Friday, 21 June 2019

शकुन

                                  विज्ञान से बहुत कुछ संभव है किंतु सब कुछ नहीं !

  ब्रह्मांड - द्रव्य एवं ऊर्जा के सम्मिलित रूप को ब्रह्मांड कहा जाता है।ब्रह्मांड उस अनंत आकाश को कहते हैं, जिसमें अनंत तारे, सूर्य, चंद्र आदि समस्त ग्रहों से युक्त सौर मंडल आदि सब कुछ विद्यमान है !उल्काएँ एवं अन्य आकाशीय पिंड आदि भी  ब्रह्मांड में ही स्थित हैं।पृथ्वी को संपूर्ण ब्रह्मांड का केंद्र माना जाता है , जिसकी परिक्रमा सभी आकाशीय पिंड विभिन्न कक्षाओं में करते थे। इसलिए इसे भूकेंद्रीय  सिद्धांत मानाजाता है !
द्रव्य -  
   हमारे ब्रम्हांड की वो हर एक चीज़ जो कुछ न कुछ स्थान घेरती है और द्रव्यमान होता है, उसे द्रव्य कहते हैं।हमारे आसपास ऐसी वस्तुएँ होती हैं जिन्हें हम देख सकते हैं इसके अतिरिक्त लाखों करोड़ों ऐसे कण या सूक्ष्म जीव भी उड़ते रहते हैं जिन्हें हम अपनी नंगी आँखों से देख नही सकते। फिर भी इनके कुछ न कुछ भौतिक अस्तित्व होते हैं।इनके कुछ न कुछ रूप एवं आकार होते हैं।    

ऊर्जा 

     किसी वस्तु में स्थित कार्य करने की क्षमता ही ऊर्जा होती है! प्रत्येक द्रव्य में एक निश्चित ऊर्जा होती है।किसी वस्तुकी शक्ति का मूल्यांकन करते समय यह देखा जाता है कि उसकी ऊर्जा के स्रोत क्या-क्या हैं?ऊर्जा के कारण ही द्रव्य में परिवर्तन होता है।जिन वस्तुओं को हम स्थूल रूप से देख सकते हैं उन वस्तुओं में स्थित ऊर्जा का ज्ञान अधिक सुगमता से हो जाता है ! 

    ऊर्जा में न कोई भार होता है और न ही आकार! ऊर्जा वस्तु नहीं है। इसको हम देख नहीं सकते, यह कोई जगह नहीं घेरती, इसकी छाया नहीं पड़ती है किंतु इसके प्रभाव का अनुभव हम अपनी इंद्रियों द्वारा कर सकते हैं।इसके अस्तित्व का अनुमान हम तर्क के आधार पर कर सकते हैं !

    वायु- जिसे हम देख नहीं सकते छू नहीं सकते किंतु वह हमारा स्पर्श करती है,स्थान घेरती है और इसमें भार होता है !यह वायु सृष्टि का प्रमुख अंग है!प्रकृति और जीवन दोनों के संचालन में इस वायु का महत्वपूर्ण स्थान है !


