे कहना गैर कानूनी है किंतु सहना कानूनी है !
     अफसरों की भूमिका -शिक्षा विभाग  के अफसर यदि स्कूलों में सप्ताह में एक चक्कर भी लगाते तो क्या सरकारी शिक्षा व्यवस्था की ये दुर्दशा होती !और यदि शिक्षा की ही भद्द पिटती जा रही है तो अफसरों का काम क्या है किस बात की दी जा रही है इन्हें सैलरी !
   चिकित्सा की योजनाएँ चाहें जितनी बनें किंतु वो लागू हो रही हैं या नहीं ये न सरकारों में सम्मिलित लोग देखते हैं और न अफसर !जनता की कोई सुनता नहीं है ऐसे अफसरों को सैलरी देने की जरूरत क्या है ?
     डॉक, बैंक रेलवे आदि सभी सरकारी विभागों में  काम कराने वालों की भीड़ लगी होती है काम करने वाला बाबू जब चाहता है तब 'नेट' और 'प्रिंटर' ख़राब होने का बहाना बना कर कभी भी उठ खड़ा होता है और जनता के काम करने को मना  कर देता है जनता बेचारी देखकर रह जाती है उसका मुख !ऐसे विभागों में कर्म चारियों की सैलरी पर करोड़ों खर्च हो रहा होता है किंतु एक प्रिंटर का बहाना बनाकर काम बंद कर दिया जाता है ऐसे लोगों पर लगाम लगाने की किसी अधिकारी की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए क्या ?और यदि नहीं तो  इन अधिकारियों को सैलरी किस बात की?
   टेलीफोन विभाग में अधिकारियों का जनता के काम से कोई लेना देना नहीं होता है सब AC में  बैठे बैठे मस्ती काट रहे होते हैं जनता के काम के लिए जिम्मेदार लाखों में सैलरी लेने वाले इन  अधिकारियों को काम करना तो दूर जनता के मुख से काम सुनना पसंद नहीं है धूल मिट्टी से सने शरीरों वाली आम जनता को ये अपने वेलडेकोरेटेड कमरों में घुसने देना पसंद नहीं करते ऐसे कैबिन बनाए क्यों गए तुड़वाए क्यों नहीं जाते !और ऐसे रुतबा पसंद जिम्मेदारी न समझने वाले अधिकारियों को सैलरी क्यों देती है सरकार !
    अचानक बरसात हो जाने पर बिजली चली जाती है अधिकारी आफिसों में राम राज्य भोग रहे होते हैं  लाइनमैंनों से जूझ रही होती है जनता ,जो पैसे देता है उसकी फाल्ट ठीक की जाती है बाकी जब होगी तब होगी इसके लिए जिम्मेदार लोगों की सैलरी क्यों ढो रही है सरकार !इन्हें बाहर क्यों नहीं करती !
    रोडों पार्कों या सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण जब किया जाता है तब अधिकारी कर्मचारी ऐसे लोगों से ऐसे गैर कानूनी कामों के करने की अनाप शनाप कीमत वसूलते हैं फिर निर्माण हो जाने के बाद उन्हें अनलीगल बता बताकर हफता महीना वसूलते हैं जब कोई कम्प्लेन करता है तो कहते हैं लिखित दो जब वो लिखित देता है तो अतिक्रमण करने वाले को भेज देते हैं एक कॉपी फिर वो निपटता है कम्प्लेनर से !तब होते हैं अपराध !सरकार ऐसे गैर जिम्मेदार एवं अतिक्रमण करवाने के लिए दोषी अफसरों को चिन्हित करके इनकी छुट्टी क्यों नहीं कर देती !सभी प्रकार के अपराधों की जड़ हैं ये !
   एक आदमी को कुछ लोगों ने मारा उसका सर फट गया सोलह टाँके आए दूसरे पक्ष ने दरोगा जी का आर्थिक पूजन कर दिया तो दरोगा जी ने घायल को बुलवाया बोले तू क्या खर्च करेगा उसने कहा मेरे पास कुछ नहीं है तो दरोगा जी ने कहा तो तू घर बैठ इस केस में कुछ नहीं होगा क्योंकि जो मैं लिखूंगा केस उसी पर चलेगा अपना घाव तू कितने महीने हरा रख लेगा जो जज को दिखाएगा और जज भी तो इंसान ही होता है फैसला सुनाने का सेवा पानी तो  चाहिए उसे भी और जब तेरे पास कुछ है ही नहीं तो कुछ बेइज्जती थाने में आकर करवाई अब बची खुची कोर्ट में करवाएगा क्या !यहीं माफी माँग ले इन दबंग लोगों से नहीं तो  ये फिर मारेंगे तुझे !सरकार तुझे सिक्योरिटी देगी क्या !ज्यादा से ज्यादा तू फिर रिपोर्ट करेगा जैसे अबकी निपट रहा है वैसे ही फिर निपट जाएगा जब देने के लिए तेरे पास आज कुछ नहीं है तो तब कहाँ से आ जाएगा !फटाफट माँग माफी इनसे कान पकड़ बोल कि आज के बाद आपकी शिकायत करने थाने कभी नहीं आऊँगा !
     ऐसे लोगों के बलपर सरकार अपराध रोकना चाहती है !आखिर इनकी छुट्टी क्यों नहीं करती इनके ऊपर सैलरी जाया क्यों कर रही है सरकार ?   
  ये लोकतंत्र है क्या? जहाँ जनता की राय जानने की जरूरत ही नहीं समझी जाती !जनता को तो पशुओं की तरह बाँध दिया गया है लोकतंत्र के खूँटे में ,बाबू लोग ले रहे जन अधिकारों को नीलाम करने के निर्णय !बारे लोकतंत्र !सरकारी नौकरी हो या राजनीति इसे अपने पवित्र पूर्वज सेवा मानते थे किंतु यदि सेवा है तो सैलरी किस बात की ! और सैलरी है तो सेवा कैसी !
    वैसे भी जिन्हें करोड़पति बनना है वो जाकर देखें  रोजगार व्यापार बड़े बड़े उद्योग ! कमाएँ करोड़ों अरबों कौन रोकता है उन्हें किंतु सेवाकार्य को धंधा बना देना लोकतंत्र के साथ धोखा है !उस पर भी कामचोरी उस पर भी घूस का प्रचलन!साठ हजार सैलरी लेने वाले सरकारी प्राथमिक शिक्षकों पर भरोसा न करने वाले देशवासी दस पंद्रह हजार की सैलरी वाले प्राइवेट शिक्षकों पर भरोसा करते हैं! पीएचडी किए लोग आज  चपरासी की नौकरी तलाश रहे हैं और चपरासी बनने लायक लोग गुलछर्रे उड़ा रहे हैं सरकारी स्कूलों में ! इसमें बहुत बड़ा वर्ग उनका है जिन्हें जो विषय बच्चों  को पढ़ाना है वो शिक्षकों को स्वयं नहीं आता है ।जब योग्य एवं सस्ते शिक्षक सहज उपलब्ध हैं फिर भी सरकार को ऐसे शिक्षक ही मंजूर हैं वो भी अधिक सैलरी देकर !सरकार में बैठे लोगों की अपनी जेब से जाता होता तो भी क्या ऐसा ही करते सरकारों में बैठे जनता के प्रति सरकारी गैर जिम्मेदार लोग !
   सैलरी बढ़ाते समय ईमानदारी पूर्वक देशवासियों की ओर भी देखा जाए !देश वासियों की भी परिस्थिति समझी जाए!किसान क्या ख़ुशी ख़ुशी कर रहे हैं आत्म हत्या !इस महँगाई में बच्चे कैसे पाल रहे होंगे गरीब लोग!ये निर्लज्जता नहीं तो क्या है कि जनता के खून पसीने की कमाई से दी जाने वाली सैलरी के विषय में भी जनता की राय जाननी जरूरी नहीं समझी जाती है आखिर क्यों ? विधायकों, सांसदों और  कर्मचारियों की सैलरी बढ़ाने के लिए  कराइए जनमत संग्रह !जानिए  जनता की भी राय !

