Sunday, 10 September 2017

षड्दर्शन !

अद्वैत ,द्वैत ,विशिष्ठ अद्वैत ,द्वैत -अद्वैत ,विशुद्ध अद्वैत और अचिन्त्य भेदाभेद वाद में ?
   हिंदुत्व दर्शन की यह विभिन्न धाराएं हैं जिनका प्रतिपादन अलग अलग आचार्यों ने किया है। वेदान्त दर्शन  जिसे ब्रह्म सूत्र भी कहा गया है एक मशहूर वैदिक ग्रन्थ है। इसमें आध्यात्मिक गुरूओं ने अपने अपने सूत्रों की विस्तार से व्याख्या लिखी है। इनमें आत्मा ,परमात्मा और माया के परस्पर सम्बन्ध पर गुरुओं ने अपने अपने दर्शन और साधनाओं का निचोड़ रखा  है।
    अद्वैतवाद :के सूत्रधार जगदगुरु आदि शंकराचार्य रहें हैं जिन्हें भगवान् शंकर का अवतार समझा गया है। इस मत के अनुसार केवल एक ही सत्ता है :ब्रह्म।
आत्मा ब्रह्म से अलग नहीं है। ब्रह्म ही आत्मा है  अपने मूल रूप में लेकिन अज्ञान इन्हें दो बनाए रहता है। ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा अपने मूल स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेती है। शंकराचार्य माया के अस्तित्व को नहीं मानते हैं।इनके दर्शन में माया मिथ्या है इल्यूज़न है। अज्ञान के कारण ही हमें इसका बोध होता है। ज्ञान प्राप्त करने पर इसका लोप हो जाता है। 
क्योंकि आप एक ही सत्ता ब्रह्म की  बात करते हैं इसीलिए इनके दर्शन को अ-द्वैत -वाद कहा गया है,
     विशिष्ठ अद्वैतवाद :इसके प्रवर्तक जगदगुरु रामानुजाचार्य सत्ता तो एक ब्रह्म की ही मानते हैं लेकिन जैसे  वृक्ष की शाखाएं ,पत्ते और फल और फूल उसी के अलग अलग अंग   हैं एक ही वृक्ष में विविधता है  वैसे ही जीव (आत्मा )और माया ,परमात्मा के विशेषण हैं। विशिष्ठ गुण हैं। इसीलिए इस दर्शन को नाम दिया गया विशिष्ठ अ-द्वैत  वाद !
       माया यहाँ मिथ्या नहीं है ब्रह्म भी सत्य है माया भी। 
  द्वैत -अद्वैतवाद :जगद गुरु माधवाचार्य पांच किस्म के द्वैत की बात करते हैं। (Five Dualities )
   यहाँ दो आत्माएं भी यकसां नहीं हैं एक  मुक्त  को हो गई   दूसरी  अभी बंधन में ही पड़ी है। हर आत्मा का स्वभाव संस्कार (शख्शियत )यहाँ अलग है।
      माया और आत्मा  में भी फर्क है।माया जड़ है भौतिक ऊर्जा है आत्मा (जीव )चैतन्य है। 
     यहाँ माया और माया में भी फर्क है। हम कुछ चीज़ें खाद्य के रूप में ग्रहण करते हैं कुछ को अखाद्य कह देते हैं। हैं दोनों भौतिक ऊर्जा के ही रूप फिर भी फर्क लिए हुए हैं। वरना आदमी मिट्टी खा के पेट भर लेता। 
     माया और ब्रह्म के बीच भी द्वैधभाव  (द्वैत )है। परमात्मा सर्व शक्तिमान रचता है। माया उसकी शक्ति है। परमात्मा सनातन सत्य है ज्ञान और आनंदका सागर है.माया को शक्ति परमात्मा से प्राप्त होती है वह उसकी आश्रिता है। 
    आत्मा और परमात्मा भी अलग अलग हैं दो हैं एक नहीं आत्मा अलग परमात्मा अलग। आत्मा माया से आबद्ध है। जबकी परमात्मा माया पर शासन करता है। माया उसकी चेरी है। आत्मा ज्ञान स्वरूप तो है लेकिन उसका ज्ञान सीमित है। आत्मा तो सर्वज्ञ (सर्वज्ञाता )है। आत्मा की चेतना (चेतन तत्व )एक ही काया में व्याप्त रहती है जबकि परमात्मा सर्वत्र सारी सृष्टि में व्याप्त है।आत्मा आनंद ढूंढ रही है परमात्मा तो स्वयं आनंद है। आनंद परमात्मा का ही एक नाम है। जहां आनंद है वहां परमात्मा है यह आनंद हद का नहीं बे -हद का है। इस संसार का नहीं है उस संसार का है।इसीलिए गीता में भगवान् कहते हैं जहां आनंद है वहां भी मैं ही हूँ।  
     द्वैताद्वैतवाद (द्वैत -अद्वैतवाद ):इसके प्रतिपादक जगदगुरु निम्बकाचार्य अ-द्वैत और द्वैत दोनों को ही सही मानते हैं। समुन्द्र और उसकी बूँद अलग अलग भी हैं एक भी माने जा सकते हैं। इसीप्रकार आत्मा परमात्मा का ही अंश है। अंश को अंशी से अलग भी कह सकते हैं ,यूं भी कह सकते हैं  शक्ति ,शक्तिमान से अलग नहीं होती है। शक्तिमान की ही होती है।
      विशुद्ध अद्वैत वाद इसके प्रतिपादक जगद -गुरु वल्लभाचार्य माया के अस्तित्व को मानते हैं शंकराचार्य की तरह नकारते नहीं हैं वहां तो माया इल्यूज़न है मिथ्या है। वहां तो आत्मा का भी अलग अस्तित्व नहीं माना गया है। आत्मा सो परमात्मा कह दिया गया है। 
इस स्कूल में दोनों का अस्तित्व है लेकिन परमात्मा के संग में वह एक ही हैं। यानी माया तो परमात्मा की शक्ति है ही आत्मा का भी परमात्मा में विलय हो सकता है आत्मा परमात्मा को प्राप्त हो सकती है। 
     अचिन्त्य भेदाभेद वाद :इसके  प्रतिपादक चैतन्य महाप्रभु कहते हैं जिस प्रकार गर्मी और प्रकाश आग (अग्नि )की ही शक्ति  हैं ,ताप और प्रकाश ऊर्जा के दो अलग लग रूप हैं लेकिन हैं दोनों एक साथ हैं  उसी एक अग्नि के रूप यानी उससे अलग भी उन्हें नहीं कहा जा सकता है। इसीप्रकार आत्मा और माया परमात्मा की ही शक्ति से कार्य करतीं हैं। दोनों हैं उसी की शक्तियां फिर भी उससे  अलग अलग भी हैं और उसके साथ साथ भी। इन्हें साधारण बुद्धि से इस रूप में पूरा ठीक से नहीं समझा जा सकता। प्रज्ञा चक्षु चाहिए इन्हें बूझने के लिए। इसीलिए इस दर्शन को आपने नाम दिया अचिन्त्य भेदाभेद  वाद। 

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