Wednesday, 18 June 2025

18-6-2025 mari


 प्राचीनकाल में भी आती थीं महामारियाँ और आपदाएँ  

    राजा का कर्तव्य शत्रुसेना से प्रजा की सुरक्षा करना तो होता ही है | इसके साथ ही साथ प्राकृतिक संकटों महामारियों से भी प्रजा की सुरक्षा करना राजा का कर्तव्य होता है| राजा के द्वारा किए गए विकास कार्यों एवं सुख सुविधाओं का सुख प्रजा को  तभी मिल पाएगा जब वह सुरक्षित रहेगी |  
   प्राकृतिकआपदाओं एवं महामारियों से प्रजा की सुरक्षा के लिए केवल प्रयत्न करना ही राजा का कर्तव्य नहीं है |   कर्तव्य परायण शासक को हर हाल में प्रजा की  सुरक्षा करनी ही होती है | शत्रु सेना प्रत्यक्ष हमला करती है जबकि प्राकृतिक आपदाएँ और महामारियाँ परोक्ष हमला करती हैं | प्रजा का भला चाहने वाले राजा को चाहिए की प्रत्यक्ष शत्रुओं को समझने तथा उनके विषय में खुपिया सूचनाएँ एकत्रित करने एवं उन्हें समाप्त करने के लिए प्रत्यक्ष प्रक्रिया अपनानी चाहिए | 
     इसी प्रकार से परोक्ष शत्रु भी होते हैं | जो प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ते हैं | उनका प्रभाव अवश्य दिखाई देता है | आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ भूकंप बज्रपात चक्रवात तथा महामारी जैसी घटनाओं के घटित होने के कारण प्रत्यक्ष दिखाई भले न देते हों किंतु इनके परोक्ष कारण होते हैं | उन्हें पहचानने के लिए परोक्ष विज्ञान की आवश्यकता है होती है | उसी के आधार पर ऐसी घटनाओं के बिषय में पूर्वानुमान तो लगाया जा ही सकता है | परोक्ष शत्रुओं से प्रजा की सुरक्षा भी परोक्ष विज्ञान के आधार पर ही की जा सकती  है | 
      स्वरशास्त्र में वर्णन  मिलता है कि जिस राजा को समय समय पर होने वाले प्राकृतिक परिवर्तनों एवं प्रकृति में अचानक उभरने वाले प्राकृतिक चिन्हों की पहचान होती है | उनका परिणाम पता होता है | वे  चिन्ह भविष्य में घटित होने वाली जिन घटनाओं की सूचना दे रहे होते हैं | उनका ज्ञान होता है |वह राजा प्राकृतिक संकटों से अपनी प्रजा की सुरक्षा करने में सफल हो जाता है | ऐसी घटनाओं आपदाओं या रोगों महारोगों से प्रजा को सुरक्षित बचाने के लिए पहले से जो जो सावधानियाँ बरती जानी चाहिए या जो जो तैयारियाँ करके रखी जानी चाहिए | वे सब आगे से आगे करके अपनी प्रजा की रक्षा कर लेता है | 
    प्राकृतिक चिन्ह कुछ घटनाओं के रूप में दिखाई देते हैं| जिन्हें प्रायः एक घटना मात्र मानकर भुला दिया जाता है,जबकि उन्हीं छोटी बड़ी घटनाओं का संग्रह करके उनके घटित होने से जो सूचनाएँ मिल रही होती हैं | उन पर ध्यान प्रायः नहीं दिया जाता है |
     कभी आँधी आती है तो कभी तूफान कभी चक्रवात आता है | कभी पूर्व से हवाएँ आ रही होती है तो कभी किसी अन्य दिशा से हवाएँ आते देखी जाती हैं |कभी कभी कई कई दिनों तक किसी एक ही दिशा की ओर से  हवाएँ चलते देखी जाती हैं | कभी बादल आते हैं | बादल कभी बिल्कुल काले तो कभी भूरे और कभी लाल होते हैं | कभी छोटे तो कभी बहुत बड़े बड़े बादल आते देखे जाते हैं | बादल कभी बरसते हैं | नहीं भी बरसते हैं हैं और बिना बरसे ही चले जाते हैं | वही बादल  कभी बहुत अधिक बरसते हैं और कभी बहुत कम  बरसते देखे जाते हैं | कभी बाढ़ आ जाती है | कभी बज्रपात होता है | कभी कभी बादल फट जाते हैं |  किसी वर्ष गर्मी बहुत अधिक पड़ती है तो किसी वर्ष बहुत कम पड़ती है | ऐसा सर्दियों में भी होता है |  कभी भूकंप आता है तो कभी नहीं आता है | कभी तीव्रता कम होती है तो कभी तीव्रता अधिक और कभी बहुत अधिक होती है | कभी कभी पहाड़ों समुद्रों एवं आकाश के रंग में बदलाव आने लगता है |  ऐसे ही सूर्य चंद्रादि ग्रहों नक्षत्रों एवं सूर्य चंद्र मंडलों से संबंधित अनेकों घटनाएँ दिखाई पड़ती हैं | 
    इसी प्रकार से पेड़ों पौधों अनाजों एवं अनेकों शाक सब्जियों फलों आदि के स्वरूप आकार प्रकार स्वाद  सुगंध आदि में छोटे छोटे परिवर्तन आ जाते हैं | कई बार कुछ फसलों से संबंधित पौधों की जड़ों पेड़ों या फूलों फलों में कुछ विशेष प्रकार के कीड़े  या रोग लगते देखे जाते हैं |कभीकभी कोई फसल अच्छी तो कभी कभी कोई फसल बहुत खराब निकल जाती है | कभी कभी वृक्षों के सुकोमल पत्तों में भी दरारें आने लगती हैं |  
      कभी कभी मनुष्यों  को रोगी ,मनोरोगी या क्रोधी कामी या विशेष बेचैन होते देखा जाता है | उन्मादित आंदोलित या हिंसक होते देखा जाता है | ऐसे ही पशु पक्षियों तथा  छोटे छोटे जीव जंतुओं एवं कीट पतंगों का स्वभाव व्यवहार आदि  बदलते देखा जाता है | 