  
   बंधुओ ! सैलरी किसी को भी दी जाए वो देश वासियों के खून पसीने की कमाई होती है !किसी की भी सैलरी निर्धारित करते समय क्यों न कराया जाए जनमत संग्रह !  

     ये कैसा लोकतंत्र !जहाँ जनता के मत की परवाह ही न हो !सैलरी बढ़ाने की बात सरकारी कर्मचारियों की हो या सांसदों विधायकों की इसका फैसला खुद क्यों ले लेती हैं सरकारें !भारत लोकतांत्रिक देश है इसके लिए क्यों न कराया जाए जनमत संग्रह ! 
   हजारों लाखों की सैलरी पाने वाले लोगों की सैलरी बढ़ाई  जाए  दूसरी ओर अपने भूखे बच्चों का पेट न भर पाने की पीड़ा न सह पाने वाले किसान आत्महत्या करें तो करते रहें !बारे लोकतंत्र !!
 "अंधा बाँटे रेवड़ी अपने अपने को देय !"
    बारी सरकारें बारी सरकारी नीतियाँ धिक्कार है ऐसी गिरी हुई सोच को!सैलरी बढ़ाने की सिफारिश करने वाले लोग सरकारी जिनकी सैलरी बढ़नी होती है वो लोग सरकारी जिन्हें सैलरी बढ़ाकर देनी है वो तो साक्षात सरकार हैं ही !बारे लोकतंत्र ! 
  जो सांसद विधायक नहीं हैं और सरकारी कर्मचारी भी नहीं हैं उन्हें जीने का अधिकार भी  नहीं है क्या या वे इंसान नहीं हैं क्या !वो गरीब ग्रामीण किसान मजदूर ऐसी महँगाई में कैसे जी रहे होंगें !कभी उनके विषय में भी सोचिए !
   केवल अपना और अपनों का ही पेट भरने के लिए नेता बने थे क्या !किसी बेतन आयोग की सिफारिशें हों या कुछ और बहाना बनाकर सैलरी बढ़ाने की बात हो किंतु ऐसे निर्णय सरकार और सरकारी कर्मचारी ही मिलकर क्यों  ले लेते हैं इसमें जनता को सम्मिलित क्यों नहीं किया जाता है ! 
   राजनीति हो या सरकारी नौकरी यदि ये सर्विस अर्थात सेवा है तो सैलरी क्यों और सैलरी है तो सेवा कैसी !सेवा  और सैलरी साथ साथ नहीं चल सकते !और यदि ऐसा है तो धोखा है !सांसद विधायक या सरकारी सर्विस करने वाले लोग सेवा करने के लिए गए और आज हजारों लाखों की सैलरी उठा रहे हैं फिर भी अपने को सेवक बताते हैं! देश वासियों के साथ इतना बड़ा कपट !धिक्कार है ऐसी सरकारों को जो केवल अपनी और अपने कर्मचारियों की ही चिंता रखती हों बाकी देशवासियों को इंसान ही न समझती हों !बारेलोकतंत्र !!
   सरकारों में सम्मिलित नेताओं और सरकारी कर्मचारियों की आपसी  मिली भगत से एक दूसरे की या फिर अपनी अपनी सैलरी बढ़ाने का ड्रामा सहना आम जनता के लिए अब  दिनों दिन मुश्किल होता जा रहा है जानिए क्यों ?

     प्रजा प्रजा में भेद भाव का तांडव अब नहीं चलने दिया जाएगा !जनता तय करेगी सरकारों एवं सरकारी कर्मचारियों की जिम्मेदारियाँ ! काम करने के बदले जो सरकारी कर्मचारी जनता से घूस लेकर उसका कुछ हिस्सा सरकारों को भी देते हैं बदले में सरकारें उनकी सैलरी सुविधाओं का ध्यान रखती हैं ।इसलिए ऐसे किसी भी प्रकार के आदान प्रदान का विरोध किया जाएगा !कोई  बेतन आयोग बने या कुछ और इनमें आम जनता तो सम्मिलित नहीं की जाती है वो सब सरकारी लोग  होने के कारण सरकारी कर्मचारियों की सैलरी बढ़ा लेते हैं और किसानों को दिखाते हैं पैंतीस पैंतीस रूपए के चेक रूपी ठेंगे ! बारे लोक तंत्र !
   सांसदों ,विधायकों एवं सरकारी कर्मचारियों का बेतन बढ़ाकर गरीबों को अब और अधिक जलील नहीं होने दिया जाएगा !

       भारत माता को जितने दुलारे सांसद विधायक एवं अन्य सरकारी कर्मचारी हैं उससे कम दुलारे देश के किसान और मजदूर नहीं हैं । जो किसान भारत माता के सपूतों के पेट भरता है उसे जलील करना कहाँ तक ठीक है जो मजदूर देश वासियों की सेवा के लिए अपना खून पसीना  बहाता है बिल्डिंगें बनाता है रोड बनाता है नदी नहरें बनाता है भारत माता के आँचल को स्वच्छ और पवित्र रखने के लिए देश की साफ सफाई में लगा रहता है पेड़ पौधे लगाकर खेतों में फसलें उगाकर देश को हरा भरा बनाता है वातावरण को शुद्ध बनाने का प्रयास करता है । भारत माता को सजा सँवारकर देश का सम्मान बढ़ाता है देश को गौरव प्रदान करता है देश को रोग मुक्त बनाता है सांसदों ,विधायकों एवं सरकारी कर्मचारियों का बेतन बढ़ाकर ऐसे किसानों मजदूरों को जलील किया जाना कहाँ तक ठीक है ! 
    यह जानते हुए भी कि अधिकाँश सांसद ,विधायक एवं सरकारी कर्मचारी अपने अपने दायित्वों का निर्वाह ठीक से नहीं कर रहे हैं ,काम न करने, हुल्लड़ मचाने, हड़ताल करने , धरना प्रदर्शन करने तथा अपनी माँगें मनवाने एवं विरोधियों से माँफी मँगवाने की जिद में अपना समय सबसे अधिक बर्बाद करते हैं वे !वो भी सरकारी सैलरी भोगते हुए सरकारी सुख सुविधाएँ लेते हुए भी ड्यूटी टाइम में इस प्रकार के मनोरंजन में सबसे अधिक समय बर्बाद करते हैं कुछ तो सरकारी सुरक्षा के घेरे में रहते हुए भी ऐसे आडम्बर करते हैं ! ये कहाँ तक उचित है ? आम जनता की आय के आस पास आवश्यकतानुशार रखी जाए सांसदों विधायकों एवं सरकारी कर्मचारियों की सैलरी !
      आम जनता की मासिक आय यदि दो हजार है सरकारी अफसरों कर्मचारियों की सैलरी भी अधिक से अधिक दो गुनी चौगुनी कर दी जाए किंतु उसे सौ गुनी कर देना आम जनता के साथ सरासर अन्याय है !
     यदि किसी ने शिक्षा के लिए परिश्रम किया है तो उसका सम्मान होना ही चाहिए इससे इंकार नहीं किया जा सकता किंतु किसी का सम्मान करने के लिए औरों को अपमानित करना कहाँ तक ठीक है !उसमें भी उस वर्ग पर क्या बीतती होगी जो IAS,PCS जैसी परीक्षाओं में बैठता रहा किंतु बहुत प्रयास करने पर भी सफल नहीं हो पाया !या Ph.D.की किंतु नौकरी नहीं लग पाई जबकि उसके साथी की लग गई उसकी तो सैलरी लाखों में और दूसरे को हजारों नसीब नहीं होते !आखिर उसकी गलती क्या है !वो भी तब जबकि सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार का बोलबाला है जिसे रोकने में अब तक की सरकारें नाकामयाब रही हैं उसका दंड भोग रहे हैं पढ़े लिखे बेरोजगार लोग !आखिर उनकी पीड़ा कौन समझे !  कुछ बड़े संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को छोड़ कर सिक्योरिटी किसी को क्यों मिले और मिले तो हर किसी को मिले ! 
      वर्षा ऋतु में छै छै  फिट ऊँची बढ़ी फसलें में छिपे हिंसक जीवों से , आसमान से कड़कती बिजली से , पैरों के नीचे बड़ी बड़ी घासों में छिपे बैठे बिशाल सांपों से भयंकर भय होते हुए भी रात के घनघोर अँधेरे में खेत से  पानी निकालने के लिए कंधे पे फरुहा रख कर निकल पड़ते हैं किसान ! जहाँ हर पल मौत से सामना हो रहा होता है जिनके परिश्रम से देश के अमीर गरीब सबका पेट पलता  है !उनकी कोई सुरक्षा नहीं दूसरी ओर साफ सुथरे रोडों  के बीच सरकारी आवासों में आराम फरमा रहे नेताओं को दी जा रही है सिक्योरिटी इसे क्या कहा जाए !वैसे भी जिन शरीरों को रखाने के लिए जनता को इतनी भारी भरकम धनराशि खर्च करने पड़ रही हो ऐसे बहुमूल्य शरीरों का बोझ जनता पर डालने की अपेक्षा इन्हें भगवान को वापस करने के लिए ही प्रार्थना क्यों न की जाए !
 अब बात सरकारी कर्मचारियों की सैलरी बढ़ने बढ़ाने की !

