साईं प्रकरण पर शास्त्रार्थ में भी कुछ लोग स्वार्थ खोज रहे हैं आखिर क्यों ?
शास्त्रार्थ के नाम पर कुछ लोग धमकाते घूम रहे हैं कि उनके पास कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर कोई नहीं दे सकता !अर्थात यदि उनके प्रश्न जानना चाहते हो तो उनका आर्थिक पूजन करो !अन्यथा इतना सारा ड्रामा करने की अपेक्षा उन्हें अपने प्रश्न सीधे क्यों नहीं पूछ लेने चाहिए ! कुछ स्वयंभू विद्वान शास्त्रार्थ का नाम सुनकर ऐसा सक्रिय हो गए हैं कि उन्होंने इसमें भी दिमाग लगाना शुरू कर दिया है कि धनार्जन कैसे किया जाए !एक अपरिचित व्यक्ति पंडितों की वेष भूषा में हमसे मिलने आए उन्होंने नेट पर हमारे विषय में पढ़ा होगा कि मैं सनातन धर्मी हूँ और सनातन धर्म में फैलाए जा रहे पाखण्ड के विरोध में लिखता हूँ यह सब सोच समझकर उन्होंने कहा कि शंकराचार्य जी ने शास्त्रार्थ आखिर क्यों रखा है क्या वो केवल अपने को ही विद्वान समझ रहे हैं तो उनसे मैंने कहा निःसंदेह !वो बहुत बड़े विद्वान हैं दूसरी बात वो सनातन धर्म के शीर्ष धर्माचार्य हैं तीसरी बात उन्होंने सनातन धर्म में घुसपैठ करके पाखण्ड फैला रहे साईंयों के विरुद्ध आवाज उठाई है इसलिए समस्त सनातन धर्मियों के वैदुष्य पर उनका अधिकार भी है कि वो अपने शास्त्रीय कर्तव्य का निर्वहन करते हुए विद्वानों को उत्साहित करें कि विद्वान लोग आगे आएँ और सनातन धर्म को पाखण्ड मुक्त बनाने में अपने अपने दायित्व का निर्वाह करें !
इसपर उन विद्वान महानुभाव ने हमसे कहा कि मेरे पास पाँच प्रश्न ऐसे हैं जो मैं अगर साईं के पक्ष के लोगों से पूछ दूँ तो वो निरुत्तर होकर वापस चले जाएँगें इसी प्रकार से पाँच प्रश्न हमारे पास ऐसे भी हैं कि यदि वे प्रश्न हम सनातनधर्म के शास्त्रीय विद्वानों या शंकराचार्य जी से ही पूछ दें तो उन्हें निरुत्तर होकर वो सभा छोड़ने पर मजबूर होना होगा किन्तु मैं नहीं चाहता कि सनातन धर्म की बेइज्जती हो इसलिए ये बात मैं आपको बता रहा हूँ ! इस मैंने उनसे कहा कि आप अपने प्रश्नों के बारे में मुझे बताएँ आखिर वे प्रश्न क्या हैं तो उन्होंने अपने प्रश्न हमें बताने से यह कहते हुए मना कर दिया कि ये ऐसे नहीं होगा हम शास्त्रार्थ तो शास्त्रार्थ सभा में ही करेंगे तो मैंने उनसे कहा कि किसी भी सभा में मैं आपके शास्त्रीय प्रश्नों का उत्तर देने या शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हूँ बशर्ते ! आपकी शास्त्रीय शिक्षा और हमारी शिक्षा समान हो तो अन्यथा कई बार लोग आते हैं और चोंच लड़ाकर चले जाते हैं वो तो ये कहने लायक हो जाते हैं कि मैंने उनसे शास्त्रार्थ किया था किन्तु हमारी शैक्षणिक सामर्थ्य का उपहास हमें झेलना पड़ता है इसलिए मैं आपके प्रश्नों का सामना करने को तैयार हूँ बशर्ते आप हमारी शैक्षणिक सामर्थ्य का सामना करने को तैयार हों !उन्होंने हमारी शिक्षा के बारे में जानना चाहा तो मैंने यह लिंक उन्हें दे दिया - (यहलिंकदेखें-http://snvajpayee.blogspot.com/2012/10/drshesh-narayan-vajpayee-drsnvajpayee.html )
इस पर वो हम पर न केवल नाराज हुए अपितु बिना कोई कांटेक्ट नम्बर दिए हुए मुझे घमंडी कहते हुए वो चले गए -