प्राचीनकाल में प्रकृति के लक्षणों के आधार पर प्रकृति के भी स्वस्थ या अस्वस्थ होने की पहचान कर ली जाती थी |जिसप्रकार से मनुष्यों के स्वस्थ या अस्वस्थ होने के विभिन्न प्रकार के लक्षण होते हैं| उसीप्रकार से प्रकृति के रोगी होने के भी विभिन्न लक्षण उभरते हैं | मनुष्यों के रोग लक्षणों को देखकर रोगों की पहचान कर ली जाती है किंतु प्रकृति के रोग लक्षणों की पहचान  करना कठिन होता है | 

      इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे ऐसे यंत्रों का आविष्कार कर लिया गया है | जिनके आधार पर मनुष्यों के रोगों की जाँच करके रोगों का पता लगा लिया जाता है ,किंतु  प्रकृति संबंधी स्वास्थ्य परीक्षण के लिए ऐसे यंत्र भी नहीं होते हैं | इसलिए प्रकृति कब स्वस्थ है और कब अस्वस्थ है | ये पता लगाना संभव ही नहीं हो पाता है | इसीलिए  महामारियों की पहचान नहीं हो पाती है|प्राकृतिक वातावरण अचानक नहीं बदलता है |उसमें धीरे धीरे परिवर्तन होते हैं |  इसलिए वह भी उसी प्राकृतिक परिस्थिति से प्रभावित तो होता  है | 

               
   प्रकृति से जीवन है ! प्रकृति को समझो !
     
   प्रकृति के अस्वस्थ होते ही जीवन भी अस्वस्थ रहने लगता है |इसी स्थिति में रोग महारोग (महामारी )आदि पैदा होने लग जाते हैं |जीवन को स्वस्थ और सुरक्षित बनाए रखने के लिए प्राचीन काल में प्रकृति को स्वस्थ रखने का प्रयत्न निरंतर करते रहा जाता था !फिर भी प्रकृति में यदि कुछ बिकार दिखने लग जाते थे तो उन बिकारों के बढ़ने से जिन रोगों महारोगों के पैदा होने की संभावना बनती थी |उनसे सुरक्षा के लिए आगे से आगे तैयारियाँ करके रख ली जाती थीं | भविष्य में वैसे रोगों महारोगों से मनुष्य यदि पीड़ित होने लगते थे तो उनसे मुक्ति दिलाने की औषधियों या औषधीय द्रव्यों का आगे से आगे संग्रह करके रख लिया जाता था | 
    