    आज थोड़ी भी महँगाई बढ़ी या त्यौहार पास आए तो महँगाई भत्ता केवल उनके लिए बाकी देशवासियों को बता देते हैं कि तुम्हारा शोषण ब्राह्मणों ने किया है तुम उन्हीं के शिर में शिर दे मारो !
    भारत माता के परिश्रमी एवं ईमानदार सपूत अकर्मण्य सरकारों एवं सरकारी कर्मचारियों का बेतन बोझ आखिर कब तक ढोते रहेंगे ?

    गरीब किसान मजदूर या गैर सरकारी लोग जो दो हजार रूपए महीने भी कठिनाई से कमा  पाते हैं वो भी दो दो  पैसे बचा कर अपने एवं अपने बच्चों के पालन पोषण से लेकर उनकी   दवा आदि की सारी व्यवस्था करते ही हैं उनके काम काज भी करते हैं और ईमानदारी पूर्ण जीवन भी जी लेते हैं ।जिन्हें नौकरी नहीं सैलरी नहीं उन्हें पेंशन भी नहीं !
   अफसरों को एलियनों की तरह दूसरी दुनियाँ का जीव बनाकर क्यों परोसा जा रहा है समाज में ?आखिर उन्हें आम जनता से घुलमिल कर क्यों नहीं रहना चाहिए !आज के जीवन में अफसरों का समाज को सीधा कोई सहारा नहीं है क्योंकि अफसर जनता से मिलते ही नहीं हैं बात क्या सुनेंगे और काम क्या करेंगे !आफिसों में कमरे पैक करके बैठने वाले अफसरों से आम जनता को  क्या आशा !वो तो केवल नेताओं की भाषा समझते हैं !बाकी जनता के प्रति कहाँ होती है इंसानी दृष्टि !

  अफसर AC वाले कमरों में बिलकुल पैक होकर रहते हैं जिन्हें खोल कर नहीं रखा जा सकता इससे आम जनता अफसरों के कमरों में घुसने से डरा करती है और यदि घुस भी पाई तो वो आफिस उनके प्राइवेट रूम की तरह सजा सँवरा होता है जहाँ पहुँच कर आम जनता को अपराध बोध सा हुआ करता है उस पर  भी किसी ने थोड़ा भी कुछ कह दिया तो बेचारे  डरते हुए बाहर आ जाते हैं क्या सरकारी अफसरों का रोल केवल इतना है कि जनता को झिड़क झिड़क कर भगाते रहें बश !आखिर उनका चेंबर अलग करने की जरूरत क्या है आम जनता से घुल मिल कर काम करने में उनकी बेइज्जती क्यों समझी जाती है ?
    देश की जनसँख्या के एक बहुत बड़े बर्ग को आज तक एक पंखा नसीब नहीं है ,सरकारी आफिसों के AC रोककर उन तक क्यों न पहुँचाई जाए बिजली आखिर वो भी तो इसी लोकतंत्र के अंग हैं उनके भी पूर्वजों ने  तो लड़ी होगी आजादी की लड़ाई !उस आजादी को देश की मुट्ठी भर आवादी भोग रही है आखिर क्यों ?ऊपर से सैलरी बढ़ाने का फरमान !बारे लोकतंत्र !!
 सामाजिक सुरक्षा की आशा पुलिस विभाग से कैसे की जाए !आखिर वो भी तो सरकारी कर्मचारी ही हैं !
      आखिर पुलिस से ही ईमानदार सेवाओं की उम्मीद क्यों ? वे क्यों और कैसे बंद करें अपराध और बलात्कार ! 
     जब सरकारी शिक्षक अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते हैं तो मदद कर रहे हैं प्राइवेट प्राथमिक स्कूल !अन्यथा उनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती क्यों जा रही है ! इसीप्रकार से सरकारी अस्पतालों के बदले चिकित्सा सेवाएँ सँभाल रहे हैं प्राइवेट नर्सिंग होम !सरकारी डाक विभाग की इज्जत बचा रहे हैं कोरिअर वाले ! दूर संचार विभाग विभाग की मदद कर रही हैं प्राइवेट मोबाईल कंपनियाँ !जबकि पुलिस विभाग को तो खुद ही जूझना पड़ता है आखिर उन्हें भी तो सरकारी कर्मचारी होने का गौरव प्राप्त है वो क्यों सँभालें अपने सरकारी नाजुक कन्धों पर !प्राइवेट क्षेत्रों में सरकारी की अपेक्षा सैलरी भी बहुत कम है फिर भी वे सरकारी विभागों की अपेक्षा बहुत अच्छी सेवाएँ देते हैं!फिर भी सरकारी कर्मचारियों की सैलरी बढ़ानी जरूरी है आखिर क्यों ? 
    सुविधाओं के अभाव की आड़ में काम न करने वाले सरकारी कर्मचारियों की सैलरी बढ़ाने का औचित्य क्या है ? 
    सरकारी विभागों में एक छोटी सी कमी का बहाना ढूँढ़ कर लोग दिन दिन भर के लिए अघोषित छुट्टी मार लिया करते हैं ऐसे लोगों की सैलरी बढ़ाई जाती है क्यों ?आज सरकार का कोई विभाग अपनी जिम्मेदारी निभाने को तैयार नहीं है फिर भी सरकारें बढ़ाती जाती हैं उनकी सैलरी आखिर क्यों ?
   जनता से कहा जाता है कि CFL जलाओ बिजली बचाओ !जबकि सरकारी आफिसों में AC लगाने का प्रयोजन क्या है ?
 सरकारीविभागों के आफिस काम करने के लिए हैं या कि सुख भोगने के लिए ! 