   विज्ञान - 
      द्रव्यगत ऊर्जा की उत्तम समझ ही  विज्ञान है "किसी वस्तु के गुण दुर्गुण स्वभाव आदि का ज्ञान ही तो विज्ञान है या यूँ कह लें कि किसी विषय की वास्तविकता का ज्ञान ही विज्ञान है।वस्तुओं के क्रमबद्ध अध्ययन से उनके स्वभाव गुणों आदि का ज्ञान करना ही विज्ञान है !"  जीवविज्ञान रसायनविज्ञान,भौतिकविज्ञान आदि विज्ञान के  प्रमुख भेद हैं !भौतिकविज्ञान में प्रकृति और भौतिक दुनिया का व्यवस्थित अध्ययन  करना होता है!
    भौतिकविज्ञान
     इसमें प्रकृति का अध्ययन किया जाता है !हमारे चारों ओर घटित होने वाली घटनाओं का अध्ययन किया जाता है !ग्रहों की गति का अध्ययन किया जाता है ! स्थान, काल, गति, द्रव्य, विद्युत, प्रकाश, ऊष्मा तथा ध्वनि इत्यादि अनेक विषय इसी में आते हैं।यहाँ काल का अर्थ समय है भूत, वर्तमान, भविष्य काल  आदि तीनों कालों में घट चुकी ,घट रही एवं भविष्य में घटित होने  वाली संभावित घटनाओं ,उनसे प्राप्त अनुभवों एवं पूर्वानुमानों का अध्ययन करना होता है !मौसम की पूर्व  भविष्यवाणी भी भौतिकी का ही विषय हैं !
वैज्ञानिकों की वैज्ञानिकता पर प्रश्नचिन्ह !
    इस विकास यात्रा में विज्ञान के द्वारा समाज को बहुत लाभ हुआ है ! जिन जिन विषयों के गुण दुर्गुण स्वभाव आदि वास्तविकता को संपूर्ण रूप में समझा जा चुका है उन विषयों से संबंधित यांत्रिक या इंद्रियजन्य अनुभव प्रयोग परीक्षा आदि के द्वारा प्रमाणित हो चुका ज्ञान ही तो विज्ञान है !ऐसे विज्ञान के द्वारा अनेकों प्रकार के अनसुलझे विषयों को सुलझाने में लगे विद्वानों में से जिन जिन को अपने अपने विषयों से संबंधित रहस्यों को सलझाने में सफलता मिल चुकी है ऐसे सफल हो चुके अनुसंधान कर्ताओं को सिद्धवैज्ञानिकों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए एवं उन्होंने जिस वैज्ञानिकविधि उस रहस्य को सुलझाने में सफलता प्राप्त की है उस विधि को उस विषय से संबंधित विज्ञान मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए और होगी भी नहीं !ऐसे सुसिद्ध विषयों को ही विज्ञान के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए !इसी प्रकार से ऐसे योग्यताप्रमाणितविद्वानों को ही वैज्ञानिकों के रूप में सरकारी विज्ञानसंबंधी संस्थानों में प्रतिष्ठित जाना चाहिए !
        इसके अतिरिक्त जिस वैज्ञानिकविधि के द्वारा उसविषय से संबंधित रहस्यों को सुलझाने में उस विषय से संबंधित विद्वानों को अभी तक सफलता  नहीं मिली है ऐसे लोग विद्वान होने के बाद भी अपने अनुसंधान कार्यों से अपने को वैज्ञानिकों के रूप में प्रमाणित नहीं कर सके !इसलिए ऐसे लोगों को वैज्ञानिकों के रूप में कैसे स्वीकार किया जा सकता है !तथा अनुसंधान में उनके द्वारा अपनायी जा रही उस तथाकथित वैज्ञानिक प्रक्रिया को विज्ञान कैसे माना जा सकता है जिसके द्वारा अनुसंधान करने में उस विषय के स्वभाव आदि रहस्यों को समझने में सफलता ही नहीं मिली !
      यदि ऐसी मनगढंत असफल प्रक्रियाओं को उनके बिना प्रमाणित हुए ही विज्ञान के स्वरूप में प्रतिष्ठित कर दिया जाएगा और ऐसे विषयों को ही शिक्षण संस्थानों में विज्ञान बता कर पढ़वाया जाएगा तो उन छात्रों के भविष्य का क्या होगा जो विज्ञान के नाम पर उस अवैज्ञानिक मृगमरीचिका  को चचोरने में लगा दिए गए हैं !
     कुल मिलाकर जिन विषयों से संबंधित रहस्य अभी तक नहीं सुलझ सका है उन बिषयों से संबंधित गुण दुर्गुण स्वभाव आदि वास्तविकता किसी को जब पता ही नहीं है !उनके विषय में अपने कुछ मनगढंत पैमाने बनाकर विज्ञान विज्ञान करने लगने से कोई विषय विज्ञान कैसे सिद्ध किया जा सकता है ऐसे आधे अधूरे विषयों को विज्ञान के रूप में स्थापित करना विज्ञानभावना के साथ खुला विश्वासघात है !     
     किसी विषय से संबंधित नवीनज्ञान की खोज के व्यवस्थित प्रयत्न को अनुसंधान कहते हैं वह प्रयत्न सफल हो जाए तो उसी को विज्ञान मानलिया जाता है यदि असफल बना रहे तो किस बात का विज्ञान !
     कविता लिखने का प्रयास करने मात्र से उसे कवि नहीं माना जा सकता अपितु जब वह कविता लिखने में सफल हो जाता है तब कवि होता है !कविता लिखना भी एक प्रकार का वैज्ञानिक अनुसंधान है और कवि भी एक प्रकार का वैज्ञानिक होता है !