     जीवन को स्वस्थ सुरक्षित बनाए और बचाए रखने के लिए प्रकृति में हो रहे ऐसे सभी परिवर्तनों को निरंतर देखने तथा परीक्षण करते रहने की आवश्यकता होती है | प्रकृति और जीवन के जिस अंग में जिस प्रकार के परिवर्तन हो रहे होते हैं | जिस समय हो रहे होते हैं | उन परिवर्तनों एवं उनके समयों के आधार पर उन  प्राकृतिक घटनाओं और महामारियों आदि के बिषय में सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लिया जाता है | जो भविष्य में घटित होने जा रही होती हैं |      
      प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों एवं उनके आधार पर घटित होने वाली घटनाओं का अनुभव करने के लिए प्राचीन काल में ऋषि मुनि जंगलों में रहा करते थे | कभी कभी प्रकृति में अचानक कुछ बदलाव तेजी से होने लगते थे |उनकी एवं भविष्य में पड़ने वाले उनके प्रभावों की सूचनाएँ  राजाओं तक तुरंत पहुँचाने के लिए ऋषि मुनि स्वयं राजदरवारों में जाया करते थे| राजालोग उनका बहुत स्वागत सत्कार किया करते थे | सूचनाओं सावधानियों पर सुरक्षात्मक  बिचार विमर्श किया जाता था | इसके बाद  ऋषि मुनि वापस जंगलों  में चले जाया करते थे |      
     प्राचीनकाल में अधिकाँश ऋषि मुनि भी गृहस्थ हुआ करते थे | उनके भी पत्नी बच्चे होते थे | वे भी चाहते तो  महानगरों में रह सकते थे | वहाँ उन्हें सुख सुविधापूर्ण जीवन मिल सकता था| महानगरों में परिवार सहित बसने में राजा लोग उन्हें उत्तम व्यवस्था दे सकते थे | ये सब तो हो सकता था किंतु महानगरों  में रहकर प्रतिपल प्रकृति का अनुभव किया जाना संभव न था | यही कारण है कि प्रतिपल परिवर्तित हो रहे प्राकृतिक वातावरण का अध्ययन करने के लिए ऋषिमुनि  जंगलों में निरंतर निवास किया करते थे | 
     ऋषिमुनियों का उद्देश्य यदि केवल तपस्या करना ही होता तो नगरों महानगरों के उत्तम आवासों में रहकर भी एकांत में तपस्या की जा सकती थी |ऐसा न होने पर भी जंगलों में ऋषिमुनियों के आश्रम पास पास बनाकर तपस्या तो तब भी की जा सकती थी |ऐसा करने से अलग अलग स्थानों की प्रकृति का परीक्षण किया जाना संभव न हो पाता | इसीलिए ऋषियों के आश्रम एक दूसरे से दूर दूर हुआ करते थे |        
      कुलमिलाकर प्राकृतिक परिवर्तनों का सर्वाधिक अनुभव  प्राकृतिक वातावरण में रहकर किया जा सकता है | इसीलिए प्राचीनकाल में राजालोग  अपना राजकाज  देखने की व्यस्तता में जितना भी समय मिल पाता था | वो प्राकृतिक वातावरण में व्यतीत करने का प्रयत्न किया करते थे| इसके लिए शिकार आदि के बहाने जंगलों बाग़ बगीचों खेतों खलिहानों नदियों तालाबों समुद्रों के आस पास भ्रमण किया करते थे | कई बार तो कई कई दिन सप्ताह महीने आदि जंगलों में ही घूमते रहते थे | उनका रहना खाना पीना सोना जागना जंगलों में ही हुआ करता था | जंगलों के प्राकृतिक वातावरण में बसकर प्राकृतिकपरिवर्तनों का स्वयं अनुभव किया करते थे | वहाँ रहने वाले मालियों किसानों पशु पालकों  मछुआरों बनबासियों आदि से प्राकृतिक परिवर्तनों एवं जीव जंतुओं के व्यवहार में आने वाले परिवर्तनों की जानकारियाँ लिया करते थे |
      इसके बाद  ऋषियों मुनियों के आश्रमों में जा जाकर उनसे उनके प्राकृतिक परवर्तनों से संबंधित अनुभवों का  पता किया करते थे | जिस परिवर्तन के प्रभाव से जिस प्रकार की प्राकृतिकघटनाओं  या रोगों महारोगों आदि के पैदा होने की संभावना लगती थी | उनसे प्रजा की सुरक्षा के लिए आगे से आगे तैयारियाँ की जाने लगती थीं | 
      कुलमिलाकर नगरों महानगरों जनपदों स्वस्थ और सुरक्षित रहने का रास्ता प्राकृतिक वातावरण से होकर जाता है | इसलिए प्राचीनकाल में प्राकृतिकवातावरण का अध्ययन अनुसंधान आदि करने में सभीप्रकार के प्रयत्न किए जाते थे | राजाओं का जितना ध्यान महानगरों के विकास एवं वहाँ की सुख सविधाओं पर होता था | उससे अधिक ध्यान प्राकृतिकपरिवर्तनों  पर दिया जाता था | यही कारण है कि राजा लोग प्राकृतिकपरिवर्तनों  का स्वयं अनुभव करने के लिए निश्चित आयु बीत जाने के बाद तपस्या करने जंगल चले जाते थे | 
                   बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥ 
       भावार्थ : मनुजी ने अपने पुत्र को जबर्दस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्री सहित वन को गमन किया।
                    संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन॥  
       भावार्थ :संतजन ऐसी नीति कहते हैं कि चौथेपन (बुढ़ापे) में राजा को वन में चला जाना चाहिए।
        बिचार किया जाए तो कहाँ राजपरिवारों का सुख सुविधापूर्ण जीवन कहाँ जंगलों का संघर्ष पूर्ण अभाव युक्त जीवन जीना बहुत कठिन होता था |इसके बाद भी वे जंगलों में निरंतर निवास किया करते थे | 
    प्राकृतिक वातावरण का अध्ययन अनुसंधान  आदि करने के लिए गुरुकुल जंगलों में बनाए जाते थे |उसी प्राकृतिक वातावरण राजपरिवारों के बच्चे भी पढ़ा करते थे | सभी विद्याओं के अध्ययन के साथ साथ प्राकृतिक परिवर्तनों का अनुभव भी कर लिया करते थे |
     भगवान् श्री राम को देश निकाला दिया जा सकता था | राम जी चाहते तो अयोध्या को छोड़कर किसी दूसरे देश में रहकर भी चौदह वर्षों का समय बिता सकते थे ,ऐसा न करके उन्हें 14 वर्षों का वनबास  दिए जाने के पीछे का उद्देश्य भी प्राकृतिक परिवर्तनों का अनुभव करना था | 
       गर्भिणी अवस्था में सीता जी को जनक पुर भी भेजा जा सकता था ,किंतु सीता जी के बच्चों को वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में प्राकृतिक वातावरण को समझने अनुभव करने का जो सौभाग्य मिला वो जनक पुर में नहीं मिल सकता था | 
       पांडवों को भी बारह वर्ष बनवास का उद्देश्य प्राकृतिक परिवर्तनों का अनुभव अभ्यास आदि करना ही था |  
   विशेष रूप से बिचार किया जाए तो कहाँ राजपरिवारों का सुख सुविधा पूर्ण जीवन और कहाँ बनवास का अत्यंत संघर्ष पूर्ण जीवन किंतु राज परिवारों में बनवास की परंपरा केवल इसीलिए थी ताकि प्रकृति संबंधी परिवर्तनों का अनुभव अभ्यास आदि किया जा सके,जिससे भविष्य में प्रजा पालन करने में कठिनाई न हो |  