     सरकारी आफिसों के AC जितनी बिजली चबा जाते हैं उतने में पूरे देश को प्रकाशित किया जा सकता है और सबको पंखे की सुविधा उपलब्ध कराई  जा सकती है आखिर ग़रीबों को पंखा क्यों नहीं चाहिए वो भी अखवार पढ़ते होंगे उन्हें भी डेंगू का भय सताता होगा ! किंतु बेचारे क्या करें देश की बेशर्म मल्कियत भोग रही है आजादी !सरकारी विभागों के AC नहीं बंद किए जा सकते आम आदमी से कहा जाता है CFL जलाओ बिजली बचाओ !दूसरी रोड लाइट कहो दिन भर जलती रहे !आखिर वो सरकारी कर्मचारी होने के नाते देश के मालिक हैं सब कुछ कर सकते हैं ग़रीबों पर ऐसा अत्याचार आखिर कैसे सहा जाए !

   ACमें रहने वाले लोग आलसी हो जाते हैं काम करना उनके बश का नहीं रह जाता आयुर्वेद के अनुशार ठंडा खान पान रहन सहन आलस्य बढ़ाता है और निद्रा लाता है । AC वाले विभागों में कर्मचारियों से जनता गिड़गिड़ाया करती है लंबी लंबी लाइनें लगी रहती हैं अफसर कैमरे में सब कुछ देख रहे होते हैं किंतु अपने कमरे का दरवाजा खोलकर आम जनता से उसकी समस्याएँ पूछने में तौहीन समझते हैं ऐसे लोग फील्ड पर जाकर सरकारी कामों की क्वालिटी अच्छी करने का प्रयास करेंगे इसकी तो उम्मींद भी नहीं की जानी चाहिए !
     कुल मिलाकर सरकारी कर्मचारियों की पचासों हजार की सैलरी ऊपर से प्रमोशन उसके ऊपर महँगाई भत्ता आदि आदि और उसके बाद बुढ़ापा बिताने के लिए बीसों हजार की पेंसन ! इतने सबके बाबजूद सरकारी कर्मचारियों के एक वर्ग का पेट नहीं भरता है तो वो काम करने के बदले घूँस भी लेते हैं इतना सब होने के बाद भी सरकारी प्राथमिक स्कूलों में शिक्षक पढ़ाते  नहीं हैं अस्पतालों में डाक्टर सेवाएँ  नहीं देते हैं डाक विभाग कोरिअर से पराजित है दूर संचार विभाग मोबाईल आदि प्राइवेट विभागों से पराजित है जबकि प्राइवेट क्षेत्रों में सरकारी की अपेक्षा सैलरी बहुत कम है फिर भी वे सरकारी विभागों की अपेक्षा बहुत अच्छी सेवाएँ देते हैं। ऐसी परिस्थिति में सरकारी लोगों एवं सरकारी कर्मचारियों की सैलरी बढ़ाते रहना कहाँ तक न्यायोचित है !
   सरकारें जितने भी शक्त से शक्त कानून बनाती हैं उससे व्यवस्थाओं में सुधार तो होता नहीं दिखता हाँ सरकारी कर्मचारियों को कमाने के लिए एक नई खिड़की जरूर खुल जाती है !सरकारी लोग उस गलती के नाम पर भी पैसे माँगने लगते हैं गलती सुधारने पर ध्यान किसका होता है और हो भी क्यों यहाँ देश उनका अपना तो है नहीं  वो तो भाड़े पर सेवाएँ दे रहे हैं और किराए के टट्टू तो किराए  करेंगे काम !
       बंधुओ !देश हमारा अपना परिवार है हम सब लोग यहाँ मिलजुल कर रहते हैं हम सबका हमारे सबके प्रति आत्मीय व्यवहार करने का कर्तव्य है  इस भावना के बिना पुलिस के लट्ठ के बलपर या कानूनी शक्ति के आधार पर जबर्दश्ती किसी से काम तो लिया जा सकता है सेवा नहीं सेवा के लिए तो समर्पण चाहिए और समर्पण तन और मन से नहीं अपितु आत्मा से होता है जिनकी आत्मा पुण्यों से  प्रक्षालित होती है वे अपने से अधिक दूसरों के दुःख का एहसास स्वयं करते हैं वे किसी भी वर्ग के क्यों न हों ! सरकारी कर्मचारियों में भी आत्मवान लोग हैं किंतु उनकी संख्या कम है दूसरी बात वो विवश हैं वो स्वतंत्र होते तो हमारा देश भी वास्तव में आज लोकतंत्र होता !

Tuesday, 26 July 2016

वेश्याओं को चरित्र की चिंता न होती तो नेता बनकर वो भी इकट्ठी कर सकती थीं अकूत संपत्ति ! वेश्याओं को नेताओं से ज्यादा मिलेंगे वोट !!