  अनुसंधान की असफलता  से सिद्ध होता है वैज्ञानिकता का अभाव !
      मौसमविज्ञान जिस विषय को कहा जाता है उसमें विज्ञान कहाँ है वो तो बादलों की जासूसी है !जिधर से बादल आते दिखें या आँधी तूफान आता दिखे उसकी दिशा और गति का अंदाजा लगाकर यह कह देना कि इस दिन इस शहर में वर्षा या आँधी तूफ़ान घटित हो सकता है !ये तो अंदाजा है इसमें विज्ञान तो कहीं नहीं है !
     दीर्घावधि मौसम पूर्वानुमान के नाम पर की गई भविष्यवाणियाँ प्रायः गलत हीती हैं तेरह वर्षों  के पूर्वानुमान किए जाएँ और उनमें से यदि पाँच वर्षों के पूर्वानुमान ही सही निकलें तो इसमें विज्ञान कहाँ है !
     वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए  बताए जाने वाले जिम्मेदार कारणों में से 90 प्रतिशत तर्क की कसौटी पर खरे न उतर पा रहे हों तो इसमें विज्ञान कहाँ है !
      भूकंपों के घटित होने के कारणों के विषय में जमीन के अंदर की प्लेटों का खिसकना या गैसों का दबाव इन दो में से कोई भी बात यदि तर्क संगत होती तो इस चिंतन को विज्ञान सम्मत माना जा सकता था इनके आधार पर किए जाने वाले पूर्वानुमानों के सही सिद्ध होने तक इसे विज्ञान कैसे माना जा सकता है !    
   'अलनीनो' की परिकल्पना में विज्ञान की खोज -
      अलनीना और लानीना जैसे प्रशांत महासागर में उभरने वाले लक्षणों का यदि मौसम संबंधी घटनाओं से थोड़ा भी संबंध होता तब तो उसके आधार पर सही एवं सटीक मौसम संबंधी दीर्घावधि भविष्यवाणियाँ की जा सकती थीं किंतु अभी तक ऐसा हो नहीं सका इसलिए ऐसी कल्पनाओं को विज्ञान कैसे माना जा सकता है !
     प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह गर्म हो तो उसका नाम 'अल-नीनो' रख लिया गया और इसके प्रभाव के विषय में कहा गया कि"एल-नीनो अक्सर दस साल में दो से तीन बार आती है वर्षा के प्रमुख क्षेत्र बदल जाते हैं अर्थात विश्व के ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में कम वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्यादा वर्षा होने लगती है। कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है।इसके प्रभाव से हवाओं के रास्ते और रफ्तार में परिवर्तन आ जाता है।" 
     इसके प्रभाव से "अधिक वर्षा या अधिक सूखा पड़ता है" इसमें दोनों बातें कह दी गईं !दूसरी बात- "विश्व के ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में कम वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्यादा वर्षा होने लगती है कभी कभी इसके विपरीत भी होता है।" अर्थात जैसा चल रहा होता है वैसा ही चला करता है !तीसरी बात "एल-नीनो अक्सर दस साल में दो से तीन बार आती है!"अधिक वर्षा या अधिक सूखा जैसा प्राकृतिक संतुलन हर वर्ष तो हो नहीं सकता वो दस वर्ष में दो तीन बार ही हो सकेगा !
     ऐसी परिस्थिति में इसमें सभी बातें दुविधा पूर्ण एवं संदिग्ध हैं इन्हें इसमें विज्ञान कहाँ है !क्योंकि किसी विषय से संबंधित सभी दुविधाओं को मथते हुए जब कोई एक ऐसा सिद्धांत सूत्र निकलता है जो तर्कों की कसौटी पर सही एवं सटीक घटित होता है उस विषय का वही विज्ञान होता है !
    अल नीनो की उत्पत्ति के कारण का अभी तक कुछ पता नहीं। हाँ, यह किस प्रकार घटित होता है इसके बारे में अबतक पर्याप्त अध्ययन हो चुका है और जानकारियाँ उपलब्ध है। अल–नीनो घटित होने के संबंध में भी कई सिद्धांत मौजूद है लेकिन कोई भी सिद्धांत या गणितीय मॉडल अल–नीनो के आगमन की सही भविष्यवाणी नहीं कर पाता।
     अल-नीनो के पूर्वानुमान के लिये जितने प्रचलित सिद्धान्त हैं, उनमें यह मान्यता है कि विषुवतीय समुद्र में सन्चित ऊष्मा एक निश्चित अवधि के बाद अल-नीनो के रूप में बाहर आती है। इसलिये समुद्री ताप में हुई अभिवृद्धि को मापकर अल-नीनो के आगमन की भविष्यवाणी की जा सकती है।
 अलनीनों का मौसम पर प्रभाव -
    यह विश्वव्यापी मौसम पद्धतियों के विनाशकारी व्यवधानों के लिए जिम्मेदार है। ये मौसमी कारक, जो मानसून की चाल पर असर डालते हैं,मानसून की एक कमान अल-नीनो के हाथ रहती है।एल-नीनो के कारण वर्षा के प्रमुख क्षेत्र बदल जाते हैं। परिणामस्वरूप विश्व के ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में कम वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्यादा वर्षा होने लगती है। कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है।इसके प्रभाव से हवाओं के रास्ते और रफ्तार में परिवर्तन आ जाता है।जिसका प्रभाव पूरे विश्व की जलवायु पर पड़ता है।" 
 विशेष बातएल-नीनो के प्रभाव को समझकर लगता है कि यह वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान एवं गर्मी की मात्रा बढ़ने में इसकीबहुत बड़ी भूमिका होती है !वायु प्रवाह आदि की दिशा निश्चित करने में भी एल-नीनो बड़ी भूमिका होती है!प्रशांत महासागर में पेरू से पश्चिमी समुद्री सतह पर इसके लक्षण प्रकट होने से पूर्व या फिर लक्षणों के प्रकट होने का समय बीत जाने से पूर्व वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान एवं गर्मी की मात्रा बढ़ने संबंधी किसी भी पूर्वानुमान को विश्वसनीय न माना जाए !