 
 सब कुछ तो प्राकृतिक वातावरण से मिलता है फिर उसकी उपेक्षा क्यों ?

 
प्रकृति जीवन और महामारी 
    प्राचीनकाल में  प्रकृति परीक्षण तो होता ही था उसके साथ ही साथ  प्रकृतिपूजन  की भी परंपरा रही है |वर्तमान समय में भी भारत के विभिन्न प्रांतों में ऐसी परंपराओं का परिपालन अभी भी बहुत श्रृद्धा के साथ किया जाता है |  
मनुष्यादि प्राणियों का जीवन प्रकृति के आधीन होता है || प्रकृति रोगी होती है तो हम सब रोगी होते हैं | प्रकृति स्वस्थ होती है तो हम सब स्वस्थ रहते हैं | प्रकृति प्रसन्न होती है तो हम सब प्रसन्न रहते हैं | प्रकृति परेशान हो और हम प्रसन्न  रहें  ऐसा संभव नहीं है | 
      वस्तुतः प्रकृति माँ है और हम सब उसी के बच्चे हैं |साँस लेने के लिए वायु, पीने के लिए जल,भोजन के लिए आनाज दालें शाक सब्जियाँ फल फूल एवं रोग मुक्त  होने के लिए औषधियाँ आदि हमें सब कुछ तो प्रकृति से ही तो मिलता है | उसी से हम सभी प्राणी स्वस्थ और सुरक्षित रहते हैं | 
     प्रकृति के वातावरण में हम साँस लेते हैं | प्रकृति यदि रुग्ण होगी तो प्राकृतिक वातावरण भी रुग्ण होगा  | उसमे  हम साँस लेंगे तो हम भी रोगी होंगे | जल पिएँगे तो हम रोगी होंगे | आनाज दालें शाक सब्जियाँ आदि हम जो कुछ भी खाएँगे वो सब कुछ उसी प्राकृतिक वातावरण में ही पैदा हुआ होगा | उसी जल से सिंचित हुआ होगा और जो खाद्यपदार्थ अभी नहीं पहले पैदा  हुए होंगे उन पर भी उसी प्राकृतिक वातावरण का प्रभाव पड़ा होगा | 
    औषधियाँ भी उसी प्रकृति की अंग हैं | वे भी उसी प्राकृतिक वातावरण  से प्रभावित हो रही होती हैं | जो औषधि निर्मित हो चुकी होती है वह तो प्रभावित होती ही है | जो औषधि निर्मित नहीं भी हुई होती है | उसका निर्माण जिन खनिजों द्रव्यों या बनस्पतियों से होना होता है| वे सब उसी में पैदा हुई और उसी में पली बढ़ी होती हैं | इसलिए वह सब कुछ भी उसी वातावरण से प्रभावित हो रहा होता है | 
       प्राकृतिक रोग या महारोग  अर्थात महामारियाँ कभी इस रूप में नहीं पैदा होती हैं जो दिखाई पड़ता है | सच्चाई तो ये है कि महामारी किसी रोग के रूप में नहीं आती हैं,प्राकृतिक वातावरण में कभी कभी कुछ ऐसे जीवनीय तत्त्वों की कमी हो जाती है | जिससे संपूर्ण प्रकृति प्रभावित होती है |प्राकृतिक वातावरण में जिन जीवनीय तत्वों की  कमी हुई  होती है | वह कमी उस हवा में भी होती है | जिसमें साँस ली जाती है | उस जल में होती है | जिसे पिया जाता है | उन अनाजों दालों शाक सब्जियों फलों आदि खाद्यपदार्थों में होती है | जो उस वातावरण में पैदा हुए होते हैं | जिन्हें खाया जाता है |वह कमी औषधीय द्रव्यों एवं  बनस्पतियों में होती है |जिनसे औषधियाँ बनाई जाती हैं | वह कमी उसी अनुपात में मनुष्यादि समस्त प्राणियों के शरीरों में भी होती है | वह कमी सभी जीव जंतुओं में होती है |  वे भी उसी वातावरण  का सेवन कर रहे होते हैं |  