मैंने उन्हें यह भी बताने की कोशिश की कि शंकराचार्य जी ने साईंयों को पहले समझाया था कि वो सनातन धर्म में भ्रष्टाचार फैलाने से बाज आएँ किन्तु साईंयों ने न केवल उनके शास्त्रीय आदेश की अवहेलना की अपितु पैसे का प्रदर्शन करते हुए कुछ मीडिया के लोगों एवं कुछ पंडित और बाबाओं का आर्थिक पूजन करके उन्हें अपने पक्ष में प्रभावित कर लिया और सनातन धर्मशास्त्रों के विरुद्ध साईं को भगवान बनाने के समर्थन में उन बेचारों से बयान दिलवाए जाने लगे टी.वी.चैनल भी साईंयों के द्वारा किए गए अपने आर्थिक पूजन से प्रभावित होकर न केवल साईंयों के गुण गाने लगे अपितु उनके समर्थन में धर्म संसद आयोजित करने लगे जिसमें धर्म एवं धर्म शास्त्रों का एक भी प्रमाण बोले बिना केवल चोंचें लड़वाई जाती रहीं जिसमें सनातन धर्म में फैलते पाखण्ड के विरोध में शंकराचार्य जी के द्वारा उठाई जा रही बातों को विवादित बयान बताया जाता रहा चूँकि टी.वी.चैनलों पर यह सब कुछ इतना अधिक फैल चुका था जिससे इस भ्रम का शास्त्रीय निराकरण होना बहुत आवश्यक हो गया था इसीलिए पक्षपाती मीडिया को एक तरफ करके अब शास्त्रार्थ सभा में लोगों को आमने सामने बात करने का अवसर मिलेगा और दोनों ओर से शास्त्रीय विचार सामने लाए जाएँगे ,जब साईँ समर्थक भी हमारे भाई बंधु ही हैं तो धर्मशास्त्रों की बातें उन्हें भी माननी होंगी यही धर्म है ।
वैसे भी
शास्त्रार्थ का उद्देश्य कभी किसी को निरुत्तर करने का नहीं होता यह बात और है कि जिसका जैसा शास्त्रीय अध्ययन है वो उतनी देर उस शास्त्रीय बहस में टिक पाता है अंततः उसे पीछे हटना ही होता है किन्तु इसका यह मतलब कतई नहीं होता कि पराजित हो गया इसलिए वो अयोग्य है अपितु उसका अभिप्राय यह लगाया जाना चाहिए कि वह अन्य लोगों की अपेक्षा शास्त्र का अधिक विद्वान था तब तो सम्मिलित हुआ शास्त्रार्थ में ! इसलिए सम्मान उसका भी होता है और होना भी चाहिए !
अब रही बात शास्त्रीय विद्वानों की एक से एक बड़े विद्वान सनातन धर्म में हो चुके हैं आज भी हैं और आगे भी होते रहेंगे दूसरी बात सनातन धर्म चूँकि सभी धर्मों से प्राचीन है और इसकी शास्त्रीय समृद्धि रूपी गाय हमेंशा हम सनातन धर्मियों पर उपकार करती रही है !यहाँ भी कुछ लोग तो इस गाय के ज्ञान रूपी दूध घी का आनंद लेते रहे तो कुछ लोग गाय के गोबर और मूत्र को लेकर न केवल उसकी दुर्गन्ध स्वयं सूँघते रहे अपितु समाज को भी बताते रहे कि देखो सनातन धर्मी लोग ऐसी गायों को पूजते हैं जिनके मल मूत्र में इतनी गंध होती है! इसके पीछे का कारण यह रहा कि उन्हें अपने अज्ञान के कारण हमेंशा यह लगता रहा कि गायों के भी मलमूत्र होता है और उसमें भी दुर्गन्ध होती है यह बात सनातन धर्मियों को पता ही नहीं है अन्यथा वो गाय के दूध का प्रयोग ही नहीं करते इस भ्रम में उन्होंने अपने को गाय के मल मूत्र का अन्वेषक मान लिया और समाज को चुनौती देते फिरने लगे कि मेरे पास गाय के विषय में कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो पूछ कर मैं बड़े बड़ों को निरुत्तर कर सकता हूँ किन्तु मैं पूछना इसलिए नहीं चाहता कि इससे सनातन धर्म की बेइज्जती हो जाएगी क्योंकि सनातन धर्मी गाय को पूजते हैं किन्तु उन्हें गाय के मल मूत्र के विषय में पता नहीं है यह खोज स्वयं मैंने ही की है !