  अलनीनों का पूर्वानुमान - 
    अल नीनो का समय सामान्य रूप से जनवरी से जून माना जा सकता है !यह अलनीनों यदि मौसम संबंधी घटनाओं को इतना अधिक प्रभावित करता है तब तो वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान आदि किसी भी प्रकार की मौसमसंबंधी भविष्यवाणी करने से पूर्व अलनीनों के विषय में सटीक भविष्यवाणी की जानी चाहिए उसके आधार पर ही मौसम संबंधी दीर्घावधि भविष्यवाणी करना उचित होगा! 
      जहाँ तक अल नीनो संबंधी  भविष्यवाणी  करने की बात है तो इसकी उत्पत्ति के कारण का अभी तक किसी को कुछ पता नहीं। अल–नीनो घटित होने के संबंध में भी कई सिद्धांत मौजूद है लेकिन कोई भी सिद्धांत या गणितीय मॉडल अल–नीनो के आगमन की सही भविष्यवाणी नहीं कर पाता।बताया जाता है कि समुद्री ताप में हुई अभिवृद्धि को मापकर अलनीनो के आगमन की भविष्यवाणी की जा सकती है। यह दावा पहले गलत हो चुका है।एल नीनो का सटीक कारण, तीव्रता एवं अवधि की सही-सही जानकारी नहीं है। गर्म एल नीनो की अवस्था सामान्यतः लगभग 8-10 महीनों तक बनी रहती है।
      इस प्रकार से अलनीनों की स्थिति स्पष्ट हुए बिना या इसका समय व्यतीत हुए बिना मौसम संबंधी पूर्वानुमानों की विश्वसनीयता कैसे मानी जाए ! मौसम संबंधी ऐसी परिस्थितियाँ वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान आदि से संबंधित भविष्यवाणियों के प्रति अविश्वास पैदा करती हैं !इसके साथ ही मौसम संबंधी विज्ञान के अधूरेपन के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध करवाती हैं ! मौसम भविष्यवक्ताओं के द्वारा की जाने वाली अलनीनो के आगमन की भविष्यवाणियाँ यदि गलत हो सकती हैं तो उसके आधार पर उन्हीं के द्वारा की जाने वाली मौसम संबंधी भविष्यवाणियाँ सही होंगी ऐसा कैसे माना जा सकता है !
      जलवायुपरिवर्तन -

     जलवायु परिवर्तन औसत मौसमी दशाओं के पैटर्न में ऐतिहासिक रूप से बदलाव आने को कहते हैं। सामान्यतः इन बदलावों का अध्ययन पृथ्वी के इतिहास को दीर्घ अवधियों में बाँट कर किया जाता है ! जलवायु की दशाओं में यह बदलाव प्राकृतिक भी हो सकता है ये इसलिए माना जाना चाहिए क्योंकि प्रकृति को परिवर्तित करने की क्षमता मनुष्यकृत  प्रयासों में नहीं होती !
     वैज्ञानिकों का एक वर्ग कहता है कि अल नीनो की आवृत्ति और उसकी चंचलता जलवायु में बदलाव से नहीं जुड़ी है. अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने रिसर्च के बाद मिली जानकारी के बाद ये कहा है.
     इस अल-नीनो का कारण मानवीय क्रिया-कलापों के कारण जलवायु में होने वाले परिवर्तन को माना गया है।