     ऐसी परिस्थिति में उस कमी से मनुष्यादि प्राणी एवं और सभी जीव जंतु रोगी होते हैं |इसका कारण मनुष्यों में उन जीवनीय तत्वों की कमी होना तो है ही ,इसके साथ ही साथ जिस हवा में मनुष्य साँस लेते हैं | उसमें भी  उन तत्वों की कमी होना है |जो अनाज दाल शाक सब्जी  फल आदि खाए जाते हैं | उनमें भी उन तत्वों की कमी होना है | ऐसे रोगों से मुक्ति दिलाने के लिए जिन औषधियों का उपयोग किया जाता है | उनमें भी उन तत्वों की कमी होती है |बनस्पतियों में भी उन तत्वों का अभाव होता है | 

      ऐसी स्थिति में प्राकृतिक वातावरण में साँस लेने से मनुष्यों में जिन जीवनीय तत्वों की कमी हुई होती है | उसकी पूर्ति न तो भोजन से हो रही होती है और न ही औषधियों से और न ही वृक्षों बनस्पतियों से हो रही होती है | उस कमी की पूर्ति हुए बिना रोगमुक्ति मिलनी संभव नहीं होती है |रोगमुक्ति दिलाने के लिए और किया भी क्या जा सकता है | जब संपूर्ण वातावरण  में ही उन तत्वों की कमी होती है | ऐसे रोगियों को रोगमुक्ति दिलाने के लिए चिकित्सा के नाम पर उन जीवनीय तत्वों की पूर्ति कैसे की जा सकती है |  

      इसीलिए ऐसे रोगों तभी मुक्ति मिल पाती है जब प्राकृतिक रूप से समय  बदलता है या फिर उस रोगी का अपना समय  बदलता है | प्राकृतिक रूप से समय  बदलने पर सभी रोगी साथ साथ स्वस्थ होते हैं | संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण में स्वतः ही उन तत्वों की पूर्ति होने लगती है | जिनके अभाव में वे सभी रोगी हुए होते हैं | 

    कभी कभी जिन लोगों का व्यक्तिगत रूप से अपना समय अच्छा होता है | इसलिए उन शरीरों में ऐसे तत्वों की भरपायी प्राकृतिक रूप से होती रहती है | इसलिए महामारी काल में भी वे रोगी नहीं होते हैं | कुछ लोगों में ऐसे तत्वों की इसलिए पहले वे रोगी हुए होते हैं किंतु  बाद में समय में सुधार हो जाने से उन शरीरों में उन जीवनीय तत्वों की प्राकृतिक से पूर्ति होने लगती है | जिससे उन्हें उन रोगों से प्राकृतिक रूप से ही मुक्ति मिलने लगती है | 

      ऐसे महारोगों में विशेषबात यह है कि पहले प्रकृति अस्वस्थ होती है | उसके बाद मनुष्यादि प्राणी अस्वस्थ होने लगते हैं | यदि देखा जाए तो स्वास्थ्य खराब होना उस दिन प्रारंभ हुआ होता है जब प्रकृति का रोगी होना प्रारंभ हुआ था | प्रकृति से मनुष्यों तक रोग के पहुँचने में कुछ महीनों का समय लग जाता है | इसलिए प्रकृति का रोगी होना प्रारंभ होते ही यदि ये पता लग जाता है कि प्रकृति का अस्वस्थ  होना प्रारंभ हो गया है | इसके परिणाम स्वरूप इस इस प्रकार के रोग हो सकते हैं | ऐसा पूर्वानुमान लगाकर उससे बचाव के लिए पहले ही सुरक्षा से संबंधित उपाय औषधियों आदि का संग्रह करके रखा जा सकता है |ऐसे उपायों से मनुष्यों को संक्रमित होने से बचाया जा सकता है तथा संक्रमितों को रोग मुक्ति दिलाने के लिए आवश्यक औषधियों को आगे से आगे तैयार करके रखा जा सकता है | इसमें विशेष बात यह है कि प्रकृति के रोगी होने से पूर्व यदि बनस्पतियों का संग्रह करके रख लिया जाए तो उनका प्रभाव सुरक्षित बना रहता है | उनका सेवन करने से रोगीयों को रोगमुक्ति मिलते देखी जाती है |         


