Monday, 13 November 2017

107 Copy

107 Copy सहज दर्शन !
भूकंप और सांख्य दर्शन !
         सांख्य-दर्शन का मुख्य आधार सत्कार्यवाद है।भूकंप ,आँधी तूफान हो या बाढ़ आदि किसी भी प्रकार की प्राकृतिक आपदा या अन्य कोई भी कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्ण कारण में विद्यमान रहता है जैसे तिल में तेल , दूध में घी अर्थात कार्य अपने कारण का सार होता है ! इस सिद्धान्त के अनुसार, बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती।फलतः, इस जगत की उत्पत्ति शून्य से नहीं अपितु मूल सत्ता से ही हुई है।कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्ण कारण में विद्यमान रहता है इसलिए कार्य की खोज के लिए कारण की खोज होना बहुत आवश्यक है ! तिल और तेल के प्रकरण में कारण है तिल और कार्य है तेल !तिल रूपी कारण के प्रत्येक  हिस्से में तेल पहले से ही विद्यमान रहता है ! इसीप्रकार से दूध की प्रत्येक बूँद में घी पहले से ही विद्यमान रहता है इसलिए तेल संबंधी किसी भी अनुसंधान के लिए तिलों के विषय में जानकारी होनी ही चाहिए और घी के विषय में किसी भी अनुसंधान के लिए दूध के विषय में सम्पूर्ण जानकारी रखनी आवश्यक है !क्योंकि  कार्य अपने कारण का सार अर्थात तत्व होता है! कार्य और  कारण वस्तुतः समान प्रक्रिया के व्यक्त और अव्यक्त रूप हैं।कार्य व्यक्त रूप है और कारण अव्यक्त रूप है !कारण रूप में प्रत्यक्ष दिखाई न पड़ने वाला कार्य जब अपने अर्थात कार्य रूप में होता है तो प्रकट हो जाता है अर्थात प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने लगता है !जैसे तिलों के अंदर स्थित तेल और दूध में मिला हुआ घी दिखाई नहीं पड़ता है किंतु तेल और घी अपने अपने रूपों में आसानी से पहचाने जाते हैं !
      सांख्य दर्शन का उद्देश्य है  सत्कार्यवाद और इसके दो भेद हैं पहला परिणामवाद और दूसरा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य है कि जब कारण स्वयं ही कार्य रूप में परिवर्तित हो जाता है जैसे दूध ही दही रूप में रूपांतरित हो जाता है। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास हो जाना।
     कार्य कारण की ही एक अवस्था है कार्य कारण भाव से जब हम भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाओं को तो देखते हैं ये आपदाएँ या घटनाएँ ही कार्य हैं!इस कार्य के होने का आधार भूत निश्चित कारण जाने बिना यह कहने लगना कि भूकंप आने का कारण अमुक है कुछ समय बाद कुछ और बता देना उसके बाद कुछ और कह देना ऐसे कारणों की खोज में दिग्विहीन भटकाव को अनुसंधान शोध या रिसर्च कैसे माना जा सकता है !कार्य की प्रवृत्ति समझे बिना और कार्य का कारण से कोई सीधा सुदृढ़ संबंध खोजे बिना भी मनगढंत काल्पनिक कारणों को  गिनाने लग्न ये रिसर्च तो हो ही नहीं सकता अपितु रिसर्च भावना का उपहास है !
       जैसे - भूकंप एक कार्य है तो इसका कारण  क्या है ?तेल का कारण तिल है और और घी का कारण दूध है तो भूकंप का कारण क्या है ?अर्थात तेल तिलों से बनता हैं घी दूध से बनता है तो भूकंप कैसे बनते हैं किस तत्व से बनते हैं कब और किन परिस्थितियों में बनते हैं यह सबकुछ जाने बिना भी भूकम्पों के आने का सुनिश्चित कारण गिनाने लगना विषय के प्रति गंभीरता  का अभाव प्रदर्शित करता है !
     भूकंप जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न का सीधा और विश्वसनीय उत्तर किसी के पास कोई नहीं मिलता है किंतु इस उत्तर का पता लगाए बिना भूकंपों पर कैसा रिसर्च !
   सांख्य दर्शन के विवर्तवाद की पद्धति के अनुसार तो जैसे रस्सी को देख कर सर्प होने का झूठा भ्रम हो जाता है उसी प्रकार से भूकम्पों के विषय में अनेकों प्रकार के झूठे भ्रम होते जा रहे हैं !जैसे -
  • भूकंपों के आने का कारण ज्वालामुखी बताए गए किंतु यदि ऐसा होता तो जिन क्षेत्रों में ज्वालामुखी नहीं होते हैं वहाँ भूकंप क्यों आता है ?
  • महाराष्ट्र के कोयना क्षेत्र में कृत्रिम झील बनाई गई उसमें पानी भरा गया उसके  बाद वहाँ काफी भूकंप आने लगे !तब भूकंपों के आने का कारण कृत्रिम झीलों को बताया गया !किंतु यदि ऐसा होता तो जहाँ झीलें नहीं बनाई गई हैं वहाँ भूकंप क्यों आता है ?दूसरी बात जहाँ जहाँ झीलें बनाई गई हैं सब जगह  भूकंप क्यों नहीं आता है !
  • जमीन के अंदर की गैसों को भूकंपों के आने का कारण माना गया !यदि ऐसा होता तो गैसें तो पृथ्वी में सब जगह समान रूप से हैं फिर भूकंपों के प्रकोप सब जगह एक जैसे तो नहीं होते क्यों ?
  • धरती के अंदर जिन प्लेटों की परिकल्पना की गई है जिनके काँपने से भूकंप आने की बात बताई गई है किंतु गैसों के दबाव से प्लेटों के भ्रंशन की कल्पना पर तब तक विश्वास कैसे किया जा सकता है जब तक कार्य और कारण का कोई सीधा एवं विश्वसनीय संबंध सिद्ध न किया जा सके !
     ऐसी परिस्थिति में इतने सारे भ्रमों और कल्पनाप्रसूत तर्कों के आधार पर भूकंप जैसी इतनी विशाल घटना के घटित होने का कारण कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है !कदाचित ऐसी सभी बातों पर भरोसा किया भी जाए तो भी भूकम्पों के आने का वास्तविक कारण तो कोई एक होगा सभी तो नहीं हो सकते ! 
        सांख्य दर्शन और भूकंप - ब्रह्मांड के निर्माण में प्रकृति और पुरुष दोनों की अहम् भूमिका है इसमें प्रकृति अचेतन और पुरुष चेतन है !प्रकृति स्वतंत्र रूप से स्वत: समस्त विश्व की सृष्टि करती है। जगत् और जीवन में प्राप्त होने वाले जड़ एवं चेतन, दोनों ही रूपों के मूल रूप से जड़ प्रकृति, एवं चिन्मात्र पुरुष इन दो तत्वों की सत्ता मानी जाती है।जड़ प्रकृति सत्व, रजस एवं तमस् - इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है। इस प्रकार सांख्यशास्त्र के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का वास्तविक परिणाम है।प्रकृति भी पुरुष की ही भाँति अज और नित्य  है सांख्य-दर्शन के अनुसार, बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः, इस जगत की उत्पत्ति किसी शून्य से नहीं अपितु मूल सत्ता से हुई है इस बात को मानना ही होगा।ऐसी परिस्थिति में भूकंप की उत्पत्ति भी तो शून्य से नहीं होती होगी आखिर उनका भी आधारभूत कोई कारण तो होता ही होगा क्योंकि कारण के बिना कार्य का घटित होना असंभव है !जैसे बिछी हुई शय्या जड़ है भले ही उसका स्वयं अपने लिए कोई उपयोग हो या न भी हो किन्तु शय्या को देखकर ये अनुमान तो होता है कोई व्यक्ति है जो इसका उपयोग करेगा !इसी प्रकार से प्रकृति भी जड़ है और उसका अपने लिए कोई उपयोग नहीं है अतः उसका उपयोग करने के लिए कोई चेतन पुरुष है ऐसा प्रतीत होता है !
    प्राकृतिक आपदाओं का आधार हैं समय समय पर होने वाले प्रकृति परिवर्तन - 
  प्रकृति के प्रत्येक अंश में प्रतिक्षण परिवर्तन होते देखे जा रहे हैं प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण बदलती जा रही है कुछ के परिवर्तनों की गति अत्यंत धीमी होती है इसलिए वे लंबे समय बाद पहचाने जाते हैं जबकि कुछ बदलाव  प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहे होते हैं और कुछ प्रत्यक्ष होने के साथ साथ दिखाई नहीं पड़ते हैं अपितु अनुभव जन्य होते हैं !जैसे दूध का परिवर्तन ही तो दही है देखने में भले ही वो बाद में भी दूध की तरह ही सफेद लगता रहे किंतु वास्तव में देखा जाए तो उसमें परिवर्तन हो चुका होता है ! वस्तुतः दही भी दूध की ही बदली हुई अवस्था विशेष ही तो है !
     प्रकृति में स्थित परस्पर विरोधी गुण वाले तत्व भी आपस में मिलकर पिंड से लेकर ब्रह्माण्ड तक की रचना कर देते हैं !जैसे -समझने के लिए सत्व रज तम ये तीन गुण परस्पर विरोधी हैं ऐसे तो रुई तेल अग्नि भी परस्पर विरोधी होते हैं किंतु इनका संतुलित प्रयोग करके जैसे दीपक की रचना कर दी जाती है उसी प्रकार से परस्पर विरोधी इन तीनों गुणों से इस संसार की रचना की गई है !इन्हीं तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है किंतु इनमें चेतन के संयोग से वैषम्य आने लगता हैयही विषमता विभिन्न प्रकार की आपदाओं का कारण बनती है !
   