एक दिन किसी विद्वान से वे ऐसे ही मिथ्या अहंकार बश उलझ गए कि जो मैं जानता हूँ वह किसी को पता नहीं है तो उस विद्वान ने उन्हें समझाया कि जब से सृष्टि बनी प्रारम्भ से ही लोग गाय के दुग्ध को अमृतोपम मानते रहे हैं और गाय के मल मूत्र को औषधि मान कर अनंत काल से उसका लाभ लेते रहे हैं !जैसे ही उन्होंने गाय के दूध और मल मूत्र के विषय में जानकारी दी तो उस शास्त्रार्थी अन्वेषक को अपने अज्ञान का पता लग गया और इन्हें बड़ा संकोच हुआ यह देखकर उन विद्वान महानुभाव ने समझाया कि गलती आपकी वहाँ नहीं है जहाँ आप समझ रहे हैं अपितु गलती वहाँ हुई है जिसे आप अभी भी समझना नहीं चाह रहे हैं उन्होंने पूछा कि वो कैसे ?
इस पर विद्वान ने कहा कि आपको अपने ज्ञान और ज्ञान के विषय में तो पता हो सकता है इसी प्रकार से आप कम या अधिक पढ़े लिखे भी हो सकते हैं यह तो सब कुछ संम्भव हैं किन्तु दूसरा किस विषय को कितना जानता है या नहीं, योग्य है या अयोग्य ,आपके प्रश्न का उत्तर वो दे सकता है या नहीं इन सबका मूल्यांकन आप नहीं कर सकते और यदि आप करते हैं तो ये आपकी सबसे बड़ी मूर्खता है !आखिर इस सृष्टि सागर में विद्या पर जितना अधिकार आपका है उतना ही किसी और का जितना परिश्रम आप कर सकते हैं उतना ही कोई और जितने विद्वान गुरु आपको मिल सकते हैं उतने ही किसी और को भी फिर आप किसी और को यह चुनौती कैसे दे सकते हैं कि आपके शास्त्रीय प्रश्नों के उत्तर कोई और दे ही नहीं सकता है !ऐसी धारणा वाले लोग शास्त्रीय स्वाध्याय के क्षेत्र में अपने जैसा हर किसी को समझने लगते हैं और जो विद्वान होता है वो दूसरे को भी विद्वान ही मानकर चलता है बाद में जो हो सो हो क्योंकि किसी विद्वान के मन में दूसरे विद्वान के परिश्रम का भी सम्मान होता है -
विद्वज्जनेव जानाति विद्वज्जन परिश्रमम् ।
इस विषय में धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज और हरिहर कृपालु जी के बीच शास्त्रार्थ की चर्चा मैंने भी सुनी है - जो शास्त्रार्थ हरिहर कृपालु जी की तरफ से ही टाला गया था रहें होंगे उसके कुछ सामाजिक कारण जिनके विषय में मुझे पता नहीं है किन्तु वे भी उद्भट विद्वान थे फिर भी धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज से किसी ने कह दिया कि संभवतः उन्होंने पराजय के भय से ऐसा किया होगा तो महाराज जी ने उसी क्षण उन्हें यह कहते हुए रोका कि शास्त्रार्थ में कभी किसी की पराजय नहीं होती हाँ विजय जरूर होती है किन्तु वो किसी व्यक्ति की नहीं होती अपितु विजय तो शास्त्र की ही होती है क्योंकि शास्त्रार्थ में हमेंशा तर्क भले कोई भी देता रहे किन्तु सर्व सम्मति से स्वीकार वही किया जाता है जो शास्त्रीय सच होता है तो शास्त्रार्थ से शास्त्र का एक नया अर्थ एक नया पक्ष एक नया अभिप्राय सामने आता है इससे कुछ लोगों के अथक परिश्रम से लाभ सारे शास्त्रीय समाज को हो जाता है उन्हें बिना किसी विशेष परिश्रम के एक नए अर्थ का लाभ हो जाता है जो अंततः सनातन धर्मियों की ज्ञान संपदा को बढ़ाने वाला होता है इससे लाभ तो सनातन धर्म का ही होता है ,क्योंकि मेरी जानकारी में शास्त्रार्थ की परंपरा किसी अन्य धर्म में नहीं है ! इसलिए इसका सबसे बड़ा लाभ उन लोगों को होता है जिनका अध्ययन बहुत अधिक नहीं होता है ।
इसलिए शास्त्रार्थ को किसी की जीत हार के रूप में न देखकर अपितु इसे शास्त्र की विजय के रूप में देखा जाना चाहिए !
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