वातादि के असंतुलन से पैदा होती हैं महामारियाँ !
आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी इन पंचतत्वों से संसार एवं शरीर दोनों का निर्माण होता है|इन्हीं पंचतत्वों में से आकाश अर्थात खाली जगह और पृथ्वी अर्थात ठोसतत्व स्थिर रहते हैं | इन दो के अतिरिक्त वायु अग्नि और जल जो तीन बचते हैं| ये तीनों ही संतुलित मात्रा में रहकर प्रकृति और शरीरों को धारण करते हैं |
इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है| इन तीनों की मात्रा असंतुलित होने पर ये
प्रकृति और शरीरों को रोगी बनाते हैं | इसलिए इन्हें त्रिदोष कहा जाता है |
आयुर्वेद की भाषा में वायु अग्नि जल को ही वात पित्त और कफ के नाम से जाना जाता है |पित्त का मतलब आग एवं कफ का मतलब जल होता है| वायु को ही वात कहते हैं |
वात पित्त और कफ ये तीनों प्रकृति तथा प्राणियों को धारण करते हैं | इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है |यही वात पित्त और कफ जब
असंतुलित अर्थात दूषित हो जाते हैं | उस समय प्रकृति और जीवन दोनों को रोगी करने लगते हैं|ऐसे समय इन्हें त्रिदोष कहा जाता है|
प्राकृतिक वातावरण में प्रकृति को उचितमात्रा में वात पित्त आदि की आवश्यकता होती है |प्रकृति को जिस समय जितनी मात्रा में तापमान या वर्षा की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में मिलने पर ही प्राकृतिक वातावरण स्वस्थ रह सकता है | उस मात्रा से
कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं| जो
प्रकृति के लिए अच्छा नहीं होता है| त्रिदोषों का यह
असंतुलन कई बार प्राकृतिक आपदाओं तथा रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला
होता है |
वात, पित्त,और कफ़ में
से किसी एक दोष का प्रभाव भी यदि निर्धारित
मात्रा से बढ़ने या कम होने लगे तो जहाँ प्राकृतिक वातावरण बिगड़ने
लगता है| यदि यह
प्रभाव बहुत अधिक असंतुलित होने लगे तो प्राकृतिक वातावरण अधिक बिगड़ने लग
जाता
है|जिससे तरह तरह की प्राकृतिक दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं|ऐसा प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्य के
प्रतिकूल होने लग जाता है | ऐसे ही यदि कोई दो दोष असंतुलित हो जाएँ तो वातावरण और अधिक बिगड़ता जाता है |जिससे प्राकृतिक आपदाएँ अधिक घटित होने लगती हैं |यदि तीनों दोष असंतुलित हो जाएँ तो प्राकृतिक वातावरण बहुत अधिक बिगड़ जाता है |जीवन में में ऐसा होता है तो स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाता है |
मनुष्य आदि सभी प्राणियों को उचितमात्रा में वात पित्त आदि की आवश्यकता होती है |जीवन को जिस समय जितनी मात्रा में तापमान या वर्षा की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में मिलने पर ही मनुष्यादि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं | उस प्रकार के प्राकृतिक वातावरण में ही साँस लेकर मनुष्य आदि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं | उस मात्रा से
कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं | जो प्राणियों के लिए अच्छा नहीं होता है| त्रिदोषों का यह
असंतुलन रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला
होता है | इस असंतुलन से मनुष्यादि जीवों में कुछ उसप्रकार के रोग महारोग आदि पैदा होने लगते हैं|
वात पित्त आदि के असंतुलित होने पर उसप्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ भी
अधिक मात्रा में घटित होने लगती हैं | जो जिस क्रम और स्तर पर हमेंशा नहीं
देखी जाती हैं | प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होते ही
भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी
घटनाएँ निर्मित होने लगती हैं |ऐसा यदि लंबे होता रहा तो रोग और महारोग जन्म लेते देखे जाते हैं |
प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित
होने की प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने में कुछ वर्ष
लग जाते हैं | इसलिए ऐसे परिवर्तनों को प्रयत्न पूर्वक पहले से पहचाना जा सकता है |
प्रकृति जीवन और प्रतिरोधक क्षमता !
