Saturday, 1 February 2014

राहुल गाँधी का भाषण,सोच ,अनुभव और आचरण ऐसा फिर भी सपने प्रधानमंत्री बनने के !

     मजाक तो कोई भी कर सकता है किन्तु देश की  जनता अब तो सबकुछ समझ चुकी है !फिर भी राहुलगाँधी का भाषण सुनकर देशवासी यह समझना चाहते हैं कि राहुल  आखिर हमें समझाना क्या चाहते हैं किन्तु राहुल की समस्या यह है कि वो समझाते ऐसी बातें हैं जो उन्हें स्वयं समझ में नहीं आती हैं ! 
      आप स्वयं देखिए -

अलग अलग सभाओं में बोले गए  राहुल के भाषणांश -    "पता है चीन में क्या हो रहा है? मैनुफैक्चरिंग के बिना हम तरक्की नहीं कर सकते। इसके लिए हम यहां बडे़ कारखाने लगाएँगे, तुम्हें जो छत पर बैठे मुझे सुन रहे हो रोजगार मिलेगा। तुम भी विलायत अमेरिका जाओगे।"
     यह सुनकर लोग क्या सोच नहीं रहे होंगे कि हमें क्यों बेबकूप बना रहे हो यार ! पिछले दस साल से आप ही केंद्र में राज कर रहे हैं।कुछ प्रांतों में भी आपकी सरकारें है विकास-उत्पादन आदि तो वहाँ भी नहीं हो रहा है क्यों?कहीं तो कुछ करके दिखाते! आजादी के 65-67 साल बाद भी देश की आबादी का आधे से अधिक हिस्सा गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहने को विवश है, जिसकी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अध्यादेश जारी करना पड़ता है तो इसकी जिम्मेदारी किसकी है?अर्थात केवल काँग्रेस की जिसने पचास साल से अधिक राज किया है उसमें भी नेहरू-गाँधी परिवार के नेतृत्व का समय सबसे ज्यादा है इसलिए  दूसरे दलों का शासन बहुत कम वर्ष रहा है की जिनके नसीब में बचे खुचे वर्ष आए? कांग्रेस के कार्यकाल में भी । गनीमत है कि राहुल अब मोबाइल झलका कर यह नहीं कहते कि यह मेरे पिता ने दिया। पर जन्मजात अधिकार से शासक बनने की दावेदारी वाले तेवर बरकरार हैं।
मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के संदर्भ में उन्होंने हाल के एक भाषण में खुफिया विभाग के एक अधिकारी से मिली जानकारी का जिक्र कर नया बवंडर खड़ा कर दिया। कांग्रेस के उपाध्यक्ष को आइबी या राज्य पुलिस के किसी अधिकारी से गोपनीय जानकारी हासिल करने का कोई अधिकार नहीं। यदि कोई मौकापरस्त चापलूस अफसर उन्हें कोई संवेदनशील जानकारी देता भी है तो उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल कर इसे सार्वजनिक बनाने के लोभ से बचना चाहिए। इस तरह के कार्यो के कारण ही वह बेचारे मनमोहन सिंह को सार्वजनिक रूप से दयनीय और हास्यास्पद बना चुके हैं। शरद पवार की यह टिप्पणी निराधार नहीं कि प्रशासनिक अनुभव के अभाव के कारण राहुल गांधी को सुयोग्य नेता के रूप में स्वीकार करना कठिन है। मंत्रिमंडल में शामिल न होने के जो भी कारण रहे हों, पद की गोपनीयता की अनिवार्यता से वह अपरिचित लगते हैं।
सहानुभूति बटोरने के लिए वह अपने भाषणों में इंदिरा गांधी तथा राजीव की हत्या का उल्लेख करते हैं, कुछ यों कि उन्होंने मेरी दादी को मार डाला, मेरे पिता की हत्या कर दी, वो मुझे भी मार देंगे पर मैं मौत से डरता नहीं। विडंबना यह है कि इंदिरा गांधी के हत्यारे खालिस्तानी थे, राजीव को मारने वाले लिट्टे के हिंसक आतंकवादी। इन पर एक ही लेबल चस्पा नहीं किया जा सकता। सिख समुदाय ने राहुल के इस भाषण पर सख्त आपत्ति दर्ज की है। शायद राहुल का इरादा और पुराने इतिहास के पन्ने पलट राष्ट्रपिता के हत्यारों से इन लोगों का रिश्ता ढूंढ़ने का था। उन सभी को सांप्रदायिक करार करने की उतावली में सहानुभूति की जगह नाराजगी ही राहुल तथा कांग्रेस के हाथ लगी है। इसी कारण 1984 के सिख विरोधी दंगों के घाव ताजा कर दिए गए हैं। मुजफ्फरनगर का नाम लेते ही राजस्थान के मुसलमानों को अशोक गहलोत के राज में गोपालगढ़ का सांप्रदायिक रक्तपात भी याद आने लगता है। भाजपा ने तो इस तरह की फिकरेबाजी के खिलाफ चुनाव आयोग में भी शिकायत दर्ज करा दी है।
राहुल तब और भी हास्यास्पद लगने लगते हैं जब वह भाजपा तथा दूसरे विपक्षी राजनेताओं को वातानुकूलित कमरे में बैठकर राजनीति करने वाला या पूंजीपतियों का पक्षधर घोषित करते हैं। लाखों करोड़ रुपयों के घोटालों के पर्दाफाश ने यह जग-जाहिर कर दिया है कि इस मामले में खुद संप्रग तथा कांग्रेस का दामन कितना दागदार और साफ है। जहां तक आर्थिक नीतियों का सवाल है तो भाजपा और कांग्रेस में कोई बुनियादी मतभेद न तो आर्थिक सुधारों के बारे में है न भूमंडलीकरणजनित संरचनात्मक बदलाव को लेकर। गरीबों की रहनुमाई का पाखंड दोनों का एक जैसा है। किसान और खेती की उपेक्षा सभी ने समान रूप से की है।
जब राहुल भावावेश में दो बीघा जमीन के हृदय द्रावक दृश्य की याद ताजा कराते कहते हैं, किसान के पसीने की बूंदें तपती सूखी जमीन पर टप-टप गिरती हैं तो वह आसमान की तरफ ताकता है। सपना देखता है कि उसकी संतानें भी एक दिन हवाई जहाज में उडे़ंगी। तब यह महसूस होता है कि या तो वह बेहद लाइलाज भोले हैं या फिर उनके भाषण लिखने वाले मुंबइया फिल्मों में डायलॉग लिखने की महत्वाकांक्षा के शिकार हैं जो अपना हाथ साफ कर रहे हैं। पीपली लाइव का भारत दो बीघा जमीन या गोदान की दुनिया नहीं। पर यह बात राहुल को कौन समझाएगा? उनके अभावग्रस्त श्रोता उन्हें वातानुकूलित कमरों का निवासी समझते हैं। जो हमदर्द हो सकता है, मसीहा भी नजर आ सकता है, पर पल भर को रोजमर्रा की जिंदगी के दुखदर्द का साझीदार नहीं। राहुल को यह मुगालता है कि सूखाग्रस्त बुंदेलखंड में एक दलित परिवार का आतिथ्य किंचन के घर पधारकर और अन्न ग्रहण कर उन्होंने अपने परनाना नेहरू की तरह भारत की खोज पूरी कर ली है। असली दिक्कत शब्दों या शैली की नहीं, सार की है।

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