     जलवायुपरिवर्तन जैसी कोई विज्ञान संबंधी घटना होती तो इसके कुछ लक्षण समाज में भी तो देखे जाने चाहिए!दूसरा ऐसी बातों का प्रकृति एवं प्राकृतिक घटनाओं से कहीं कोई संबंध भी तो सिद्ध होना चाहिए !
      ग्लोबलवार्मिंग जैसी यदि कोई घटना विज्ञान सम्मत होती तो तापमान में निरंतर वृद्धि ही होती रहती इसमें कभी कमी नहीं आती किंतु ऐसा नहीं होता है !टेम्प्रेचर बढ़ जाए तो ग्लोबलवार्मिंग और घाट जाए तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है !सर्दी के दिनों में इतनी इतनी डिग्री माइनस चला जाता है टेम्प्रेचर !ऐसी परिस्थिति में   ग्लोबलवार्मिंग जैसी कल्पनाओं को विज्ञान सम्मत कैसे माना जासकता है !
     वर्षा या आँधी तूफ़ान संबंधी पूर्वानुमानों के विषय में मौसम भविष्यवक्ताओं के द्वारा जो भविष्यवाणियाँ की जाती हैं उनके गलत होने पर उस गलती का कारण जलवायुपरिवर्तन ग्लोबलवार्मिंग को बता दिया जाता है यह कथन विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता हैं क्योंकि जलवायुपरिवर्तन ग्लोबलवार्मिंग जैसी किसी परिस्थिति पर भविष्यवाणी करने से पहले विचार कर लिया जाना चाहिए था उसके अनुसार ही भविष्यवाणी की जानी चाहिए थी किंतु पूर्वानुमान गलत होने के बाद ऐसी बातों का क्या औचित्य !जलवायुपरिवर्तन और ग्लोबलवार्मिंग जैसी कल्पनाओं को विज्ञान सम्मत कैसे मान लिया जाए !
    अनुभव-  प्रयोग अथवा परीक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान अनुभव कहलाता है।किसी विषय से संबंधित विज्ञान की खोज करने में संबंधित विषय पर सभी प्रकार की कल्पनाएँ प्रयोग परीक्षण आदि करने पड़ते हैं सफलता मिलने पहले कई बार सैकड़ों प्रयोग किए जाते हैं उनमें से  अधिकाँश फेल हुआ करते हैं कई बार उनसे थोड़ा बहुत अनुभव अनुसंधान की दिशा में मिल भी जाता है इसके बाद कोई एक सफल हो जाता है उस विषय का वही विज्ञान होता है! असफल प्रयोगों से पता लगता है कि कमी कहाँ थी और उस अनुसंधान यात्रा को आगे बढ़ाते रहा जाता है सफलता मिलने की संभावना उसके बाद बनती है !

 
     मनोविज्ञान -
    मनोविज्ञान भी सामाजिक विज्ञान का ही अंग है !इसमें मनुष्य, पशु आदि की मानसिक प्रक्रियाओं , अनुभवों तथा व्यक्त व अव्यक्त दाेनाें प्रकार के व्यवहाराें का एक क्रमबद्ध वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।यह प्राणी के भीतर के मानसिक एवं दैहिक प्रक्रियाओं चिंतन,भाव आदि तथा वातावरण की घटनाओं के साथ उनका संबंध जोड़कर अध्ययन करना होता है। इस परिप्रेक्ष्य में मनोविज्ञान को व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के अध्ययन का विज्ञान कहा गया है। 'व्यवहार' में मानव व्यवहार तथा पशु व्यवहार दोनों ही सम्मिलित होते हैं। 
       मन का सीधा संबंध चंद्र से होता है चंद्र का सीधा संबंध प्रकृति से होता है!प्रकृति में जब अच्छी घटनाएँ घटित हो रही होती हैं तब मन भी प्रसन्न होता है क्योंकि दोनों को प्रभावित करने वाला चंद्र है जीवों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का कारण चंद्र को मानते हैं तो प्रकृति में होने वाले ज्वार भाँटा आदि परिवर्तनों का कारण भी चंद्र को माना जाता है !चंद्र प्रभाव से ऐसे परिवर्तन पृथ्वी के संपूर्ण प्राणियों में तो होते हैं एवं इसका उसी प्रकार का असर प्रकृति पर भी होता है जिस की उस प्रकार की प्रतिक्रिया का अनुभव बनस्पतियों समुद्रों आदि प्रकृति के अनेकों अंगों में दिखने वाले सूक्ष्म बदलावों के द्वारा अनुभव किया जा सकता है !
    वैदिक विज्ञान में मन का मूल चंद्र को मन जाता है!चंद्रमा में होने वाले बदलावों के साथ साथ प्रकृति और जीवन में बदलाव होते लगातार देखे जाते रहे इसके परिणाम स्वरूप प्राचीन वैदिक वैज्ञानिकों ने निश्चय किया कि चंद्र में होने वाले  परिवर्तन का असर जब समस्त प्राकृतिक वातावरण पर होता है वृक्षों बनस्पतियों पर होता है समुद्रों सहित प्रकृति के समस्त अंगों पर होता है मानव व्यवहार एवं  पशु व्यवहार आदि समस्त प्राणियों के स्वभाव पर होता है !
       इसलिए इनमें सभी में से किसी एक का ठीक से अध्ययन कर लिया जाए और उसमें होने वाले परिवर्तनों को देखकर समस्त प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों का अनुमान लगाया जा सकता है !इसी विचार से उन्होंने जीवों पर अध्ययन किया कि चंद्र के किस प्रकार के प्रभाव के दर्शन प्रकृति के किन किन अंगों पर किस प्रकार के होते हैं उसके लक्षण पुरुषों स्त्रियों बच्चों वृद्धों पर किस किस प्रकार से दिखते हैं अलग अलग जीव जंतुओं पर किस किस प्रकार से दिखते हैं !प्रकृति में चंद्र कृत किस प्रकार की परिस्थिति होने पर उन जीव जंतुओं के व्यवहार में किस किस प्रकार का बदलाव होता है !बृक्षों बनस्पतियों नदियों तालाबों समुद्रों आदि में उस बदलाव के दर्शन किस किस प्रकार के होते हैं !उसी के आधार पर उन वैज्ञानिकों ने शकुन शास्त्र का निर्माण किया !जिसके  आधार पर जीवन से लेकर प्रकृति आदि में घटित होने वाली अच्छी बुरी समस्त घटनाओं का अनुमान लगा लिया करते थे !यहाँ तक कि शारीरिक रोगों एवं प्राकृतिक आपदाओं का भी पूर्वानुमान लगा लिया करते थे !भूकंप जैसी घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लिया करते थे !किसी क्षेत्र विशेष में फैलने वाली किसी विशेष प्रकार की सामूहिक बीमारी या महामारी आदि का पूर्वानुमान लगा लिया करते थे !इसी के द्वारा समाज के कुछ समूहों में पैदा होने वाले उन्माद ,आंदोलनभावना, संघर्षभावना आदि  पनपती है !प्राचीन काल में इसके अध्ययन को शकुन और अपशकुनों के नाम से जाना जाता था !
  


भारत में मानसून सीजन जून से लेकर सितंबर तक चलता है यानी अगर मौसम सामान्य रहता है तो 4 महीने जमकर बारिश होती है. देश में आमतौर पर अगस्त से लेकर सितंबर तक सबसे ज्यादा (करीब 70 फीसदी) बारिश होती है.


पांच बार रूठा मानसून

पिछले चार दशकों के दौरान मानसूनी बारिश का आंकड़ा देखें तो पता चलता है कि इस दौर में पांच बार मानसून रूठा और देश में पांचों बार सूखा पड़ा-
1972 में 24 फीसदी बारिश कम हुई।
1979 में 19 फीसदी बारिश कम हुई।
1987 में भी 19 फीसदी बारिश कम हुई।
2002 में भी 19 फीसदी बारिश कम हुई।
2009 में 24 फीसदी बारिश कम हुई।
2012 में शुरुआती दो महीनों में 19-20 प्रतिशत सूखे के हालात बन गए थे, बाद के दो महीनों में बारिश हुई भी तो “ का बरषा जब कृषि सुखानी” वाले अंदाज में।
 अलनीनों से प्रभावित वर्ष - हाल के वर्षो में 1972, 1976, 1982, 1987, 1991, 1994, तथा 1997 के वर्षो में व्यापक तौर पर अल–नीनो का प्रभाव दर्ज किया गया जिसमें वर्ष 1982–83 तथा 1997–98 में इस घटना का प्रभाव सार्वाधिक रहा है। 

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