    प्रकृति परेशान और हम प्रसन्न  कैसे संभव है ! 


                                                 विज्ञान और अनुसंधानों का परीक्षण                        

     भूकंप बाढ़ आँधी तूफान चक्रवात बज्रपात या महामारी जैसी जितनी भी प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती हैं | उनसे समाज की सुरक्षा की जानी तभी संभव है जब उनसे सुरक्षा के लिए तैयारियाँ पहले से करके रखी जाएँ | ऐसा किया जाना तभी संभव है जब ऐसी घटनाओं के बिषय में पहले से सही पूर्वानुमान लगाया जाना  संभव हो सके | किसी भी घटना के िषय में सही अनुमान पूर्वानुमान वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर महामारी प्रारंभ होने का या  संक्रमण बढ़ने का या प्राकृतिक आपदाओं के घटित होने के लिए काल्पनिक रूप से किसी भी कारण को जिम्मेदार बता भले दिया जाए कुछ भी बता दिया जाए या संक्रमण बढ़ने घटने का कारण कुछ भी बता दिया जाए ,किंतु उसके आधार पर उन घटनाओं का मिलान करके परीक्षण करना होगा | किसी भी घटना के बिषय में सही पूर्वानुमान लगाया जाना तभी संभव होगा जब उस घटना के घटित होने के लिए जिन कारणों को जिम्मेदार बताया जाए वे अनुमान सही निकलें | इसके बिना  भूकंप बाढ़ आँधी तूफान चक्रवात बज्रपात या महामारी जैसी  घटनाओं के बिषय में पहले से तैयारी की जानी संभव ही नहीं है |ऐसा किए बिना तत्काल की तैयारियों के बलपर  भूकंप बाढ़ आँधी तूफान चक्रवात बज्रपात या महामारी जैसी घटनाओं से समाज को सुरक्षित बचाया जाना संभव ही नहीं है | 

     विशेष बात यह है कि जिस प्राकृतिक प्रक्रिया से लोग संक्रमित हुए होते हैं | उस प्रक्रिया से ही लोगों को स्वस्थ होना होता है |लोग संक्रमित जिस प्रक्रिया से हुए होते हैं | वह प्रक्रिया प्रत्यक्ष दिखाई ही नहीं पड़ रही होती है | इसीलिए जब सभी लोग संक्रमण मुक्त होते हैं ,तब भी वह प्रक्रिया प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ती है | 

   महामारी संबंधी जब कोई लहर आती है तो  उसका कारण पता नहीं लग पाता है कि लोग आखिर संक्रमित क्यों होते जा रहे हैं और जब लोग संक्रमण मुक्त होने लगते हैं तो ये पता नहीं लग पाता  है कि वे अचानक स्वस्थ क्यों होते जा रहे हैं | इनके संक्रमित होने या स्वस्थ होने का कारण क्या है | 

       सन 2020  के जून जुलाई महीनों में लोग अचानक संक्रमण मुक्त होकर स्वस्थ होते जा रहे थे |ऐसे समय किसी को ये समझ में ही नहीं आ रहा था कि इन लोगों के स्वस्थ अर्थात रोग मुक्त होने का कारण क्या है | उस समय तक न तो कोई औषधि निर्मित या चिन्हित की जा सकी थी और न ही किसी टीके का निर्माण किया जा सका था |उसके बाद जुलाई के उत्तरार्द्ध से अचानक संक्रमण बढ़ने लगा था | जो 18 सितंबर 2020 को उन्नत स्तर पर पहुँचा था | उसके बाद फिर कम होने लगा था जो धीरे धीरे घटते घटते अक्टूबर नवंबर दिसंबर 2020 तक शांत हो गया था | 

     कुलमिलाकर सन 2020  के जून जुलाई एवं अक्टूबर नवंबर दिसंबर  महीनों में  लोगों के स्वतः संक्रमण मुक्त होते जाने का एवं 2020 के अगस्त सितंबर तथा 2021  के फरवरी मार्च अप्रैल महीनों में संक्रमण के अचानक संक्रमण बढ़ने लगने कोई तर्कसंगत कारण  खोजे बिना महामारी संबंधी किसी भी अनुसंधान का कोई औचित्य सिद्ध नहीं होता है | 