    राजनीति में पैसा तो बहुत मिलता है पर चरित्र चला जाता है चरित्र बचाने के लिए वेश्याओं को करनी पड़ी वेश्यावृत्ति !   
    वेश्याओं ने पेट भरने के लिए शरीर को दाँव पर लगा दिया किंतु चरित्र और सिद्धांतों को बचा लिया !केवल धन ही इकठ्ठा करना था तो वेश्यावृत्ति नहीं अपितु राजनीति करतीं जो सबसे अधिक कमाऊ धंधा है । जहाँ कुत्तों की तरह से केवल दूसरों  की कमाई पर ही नजर गड़ाए रखनी होती है !
    वेश्याओं को पता है कि दूसरों की कमाई पर कब्जा करने के लिए वेश्यावृति नहीं अपितु राजनीति करनी होती है !
  नेता बनते समय पैसे पैसे के लिए मोहताज नेतालोग अचानक अरबों खरबों के मालिक हो जाते हैं न कोई धंधा न कोई रोजगार फिर भी संपत्तियों के भरे हैं  भंडार ! किंतु नेताओं की तरह पाप करने के लिए वेश्याओं का मन नहीं माना !वो नेताओं की तरह अपना कालेजा कठोर नहीं कर सकीं !वो भी नेता बनकर अपराधियों से ले सकती थीं घूस !दलितों के नाम पर शोर मचाकर योजनाएँ पास करवातीं और खुद हड़पजातीं !अशिक्षित लोगों से घूस लेतीं उन्हें शिक्षक बना देतीं !सरकारी नौकरी दे देतीं !प्रमोशन कर देतीं !मिड डे मील बेचलेतीं !मरीजों के हिस्से की दवाइयाँ बेच लेतीं !गरीबों के हिस्से का राशन बेच लेतीं !अधिकारियों से भ्रष्टाचार करके धन कमवातीं कुछ अपने पास रख लेतीं और कुछ से उनकी सैलरी बढ़ दिया करतीं सारे खुश ! अरबों इकठ्ठा कर सकती थीं बड़ी बड़ी कोठियाँ बना सकती थीं किंतु नेताओं की तरह बच्चों गरीबों मरीजों को दगा देने के लिए वेश्याओं का मन नहीं माना !    
    नेताओ खबरदार! वेश्याओं से नेताओं की तुलना की तो !जिस डर से वेश्याएँ बेचारी सारी मुसीबतें सह लेती हैं !आर्थिक परिस्थितियों के कारण शरीर बेचती हैं किंतु अपना चरित्र बचा लेती हैं उन पर गर्व किया जा सकता है किन्तु नेताओं पर नहीं ! 
    वेश्याओं को भी पता होता है कि राजनीति सबसे अधिक कमाऊ धंधा है नेताओं की कमाई के आगे वेश्याओं की कमाई फीकी है !किंतु चरित्रवती वेश्याएँ सोचती हैं कि कमाई के लालच में राजनीति करनी शुरू की तो चरित्र चला जाएगा !चरित्र की चिंता में बेचारी सारी दुर्दशा सहती हैं किंतु नेता कहलाना पसंद नहीं करती हैं । 
    वेश्याओं को लगता है कि राजनीति में कमाई भले ही कितनी भी क्यों न हो किंतु वो हुई कैसे इस बात का नेता के पास कोई जवाब नहीं होता है ।गरीब से गरीब लोग जिनकी जेब में किराया नहीं हुआ करता था राजनीति में आने के बाद वो अरबों खरबों के मालिक हो गए आखिर ये चमत्कार हुआ कैसे !व्यापार कोई किया नहीं पुस्तैनी संपत्ति इतनी थी नहीं और यदि  गरीबों अल्प संख्यकों का हक़ नहीं हड़पा तो अपने आयस्रोत बताइए !जनता स्वयं जाँच कर लेगी कि कितने कमाऊ और कितने इज्जतदार हैं नेता लोग !चले वेश्याओं को नीची निगाह से देखने !जिनके काम में पारदर्शिता है राजनेताओं के काम में कोई पारदर्शिता  नहीं है !वेश्याएँ अपने शरीर की कमाई खाती हैं किंतु नेता लोग दूसरों के हक़ हड़पते हैं ।
     महिलाओं के हकों के लिए लड़ने का नाटक करने वाले नेता महिलाओं के लिए पास किया गया फंड खुद खा जाते हैं इस ही अल्पसंख्यकों के हितैषी नेता खा जाते हैं अलप संख्यकों के हक़ !दलितों के नाम पर राजनीति चमकाने वाले नेता नीतियाँ दलितों के हक़ हड़प जाते हैं ।दूसरों के हक़ हड़पकर सुख सुविधाएँ भोगते घूम रहे अकर्मण्य लोग चले वेश्याओं का सम्मान घटाने !
     वेश्याएँ किसी की माँ बहन बेटियाँ होती हैं वो इस देश की  सम्मानित नारियाँ हैं वो हमसबकी तरह ही देश की नागरिक हैं !उनमें सभी धर्मों और सभी जातियों की महिलाएँ होती हैं !वो नहीं चाहती हैं कि राजनीति में आवें उनके भी घपले घोटाले उजागर हों उनकी अकर्मण्यता के कारण उनके नाते रिश्तेदारों सगे संबंधियों को आँखें झुकानी पढ़ें !ये वेश्याओं का अपना गौरव है । 
    वेश्याएँ सेक्स करती हैं ये बुरा होता है या जो ग्राहक ज्यादा पैसे दिखाए उसके पीछे भाग खड़ी होती हैं ये बुरा है !आखिर वेश्याओं में बुराई क्या है सेक्स तो सभी करते हैं एक से अधिक लोगों से सेक्स करना बुरा है तो प्रेमी जोड़े नाम के सेक्स व्यापारी भी तो अधिक  स्त्री पुरुषों से सेक्स करते हैं वो नहीं बुरे इसका मतलब वेश्याएँ अधिक लोगों से सेक्स के कारण बदनाम नहीं हैं अपितु बदनाम इसलिए हैं कि जो ज्यादा पैसे दिखाए उसकी हो जाती हैं । वेश्याएँ यदि केवल इस दोष के कारण दोषी होती हैं तो राजनीति में तो ये खूब हो रहा है प्रत्याशियों  का चयन करते समय अधिकाँश तो पैसा ही देखा जाता है बाकी  शिक्षा  चरित्र सदाचरण आदि सबकुछ तो गौण होता है एक से एक चरित्रवान विद्वान् कार्यकर्ता पैसे न होने के कारण पीछे कर दिए जाते हैं और पैसे वाले एक से  एक खूसट जिन्हें ये भी नहीं पता होता है कि किससे कैसे क्या बोलना है क्या नहीं या हम जो बोल रहे हैं उसका अर्थ क्या निकलेगा फिर भी उनका पैसा देखकर पार्टियाँ उन्हें न केवल उन्हें अपना प्रत्याशी बनती हैं अपितु अपनी पार्टी और संगठन के जिम्मेदार पदों पर भी ऐसे ही लोगों को बैठा देती हैं फिर उन पैसे वालों का जो मन आता है वो उसे बोल देते हैं और उन पार्टियों का लालची केंद्रीय नेतृत्व पीछे पीछे खेद प्रकट करते माफी माँगते चलता है !ये राजनैतिक वैश्यावृत्ति नहीं तो है क्या ?
    वेश्याओं के भी कुछ तो तो जीवन मूल्य होते होंगे ही किंतु राजनेताओं के तो वो भी नहीं रहे !उन्हें तो केवल कमाई दिखाई पड़ती है ! जो लोग दबे कुचलों लोगों के हकों के लिए दम्भ भरते हैं उन्हें कुछ कह दिया जाए  इतनाबुरा लगता है किंतु वही शब्द किसी और को बोल दिया जाए तो बुरा क्यों नहीं लगता !
    अरे !दबे कुचलों के हिमायती ड्रामेवाजो !ये क्यों नहीं सोचते कि जो शब्द हमें कह दिया जाए तो इतना बुरा लग जाता है जिन महिलाओं की पहचान ही वही शब्द हो उन्हें कितना बुरा लगता होगा उनकी दशा सुधारने के लिए कितने आंदोलन किए अपने !दबे कुचलों के नाम पर सरकारी खजाना लूटकर अपना घर भर लेने वालो !यदि कर्म इतने ही अच्छे होते तो CBI का नाम सुनते ही पसीना क्यों छूटने लगता है !इसके पहले की सरकार तो जब जिस मुद्दे पर हामी भावना चाहती थी छोड़दिया पार्टी थी CBI सारे घोटालेवाजों को जब जहाँ चाहती थी तब तहाँ मुर्गा बना दिया करती थी !हिम्मत थी तो तब न मानते उनकी बात !आज आए इज्जतदार बनने !!
    वेश्याओं को राजनेता  इतनी गिरी दृष्टि से देखते हैं जिनके अपने कोई जीवन मूल्य नहीं होते !वेश्याओं का चरित्र राजनेताओं से ज्यादा गिरा होता है क्या ?वेश्याओं को इतनी गंदी दृष्टि से देखते हैं नेता लोग !
   वेश्याएँ भी चाहें तो और कुछ कर पावें न कर पावें किंतु वेश्यावृत्ति को छोड़कर राजनीति तो वो भी कर सकती हैं और वो भी कर सकती हैं अनाप शनाप कमाई किंतु उन्हें अपना चरित्र प्यारा है वो शरीर बेच लेती हैं किंतु चरित्र बचा लेती हैं ।    
   वेश्या से तुलना कर देना किसी को यदि इतना बुरा लग सकता है तो जो वास्तव में वेश्याएँ हैं कितना  दुःख सह रही हैं वे महिलाएँ !क्या उनके लिए इस राजनीति की कोई जिम्मेदारी नहीं है !