 प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही होता है सृष्टि का निर्माण !
        किसी बगीचे में आम के पेड़ में आम लगे हुए हैं उसके नीचे एक लँगड़ा व्यक्ति बैठा है तो दूसरा अंधा है !अंधे को आम दिखाई नहीं पड़ते हैं और लँगड़ा देखकर भी तोड़ नहीं सकता है!ऐसी परिस्थिति में अंधा व्यक्ति लंगड़े को यदि अपने कंधे पर बैठा ले तो दोनों को फल खाने को मिल सकते हैं इसी प्रक्रिया से जड़ प्रकृति और चेतन पुरुष ने मिलकर इस सृष्टि की रचना की है !प्रकृति में क्रिया शक्ति तो है किंतु चेतनता नहीं है इसलिए प्रकृति अंधे के समान है !पुरुष चेतन है !किंतु उसमें क्रिया शक्ति नहीं है !त्रिगुणात्मिका प्रकृति पुरुष अर्थात चेतन से भिन्न है !
प्रकृति विकृति भाव -इसमें तत्व रूपी प्रकृति अन्य तत्वों को उत्पन्न करती है  जबकि स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होती है !तत्व पुरुष न किसी से उत्पन्न होता है और न ही किसी को उत्पन्न करता है !
सूर्य चंद्र वायु ,अग्नि जल वायु ,पित्त कफ वायु ,दुःख सुख मोह !आदि संसार के साथ ही उत्पन्न होते हैं ! 

 
  

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