प्रतिरोधक
क्षमता से हमारा आशय ऐसी ऊर्जा से है जो प्रकृति और जीवन को उस समय सुरक्षित बचाकर रख सके जब निरंतर ऊर्जा देते रहने वाले स्रोत कुछ
समय के लिए अचानक अवरुद्ध हो जाएँ | !अर्थात उनसे जीवनीय ऊर्जा न मिलने
लगे | ऐसे समय यह प्रतिरोधक क्षमता प्रकृति और शरीरों को सुरक्षित बचाकर रख
सके |
मनुष्यों की तरह ही प्रकृति को भी स्वस्थ रहने के लिए संतुलित
त्रिदोषों की अर्थात प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है |जिस प्रकार से किसी कारखाने में बिजली बार बार आने जाने लगे तो मशीनें कभी बहुत तेज भागेंगी और कभी बंद होने लगेंगी | ऐसे समय उनमें आग न लग जाए या वे मशीनें बिगड़ न जाएँ |इसके लिए या तो मशीनें बंद कर दी जाएँ या फिर जनरेटर आदि वैकल्पिक ऊर्जा से उन्हें चलाते रहा जाए |
इसीप्रकार से वात पित्त आदि का प्रभाव जब अचानक बढ़ने घटने लगता है तब उस कारखाने की मशीनों की तरह प्राकृतिक व्यवस्था लड़खड़ाने लगती है | इस असंतुलन से भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी
घटनाएँ घटित होने लगती हैं |इसी प्रकार के अवरोध से रोग महारोग (महामारी) जैसी घटनाएँ घटित होने लगती हैं | ऐसे समय में मशीनों को सुरक्षित रखते हुए चलाते रहने के लिए जिस प्रकार से जनरेटर आदि वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग किया जाता है | उससे मशीनें भी नहीं बिगड़ती हैं और काम भी चलता रहता है | यह वैकल्पिक ऊर्जा ही प्रतिरोधक
क्षमता है जो प्राकृतिक असंतुलन में भी प्रकृति और जीवन को सुरक्षित बचाए रखती है और सभी कार्य भी संचालित होते रहते हैं |
सप्लाई इन त्रिदोषों के असंतुलित होते ही प्रकृति और जीवन में उसप्रकार से अवरोध उत्पन्न होने लगते हैं | जिसे
इसके लिए त्रिदोषों का संतुलित होना आवश्यक होता है| जब तक ऐसा
होता रहता है, तब तक प्रकृति स्वस्थ रहती है | प्रकृति के स्वस्थ रहने तक प्राकृतिक
उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है,अर्थात ऐसा अवसर जब तक रहता है तबतक भूकंप आँधी तूफान अति वर्षा चक्रवात बज्रपात उल्कापात आदि प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है |
प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी
घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में घटित होते देखी जाती हैं |प्राणियों की प्रतिरोधक
क्षमता घटने लगती है |जो हमेंशा नहीं देखी जाती हैं |यह प्रक्रिया महामारी आने के कुछ वर्ष पहले
ही प्रारंभ हो जाती है |प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही इसीक्रम में धीरे धीरे शरीर रोगी होते चले जाते
हैं | कुछ लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप से महामारी जैसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं| प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों
के असंतुलित होने की प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने
में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं | कुलमिलाकर त्रिदोषों की
साम्यावस्था जब तक शरीरों में बनी रहती है तब तक शरीर स्वस्थ एवं मन
प्रसन्न बना रहता है |वात पित्त और कफ की साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है! इन तीनों को साम्यावस्था में बनाए रखना ही चिकित्सा शास्त्र का उद्देश्य है | सामान्यरूप से
चिकित्सा का मतलब हमारे शरीरों में असंतुलित हुए वात पित्त कफ आदि को
संतुलन में लाना ही होता है | त्रिदोषों को जिस किसी भी प्रकार से संतुलित किया
जा सके वह सब चिकित्सा है|शरीरों
में वात पित्त कफ के असंतुलित हो जाने से यदि शरीर रोगी हो सकते हैं,तो इनके संतुलित हो जाने से शरीर स्वस्थ क्यों नहीं हो सकते हैं |
संतुलित त्रिदोष सुरक्षित रखते हैं प्रकृति और शरीर
मनुष्यों की तरह ही प्रकृति को भी स्वस्थ रहने के लिए संतुलित
त्रिदोषों की अर्थात प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है |प्रतिरोधक
क्षमता से हमारा आशय ऐसी ऊर्जा से है जो प्रकृति और जीवन को उस समय सुरक्षित बचाकर रख सके जब निरंतर ऊर्जा देते रहने वाले स्रोत कुछ
समय के लिए अचानक अवरुद्ध हो जाएँ | !अर्थात उनसे जीवनीय ऊर्जा न मिलने