Monday, 25 July 2016

nivedan

आदरणीय प्रधानमंत्री जी ! या लोकसभाअध्यक्षा जी   गृहमंत्री संसदीयकार्यमंत्री कानूनमंत्री जी   !                                                                                                   सादर नमस्कार ! 
      विषय : 'दलित 'शब्द के प्रयोग पर पुनर्विचार हेतु ! 
   महोदय ,
     ज्योतिषशास्त्र का मानना है कि जिसका जैसा नाम होता है उसका वैसा ही स्वभाव बनता चला जाता है इसलिए अपने ऋषियों मुनियों ने नामकरण संस्कार करते समय के लिए कहा है कि किसी का नाम ऐसा रखा जाना चाहिए जिसका अर्थ शुभ हो ऐसा करने से उसके मन में हमेंशा उत्साह बना रहता है और वो अपने नाम की गरिमा के अनुरूप आचरण करने का प्रयास करता है भले पूरा  न कर पावे किंतु आंशिक असर तो होता ही है इसीलिए पुराने जवाने में जिस समूह की रुचि जैसे काम में थी अपनी जाति का उन्होंने वैसा ही नाम रख लिया वही उनकी पहचान बन गई ।
      महोदय !इस दृष्टि से 'दलित' शब्द का अर्थ इतना अशुभ सूचक है कि मनुष्यों के किसी भी वर्ग के लिए 'दलित' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए !संभव हो तो इसे बदला जाना चाहिए ! 
     'दलित' शब्द का अर्थ संस्कृत वा हिंदी व्याकरण के अनुशार टुकड़े -टुकड़े ,खंड -खंड ,छिन्न-भिन्न,नष्ट - भ्रष्ट,कुचला ,विदीर्ण जैसे अशुभ सूचक अर्थ होते हैं !ये शब्दकोशों में भी देखे जा सकते हैं ।वस्तुतः 'दल' शब्द का अर्थ होता ही टुकड़ा है । राजनैतिकदलों या युद्ध में सम्मिलित होने वाले समूहों को एक दल माना जाता है वो भी सेना की टुकड़ी होती है।ऐसे ही किसी दाने के दो बराबर टुकड़ों को 'दाल' कहते हैं और उसी दाने के बहुत टुकड़े कर दिए जाएँ तो उसे 'दलिया' या 'दलित' कहते हैं। 
      महोदय !कोई व्यक्ति गरीब तो हो सकता है किंतु 'दलित' नहीं !कोई जीवित व्यक्ति दलित कैसे हो सकता है !मैंने BHU से ज्योतिष विषय से संबंधी ही Ph.D. की है।मुझे नाम प्रभाव का अनुभव है और उसका प्रत्यक्ष प्रभाव देख भी रहा हूँ !आजादी मिले इतने वर्ष हो गए !आरक्षण राशन जैसी बहुत सारी  सुविधाएँ एवं कानूनी अधिकार देने के बाद भी इस वर्ग का मनोबल नहीं बढ़ाया जा सका है । सवर्णों के गरीब बच्चे भी व्यक्तिगत संघर्ष करके तरक्की करते देखे जाते हैं किंतु ये वर्ग पहले से ही हिम्मत हार जाता है कि हम अपने बल पर तरक्की नहीं कर सकते !
     श्रीमान जी ! अतएव मेरा आपसे निवेदन है कि देश के किसी भी वर्ग की पहचान इतने अशुभ सूचक शब्द के द्वारा न कराई जाए !ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि  में हम सभी ईश्वर की ही संतानें हैं इसलिए कम से कम हमें तो अपने मुख से किसी को 'दलित नहीं कहना पड़े !ये तो उस ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि का भी अपमान है।इसलिए यदि संभव हो तो 'दलित' को बदलकर किसी शुभ सूचक शब्द का प्रयोग किया जाए तो अच्छा होगा और अच्छा लगेगा भी !
    निवेदक -डॉ.शेष नारायण वाजपेयी 
के-71 ,छाछी बिल्डिंगचौक ,कृष्णा नगर,दिल्ली -51
  09811226973 

महोदया

 
प्रधानमंत्री ! लोकसभाअध्यक्षा,  गृहमंत्री , संसदीयकार्यमंत्री जी, कानूनमंत्री जी ! 
 सादर नमस्कार !
 विषय : चुनाव लड़ने के लिए प्रत्याशियों के लिए उच्च शिक्षा अनिवार्य करने हेतु निवेदन !
महोदय ,
   निवेदन है मैंने सुना है कि लोकसभा ,राज्यसभा और विधानसभाओं की कार्यवाही चलते समय सदनों का एक एक सेकेंड बहुमूल्य होता है ।सदनों में चर्चाएँ अत्यंत सारगर्भित ,गम्भीर एवं विद्वत्ता पूर्ण होती हैं ।उस चर्चा में सम्मिलित होने के लिए अधिक से अधिक ज्ञान एवं अनुभव की आवश्यकता  होती है तो  ऐसे सदनों में पहुँचने वाले जो सदस्य अल्पशिक्षित या अशिक्षित होते होंगे वो इस चर्चा में बैठे भले रहते हों किंतु भाग कैसे लेते होंगे ! ज्ञान और अनुभव के अभाव में जिन्हें बोलना  नहीं आता है और जिनमें समझने की सामर्थ्य नहीं है ऐसे लोग इन  सदनों में पहुँचकर कानून बनाने में अपना मंतव्य कैसे दे पाते होंगे !
     उन्हें तो हर मुद्दे पर अपनी पार्टी के अध्यक्ष की इच्छा के अनुशार ही हाँ और न करना होता है । इसमें वो व्यक्ति न तो अपना मत प्रकट कर पाता है और न जिस क्षेत्र से चुनकर आया होता है वहाँ के लोगों की इच्छा ही सम्मान कर पाता है और न ही अपने सदस्यत्व का सम्मान ही रख पाता है ।वो सदस्य होने की भूमिका का स्वतंत्र निर्वाह नहीं कर सकता है ।
     वर्तमान समय में राजतंत्र गर्भित लोकतंत्र  है आज देश की अधिकाँश पार्टियों का मालिक एक व्यक्ति या परिवार है बाक़ी सारे लोगों को उन मालिकों के तत्वावधान में दिहाड़ी मजदूरों की तरह काम करने के साथ साथ  हाँ हुजूरी भी करनी होती है ।चूँकि ये काम शिक्षित ,स्वाभिमानी और सजीव विचारधारा रखने वाले लोग उतनी आसानी से नहीं कर पाते हैं इसलिए किसी पार्टी का मालिकऐसे लोगों को अपनी पार्टी में नहीं जोड़ना चाहता है ।
     दूसरी ओर जो सदस्य अल्प शिक्षित होते हैं वे तो पाकरस में पड़ी  कलछुल की तरह हैं उन्हें न अपने भाषण का स्वाद पता होता है और न ही औरों के !इसीलिए उन्हें वो कार्यवाही नीरस सी लगा करती है । वे तो
अपना भाषण लिखकर या किसी और से लिखवा कर लाते हैं और सदनों में खड़े होकर पढ़ तो देते हैं किंतु
इसके बाद उनकी चिंता समाप्त हो जाती है तो उन्हें या तो नींद आने  लगती है या फिर बाहर घूमने निकल जाते हैं अन्यथा मौका मिलते ही हुल्लड़ मचाने लग जाते हैं !जिसमें जनता के पैसों से चलने वाली बहुमूल्य कार्यवाही के घंटों ब्यर्थ में बर्बाद चले जाते हैं ।
       यही भाषण सदस्य गण यदि अपने ज्ञान बुद्धि और अनुभव आदि के आधार पर देते होते तो सदनों की चर्चा उन्हें बोझ न लगती और दूसरे सदस्यों की बातें भी वे ख़ुशी ख़ुशी ध्यान से सुनते ! ऐसी परिस्थिति में न तो शोर मचाते और न ही समय पास करने के लिए बाहर जाते और न ही घंटों कुर्सियाँ खाली पड़ी रहतीं ।
       अतएव आपसे विनम्र निवेदन है कि चुनाव लड़ने के इच्छुक प्रत्याशियों की शैक्षणिक योग्यता का मानक निर्धारित किया जाए !यदि संभव हो तो उच्च शिक्षा से शिक्षित लोगों को ही चुनाव लड़ने की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि वो लोग संसद जैसे महान सदनों की गरिमा को समझ सकें और उसके अनुरूप आचरण कर सकें !इससे ये लोग अपनी भूमिका का निर्वाह तो ठीक से करेंगे ही साथ ही देश के अधिकारियों कर्मचारियों के साथ भी उनका तालमेल और अधिक अच्छा बना रह सकेगा !
            निवेदक -
       डॉ.शेष नारायण वाजपेयी 
के-71 ,छाछी बिल्डिंगचौक ,कृष्णा नगर,दिल्ली -51
  09811226973