    कुल  मिलाकर  महामारियाँ प्राकृतिक कारणों से पैदा होती हैं और प्राकृतिक कारणों से ही शांत होती हैं | मनुष्यकृत प्रयत्नों से उन्हें शांत किया जाना कठिन होता है | महामारी से संक्रमित किसी व्यक्ति को चिकित्सा आदि के प्रभाव से यदि रोग मुक्ति मिल भी जाए तो भी वह पूर्णतः स्वस्थ इसलिए नहीं हो पाता  है, क्योंकि स्वस्थ होकर भी उसे उसी वातावरण में रहना होता है | जिसमें साँस लेकर वह रोगी हुआ था | जो कुछ खा पी कर वह पहले रोगी हुआ था | उस वातावरण में सॉंस  लेकर या वही सबकुछ खा पीकर उसका स्वस्थ रह पाना संभव नहीं हो पाता है | 

महामारी का विज्ञान और अनुसंधान 

     प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में अनुसंधान करते समय यदि आम लोग कल्पना करते हैं तो वैज्ञानिक भी कल्पना ही करते हैं|दोनों अपने अपने अनुभवों के आधार पर प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में अंदाजा लगाते हैं|दोनों के अंदाजे या अनुमान पूर्वानुमान कभी सही तो कभी गलत निकलते हैं| दोनों प्रक्रियाओं में वैज्ञानिक चिंतन का अभाव होता है | प्राकृतिक मामलों में न वैज्ञानिक कह सकते हैं कि ऐसा ही होगा और न ही  परंपरा से प्राप्त अनुभवों के आधार पर आम लोग ही कह सकते हैं कि  ऐसा ही होगा | ऐसी परिस्थिति में विज्ञान के योगदान को अलग से कैसे चिन्हित किया जाए | 

      नहरों में पानी छोड़े जाने पर उसकी गति के हिसाब से जैसे आम लोग अंदाजा लगा लेते हैं कि यह जल किस दिन कहाँ पहुँचेगा |ऐसे ही अधिक वर्षा होने के कारण गंगा में बाढ़ आने पर विशेषज्ञ लोग अंदाजा लगाते हैं कि ये बाढ़  का जल कब कहाँ  पहुँचेगा | इसी प्रकार से सुदूर आकाश में उपग्रहों रडारों से आँधी तूफान बादल आदि देख लिए जाते हैं | उनकी गति और दिशा के आधार पर अंदाजा लगा लिया जाता है कि ये कब किस देश या प्रदेश में पहुँचेंगे | 

      ऐसी परिस्थिति में नहरों में छोड़े गए पानी के कहीं पहुँचने के बिषय में अंदाजा लगाना हो या गंगा जी में आए बाढ़ के पानी के कहीं पहुँचने के बिषय में अंदाजा लगाना हो या आँधी तूफानों एवं बादलों के कहीं पहुँचने के बिषय में अंदाजा लगाना हो | इन तीनों प्रकार के अंदाजों को लगाने की प्रक्रिया लगभग एक जैसी होती है | इसमें विज्ञान का कोई योगदान नहीं होता है | 

      प्राकृतिकआपदाओं या महामारियों से संबंधित अनुसंधानों के करने का उद्देश्य जनता की सुरक्षा करना होता है | इस लक्ष्य का साधन तभी हो सकता है जब  जिस वर्षा गंगा जी में बाढ़ आई होती है| वह वर्षा होने के लिए उस प्रकार के बादल बनने कब प्रारंभ हुए होंगे |उसी वर्ष इतनी अधिक वर्षा का संयोग क्यों बना होगा |उसका कारण क्या रहा होगा | यह पता  लगाना जिस किसी भी वैज्ञानिक प्रक्रिया से संभव हो पाएगा | उसे मौसमविज्ञान कहा जाना तर्कसंगत होगा | 

     इसके अतिरिक्त जिस अनुसंधान प्रक्रिया से प्राप्त जानकारी के आधार पर मौसमसंबंधी घटनाओं को सही सही समझने एवं पूर्वानुमान लगाने में सफलता न मिल सकी हो | उसे उन से जोड़ कर उनका विज्ञान कहा जाना बिल्कुल तर्कसंगत नहीं है | ऐसे ही जिस विज्ञान के द्वारा भूकंपों के बिषय में कुछ पता ही नहीं लगाया जा सका हो | उसे भूकंप विज्ञान कैसे कहा जा सकता है |अभी  यह भी नहीं पता है कि भूकंपों के रहस्य को सुलझाने में या पूर्वानुमान लगाने में किस ज्ञानपद्धति के आधार पर भविष्य में  कब सफलता मिलेगी |जब जिस ज्ञानपद्धति से ऐसा करने में सफलता मिलेगी ,तब वही विश्वास करने योग्य भूकंपविज्ञान होगा |  