लगे | ऐसे समय यह प्रतिरोधक क्षमता प्रकृति और शरीरों को सुरक्षित बचाकर रख
सके | इसके लिए त्रिदोषों का संतुलित होना आवश्यक होता है| जब तक ऐसा
होता रहता है, तब तक प्रकृति स्वस्थ रहती है | प्रकृति के स्वस्थ रहने पर प्राकृतिक
उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है|ऐसा अवसर जब तक रहता है तबतक भूकंप आँधी तूफान अतिवर्षा चक्रवात बज्रपात उल्कापात आदि प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है |
प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी
घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में घटित होते देखी जाती हैं |प्राणियों की प्रतिरोधक
क्षमता घटने लगती है |जो हमेंशा नहीं देखी जाती हैं |यह प्रक्रिया महामारी आने के कुछ वर्ष पहले
ही प्रारंभ हो जाती है |प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही इसीक्रम में धीरे धीरे शरीर रोगी होते चले जाते
हैं | कुछ लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप से महामारी जैसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं| प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों
के असंतुलित होने की प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने
में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं | कुलमिलाकर त्रिदोषों की
साम्यावस्था जब तक शरीरों में बनी रहती है तब तक शरीर स्वस्थ एवं मन
प्रसन्न बना रहता है |वात पित्त और कफ की साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है! इन तीनों को साम्यावस्था में बनाए रखना ही चिकित्सा शास्त्र का उद्देश्य है | सामान्यरूप से
चिकित्सा का मतलब हमारे शरीरों में असंतुलित हुए वात पित्त कफ आदि को
संतुलन में लाना ही होता है | त्रिदोषों को जिस किसी भी प्रकार से संतुलित किया
जा सके वह सब चिकित्सा है|शरीरों
में वात पित्त कफ के असंतुलित हो जाने से यदि शरीर रोगी हो सकते हैं,तो इनके संतुलित हो जाने से शरीर स्वस्थ क्यों नहीं हो सकते हैं |
पूर्वानुमान विज्ञान की खोज !
वातादि मापन प्रणाली !
गणितागत पूर्वानुमान !
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महामारी में किसे कितना खतरा !
महामारी में सुरक्षा के उपाय !
संक्रमितों की चिकित्सा !
मृतकों में महामारी की भूमिका |
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इसका मतलब प्राणियों के रोगी होने
का कारण कुछ ऐसा होता है जो हर समय समान रूप से विद्यमान रहता है|
इसमें विशेष बात यह है कि जब
जिनके त्रिदोष असंतुलित हो रहे होते हैं तब उनकी प्रतिरोधक क्षमता घटनी
शुरू हो जाती है | ऐसे लोग महामारी के बिना भी रोगी होते देखे जाते हैं
| त्रिदोषों का असंतुलन प्राकृतिक रूप से प्रारंभ होते ही प्राणियों की प्रतिरोधक क्षमता घटने लगती है | विशेष बात यह है कि इन त्रिदोषों में से किसी एक दोष से पीड़ित रोगी की
चिकित्सा करना आसान होता है | किसी को कफ दोष अर्थात सर्दी से कोई रोग हुआ
हो तो चिकित्सा की जानी इसलिए आसान होती है, क्योंकि उसे ठंडे खान पान रहन
सहन आदि से बचाते हुए गर्मप्रवृत्ति के खान पान रहन सहन औषधियों आदि से रोगमुक्ति मुक्ति मिल जाती है |
इसीप्रकार से किन्हीं
दो दोषों के प्रभाव से जो रोग पैदा होते हैं|उनमें रोग का स्वभाव पता किया
जाना कठिन होता है| इसलिए ऐसे रोगों से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा की जानी
भी कठिन होती है|ऐसे ही तीनों दोषों से पैदा हुए रोग और अधिक भयंकर हो
जाते हैं |जिनको समझना एवं उनकी चिकित्सा किया जाना अत्यंत कठिन या असंभव
सा होता है |
कुलमिलाकर जिन शरीरों में जब भी त्रिदोष असंतुलित होंने लगेंगे |उस समय उन लोगों के शरीरों में रोग पैदा होंगे ही | इतना अवश्य है कि प्राकृतिक वातावरण में वात पित्तादि त्रिदोषों का संतुलन भी यदि उसी समय बिगड़ने लग जाए तो ऐसे लोगों को अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है| ऐसे लोगों को महामारी आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय रोगी होने का भय अधिक होता है |
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