 

  




तैयार करें दिया गया हो तो आपसे दिया
          

में  उच्च शिक्षा अनिवार्य की जाए ताकि वे बोलें  तो दूसरे सुनें और दूसरे बोलें तो उन्हें भी समझ में आवे ! ज्ञान के अभाव में यदि कुछ बोलने लायक न भी हों  तो  उनमें कम से कम सदनों में होने वाली चर्चा को समझने की सामर्थ्य तो होनी ही चाहिए !
    शिक्षित लोगों का राजनैतिक पार्टियों में प्रवेश अब आसान नहीं होता है और यदि हो भी गया तो उन्हें कोई खास जिम्मेदारी नहीं दी जाती है चुनाव प्रक्रिया अधिक खर्चीली होने के कारण राजनैतिकदल बनाकर या अकेले चुनाव लड़ना शिक्षित लोगों के बस का बहुत कम होता है । ऐसे में शिक्षित लोग राजनीति में सम्मिलित होना मुश्किल होता जा रहा है । 
       राजनैतिक पार्टियों के मालिक लोग अपने नेताओं के बेटा बेटियों पर तो भरोसा कर लेते हैं और उन्हें आसानी से प्रवेश दे भी दे  देते हैं बाकी उन्हें पार्टी वर्करों के नाम पर प्रायः ऐसी लेबर चाहिए होती है जो उनके स्वामित्व को चुनौती न दे सके और उन्हीं की  आज्ञा  का पालन करती रहे ।उनका इशारा पाकर वो शोर मचावें और उन्हीं के इशारे से शांत हो जाएँ !वो इतने अयोग्य हों कि उनके स्वामित्व के लिए संकट न खड़ा कर सकें !इसीलिए वो दलितों पिछड़ों महिलाओं के नाम पर मनमानी किया करते हैं ।
        महोदय !कई बार छोटी छोटी बातों के समझने और समझने की योग्यता के अभाव में मानने न मानने को लेकर या किसी के लिए किसी ने कोई गलत शब्द बोल दिया हो !किसी सदस्य  के द्वारा किसी दूसरे सदस्य के लिए बोले गए सही शब्द का भी अर्थ उसने गलत समझ लिया हो ! ऐसे कारणों से माफी माँगने मँगाने की परिस्थिति पैदा हो जाए और वो माफी न माँगे तो सदन की बहुमूल्य कार्यवाही बंद करवा देते हैं ।
         ये बात जब सभी लोग स्वीकार करते हैं कि संसद समेत सभी सम्मानित सदन ज्ञान और अनुभवों के आदान प्रदान पूर्वक निर्णय लेने के मंच हैं वहाँ जो बोलने लायक न हों समझने की भी योग्यता न रखते हों सुझाव देना उनके बश का न हो ऐसे सदस्यों के भाग लेने का मतलब आखिर क्या होता है। 
       अतएव आपसे मेरा विनम्र निवेदन है कि राजनीति में चुनाव लड़ने के लिए उच्च शिक्षा अनिवार्य की जाए  ताकि सदन की चर्चाओं में अपशब्दों के प्रयोग बंद हो एवं गैर जरूरी व्यर्थ के बाद विवाद में संसद का बहुमूल्य समय बर्बाद न हो !
       

Friday, 22 July 2016

"दयाशंकर सिंह का DNA गलत बताने वालों पर कार्यवाही कब होगी ! DNA पर प्रश्न खड़ा करके आखिर किसके चरित्र पर उठाई गई है अँगुली ? !"

    मायावती जी को ये बुरा क्यों नहीं लगा !उन्होंने अपने असभ्य नेताओं को पार्टी से निकाला  क्यों नहीं ! सरकार ऐसे अपराधियों पर क्यों नहीं कर रही है कठोर कार्यवाही जिन्होंने दया शंकर सिंह के DNA पर प्रश्न उठाया था !जिन्होंने दया शंकर सिंह की जीभ काटकर लाने की बात कही थी !जिन्होंने दया शंकर सिंह की बेटी बहन माँ और पत्नी के लिए खुले आम असभ्य शब्दों का प्रयोग किया था !क्या ये अपराध नहीं है !यदि ये अपराध नहीं है तो दयाशंकर सिंह ने जो कहा वो अपराध क्यों है !इन्होंने तो केवल तुलना की थी बसपाइयों ने तो तो खुले आम डंके की चोट पर जानबूझ कर बोला है इतना सब होने के बाद भी जिनके समर्थन में बसपा प्रमुख स्वयं खड़ी थीं !उन्हें कब कटघरे में खड़ा किया जाएगा ?
 बसपा का शीर्ष नेतृत्व यदि अपने बदजुबान कार्यकर्ताओं का पार्टी से निष्कासन नहीं करता तो भाजपा को भी दब्बूपन छोड़कर  बसपाइयों की गुंडागर्दी का जवाब देना चाहिए !अन्यथा दयाशंकर सिंह पर भी बंद की जाए कार्यवाही और पार्टी उन्हें भी बहाल करे !ऐसे तो कार्यकर्ता लोगों का मनोबल टूटता है राजनीति में  बदजुबानी बंद करने की जिम्मेदारी सबकी है कार्यवाही की पहल सभी तरफ से हो !
       दयाशंकर सिंह  की बेटी माँ और पत्नी को गालियाँ देने वालों पर भी की जाए कठोर कार्यवाही ! दयाशंकर सिंह दोषी तभी तक थे जब तक उन्हें और उनकी बेटी माँ और पत्नी को गालियाँ नहीं दी गई थीं अब दयाशंकर सिंह से कई गुनी  अधिक गंदी गालियाँ दयाशंकर सिंह के परिवार को दिलवा चुकी हैं मायावती जी !कार्यकर्ता लोगों को सिखा  सिखा कर भेज रही पार्टी गालियाँ  देने के लिए !यदि ऐसा नहीं है तो बसपा अपने भी दोषी पदाधिकारियों को दयाशंकर सिंह की तरह ही पार्टी से निष्कासित करे !
      दयाशंकर सिंह का DNA गलत बताकर जिसके चरित्र पर अँगुली उठाई गई है वो महिला नहीं हैं क्या ?आखिर उनके सम्मान  की  जरूरत क्यों नहीं समझी जा रही है !   दयाशंकर सिंह के बयान से  आहत मायावती जी ने सदन में दयाशंकर सिंह के पार्टी से निष्कासन की नैतिक माँग की थी भाजपा ने उसका अक्षरशः पालन किया है और दयाशंकर सिंह को पार्टी से निकाल बाहर कर दिया गया है । अब बारी है मायावती जी की वो भी  राजनीति से बदजुबानी बंद करने के लिए एक बार अपना भी हृदय  मजबूत करके अपनी पार्टी के भी उन बयान बहादुरों पर कठोर कार्यवाही करें जो दयाशंकर सिंह उनकी बेटी माँ और पत्नी के विरुद्ध अपशब्दों का प्रयोग करते देखे जा रहे हैं ।रही बात  कानून की तो कानून भी अपनी भूमिका का निर्वाह पक्षपात विहीन मानसिकता से समान रूप से करे ! मायावती जी के प्रति दयाशंकर सिंह की टिपण्णी यदि गलत है तो उन पर कानूनी कार्यवाही हो किंतु उन बसपाइयों की भी बक्सा न जाए जिन्होंने दयाशंकर सिंह और उनकी बेटी माँ और पत्नी के विरुद्ध अपशब्दों का प्रयोग किया है । 
       भाजपा की तरह ही बसपा भी गंदे बयान देने वाले नेताओं विधायकों  पर कठोर कार्यवाही करे !कानून बसपा के भी उन नेताओं पर कार्यवाही करे जिन्होंने दया शंकर सिंह की बेटी बीबी और माँ पर अभद्र टिप्पणियाँ की हैं ! यदि बसपा नेतृत्व ऐसा नहीं करता है तो समाज में ये संदेशा जाएगा कि दयाशंकर सिंह के घरवालों को देने के लिए कितनी कितनी गंदी गंदी गालियाँ सिखाकर भेज रहा है बसपा का शीर्ष नेतृत्व !अर्थात उनकी हरकतों में सम्मिलित माना जाएगा बसपा का शीर्ष नेतृत्व !इसलिए  जिस ईमानदारी से भाजपा ने अपने प्रदेश उपाध्यक्ष को एक झटके में  निकालकर बाहर किया है बसपा का शीर्ष नेतृत्व भी इससे कुछ सीखे और गाली गलौच करने वाले ऊटपटाँग बोलने वाले पदाधिकारियों विधायकों को पार्टी से निष्कासित करे !
    मायावती जी पर टिकट बेचने के आरोप पहले भी लगते रहे हैं यदि ये आरोप सच नहीं हैं और उन पर मायावती जी को कोई इतराज है तो ऐसे लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं करती हैं !!उनके अपने बड़े नेता भी तो ऐसे ही आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़कर गए हैं ! दयाशंकर सिंह जी के बयान में 'तुलनागलत' है बाक़ी आरोप जाँच का विषय !
अब बात दयाशंकर सिंह के उस बयान की ये है वो बयान और ध्यान से पढ़ें आपलोग -
        "आज मायावती जी आज टिकटों की इस तरह विक्री कर रही हैं कि "एक वेश्या भी यदि किसी पुरुष के साथ कांटेक्ट करती है तो जब तक पूरा नहीं करती है तो उसको नहीं तोड़ती है "प्रदेश की हमारी इतनी बड़ी नेता तीन तीन बार की मुख्यमंत्री मायावती जी किसी को 1 करोड़ में टिकट देती हैं दोइए घंटे बाद 2 करोड़ देने वाला मिलता है तो उसे दे देती हैं और शाम को कोई 3 करोड़ देने वाला मिलता है तो  उसे दे देती हैं । " 
 इस बयान को आप सुन भी सकते हैं -ये ही वो लिंक -see more... https://www.youtube.com/watch?v=lIT54SBJn4U
         इस बयान के विवादित विषय को ध्यान से पूरा पढ़ने पर इससे कहीं नहीं लगता है कि दयाशंकर सिंह इस बयान के माध्यम से मायावती जी को अपमानित करना चाहते हैं उन्होंने इसमें मायावती जी का नाम जितने बार लिया है उतने बार 'जी' जरूर लगाया है इसी प्रकार से "प्रदेश की हमारी इतनी बड़ी नेता तीन तीन बार की मुख्यमंत्री मायावती जी" इसमें प्रयोग किए गए शब्द भी गलत नहीं कहे जा सकते अन्यथा वो "हमारी इतनी बड़ी नेता " नहीं कहते !इसलिए वो मायावती जी को अपमानित कर रहे थे यह नहीं कहा जा सकता !उन्होंने जो टिकटों की विक्री का मायावती जी पर आरोप लगाया है वो राजनैतिक है जो मायावती जी के पूर्व सहयोगी भी मायावती जी पर लगाते रहे रहे हैं !मायावती जी ने उन पर कभी कानूनी कार्यवाही नहीं की !यदि ये आरोप गलत हैं तो की जानी चाहिए थी !इसके बाद यह कहने के लिए कि मायावती जी टिकटें बेचती ही नहीं अपितु बेचकर भी यदि कोई उससे भी अधिक पैसे देने  लगता  है पहले का करार भूल जाती हैं और उसे देती हैं टिकटें ! 
     इसमें विवाद का विषय मात्र इतना है कि "वेश्या भी अपने दिए हुए बचन पर कायम रहती है जबकि मायावती जी टिकट बेचते समय अपने दिए हुए बचन का भी पालन नहीं करती हैं " 
       इस वाक्य में मायावती जी के बचन न पालन करने की तुलना किसी वेश्या के बचन पालन से करने को सही नहीं ठहराया जा सकता निन्दनीय है गलत है किंतु दयाशंकर सिंह के द्वारा किए गए 'वेश्या' शब्द का सीधा संबंध मायावती जी के नाम के साथ कैसे भी  सिद्ध नहीं होता है इसलिए इस शब्द को  गलत जगह जोड़ना भी ठीक नहीं है ।
     दयाशंकरसिंह जी का बयान राजनैतिक है मायावती जी निजीजीवन  से  जोड़ रही हैं वे अभद्र टिप्पणियाँ  इससे केवल दयानन्द सिंह जी की ही भद्द नहीं पिट रही है अपितु इस प्रकरण को जितना तूल दिया जा रहा है उससे मायावती जी की भी छवि बन नहीं अपितु बिगड़ रही है लोगों की जबान पर ये गैर जरूरी गंदे शब्द चर्चा का विषय बने हुए हैं जो दयाशंकरसिंह जी ने  तो एक बार कहे हैं किंतु उसके बाद जन चर्चाओं में कररोडों बार बोले जा रहे हैं !जो रोके जाने चाहिए बसपा के लोगों को यदि वास्तव में मायावती जी के सम्मान की चिंता है तो इन अभद्र टिप्पणियों की चर्चा जल्दी से जल्दी बंद कर दी जानी चाहिए ! मायावती जी ने सदन में दयासिंह जी को पार्टी से निकलने की बात की थी वो कर दिया गया अब विवाद किस बात का !
      दयानंद जी के बयान में जिक्र टिकटों की बिक्री का है मायावती जी के निजी जीवन से जुड़ा ये बयान नहीं है इसमें दलितों के प्रति कोई अपमान जनक बात नहीं कही गई है और न ही महिलाओं के प्रति यहाँ तक की मायावती जी का नाम भी वो बार बार 'जी' लगाकर ही संबोधित  कर रहे हैं इसका सीधा अर्थ है कि मायावती जी का अपमान करना उनका उद्देश्य ही नहीं हैं इसे कैसे भी पढ़ा लिखा या समझा जाए और किसी भी भाषा वैज्ञानिक से उनके बयान  की व्याख्या या समीक्षा करवा ली जाए !