     ऐसे ही किसी भी  अनुसंधान प्रक्रिया को पर्यावरणविज्ञान तब तक कैसे कहा जा सकता है, जब तक उस ज्ञान पद्धति के  द्वारा पर्यावरण के सुधरने बिगड़ने के वास्तविक कारण न खोजे जा सकें|वायुप्रदूषण बढ़ने घटने के वास्तविक कारण न खोजे जा सकें | उन कारणों के आधार पर संभावित परिस्थितियों का पूर्वानुमान न लगाया जा सके | 

      कुल मिलाकर मेरी जानकारी के अनुसार प्राकृतिक घटनाओं को समझने के लिए या उनके बिषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि  लगाने के लिए न तो कोई विज्ञान है और न ही ऐसे अनुसंधान हैं | जिनके  द्वारा उन घटनाओं को सही सही समझा जा सके एवं प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जा सके | 

    जिस किसी भी घटना से संबंधित कोई विज्ञान है या नहीं ! इसका पता तो तभी लग सकेगा,जब उस अनुसंधान पद्धति से प्राप्त जानकारी  का परीक्षण  उस घटना पर ही किया जाए | उससे प्राप्त अनुमान पूर्वानुमान आदि उन घटनाओं के आधार पर सही निकलें | उसे उस घटना का विज्ञान मानना उचित होगा | 

    इसके अतिरिक्त किसी घटना के बिषय में की गई कोरी कल्पनाओं को उस घटना का विज्ञान कैसे माना जा सकता है | जिसके  आधार पर उस घटना के बिषय में जो जो कुछ समझा जा सका हो उसका घटना के साथ मिलान करने पर वो पूरी तरह से गलत निकलता जा रहा हो |

     इतनी बड़ी महामारी आ रही है इसके बिषय में पहले से कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका | महामारी की जितनी भी लहरें आईं उनके बिषय में पहले से सही पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका | जो अंदाजे लगाए भी जाते रहे  वे सही नहीं निकलते रहे | ऐसे ही महामारी का प्रसार कहाँ तक है |  महामारी का प्रसार माध्यम क्या है | महामारी में अंतर्गम्यता  कितनी है | महामारी कब समाप्त होगी  एवं महामारी की कौन लहर कब समाप्त होगी  | ऐसे बिषयों पर महामारी विज्ञान के आधार पर  या तो कुछ  पता नहीं लगाया जा सका या फिर जो पता लगाया गया वो सही नहीं निकलता रहा |जिस महामारी विज्ञान का महामारी से ही संबंध न सिद्ध हो सका हो, वह महामारी पीड़ितों की सुरक्षा में कैसे सहायक हो सकता है | 

      ऐसे ही विशेषज्ञों के द्वारा कहा गया कि तापमान बढ़ने पर महामारीजनित संक्रमण कम होगा और तापमान कम होने पर संक्रमण बढ़ेगा,किंतु ऐसा हुआ नहीं | केवल तीसरी लहर को छोड़कर बाक़ी सभी लहरें तब आईं जब तापमान बढ़ा हुआ था | महामारी विज्ञान के आधार पर लगाए गए इसप्रकार के अनुमान सही नहीं निकले | 

    ऐसे ही कहा गया कि वायुप्रदूषण बढ़ने से संक्रमण बढ़ता है,किंतु 2020 के अक्टूबर नवंबर में जब वायु प्रदूषण बहुत बढ़ा हुआ था उस समय महामारीजनित संक्रमण दिनों दिन घटता जा रहा था  | दूसरी ओर मार्च अप्रैल 2021 जब पूरी तरह वायु प्रदूषण मुक्त वातावरण था | उसी समय भारत में महामारी की सबसे भयानक लहर आई थी |इस बिषय में भी  महामारी विज्ञान के आधार पर पता लगाया गया अनुमान सही नहीं निकला | 

   इसी प्रकार से और भी बहुत सी ऐसी जानकारियाँ महामारीविज्ञान के आधार पर बताई गईं | जिनका महामारी के साथ मिलान करने पर वे गलत निकलती चली गईं |

        इस सच्चाई  को ही आधार बनाकर कर यदि सोचा जाए तो महामारी को समझने में वैदिकज्ञान पद्धति के अतिरिक्त किसी अन्य परंपरा को अभी तक कोई सफलता नहीं मिल सकी है |  अपने द्वारा किए गए  महामारी वैदिकविज्ञान को भी मैने इसी कसौटी पर कसा है | इसके आधार पर महामारी एवं उसकी लहरों के बिषय में जो जानकारी प्राप्त हुई | महामारी पर परीक्षण करने के बाद सही निकलने पर ही मैंने उसे वैदिक महामारी विज्ञान माना है | 

 


No comments: