चिंता की बात है !
सभीप्रकार के प्राकृतिक संकटों के आने के एक दिन पहले तकउनके विषय में किसी वैज्ञानिकों को कुछ पता नहीं होता है और संकट बीत जाने के बाद उससे संबंधित वैज्ञानिकों के अनुसंधानों की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है ऐसी परिस्थिति में उस प्रकार के अनुसंधानों की आवश्यकता है क्या है जो बीते सौ दो सौ वर्षों में अपनी उपयोगिता ही ही नहीं सिद्ध कर सके ?प्राकृतिक विषयों में वैज्ञानिकों का यह ढुलमुल रवैया अत्यंत चिंताजनक है | महामारी हो या मौसम किसी क्षेत्र में वैज्ञानिकों की कोई सार्थक भूमिका क्यों नहीं दिखाई पड़ रही है | प्राकृतिक आपदा आने से पहले वे उसके विषय में कुछ भी बता पाने में कभी सफल नहीं हुए हैं और प्राकृतिक आपदाएँ जब बीत जाती हैं तब वही वैज्ञानिक लोग महामारी या मौसम से संबंधित प्राकृतिक आपदाओं के विषय में भविष्य से संबंधित तरह तरह की डरावनी अफवाहें फैलाने लगते हैं | जो गलत है वैज्ञानिक अनुसंधानों का यह उद्देश्य तो नहीं ही है |
इसलिए प्राकृतिक अनुसंधानों को भी कसौटी पर कसे जाने की आवश्यकता है इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि जिसप्रकार के अनुसंधान जिस वर्ग के जिस प्रकार का संकट कम करने के लिए किए या करवाए जाते हैं या जिस वर्ग की कठिनाइयाँ कम करके उन्हें सुख सुविधा पहुँचाने के लिए किए या करवाए जाते हैं | ऐसे अनुसंधान संकटकाल में उस वर्ग का उससे संबंधित संकट कम करने में कितने प्रतिशत सफल हुए |कितने प्रतिशत उनकी कठिनाइयाँ कम की जा सकीं एवं अनुसंधानों से संबंधित वर्ग को कितनी सुख सुविधा पहुँचाई जा सकी उसके आधार पर उन अनुसंधानों की सफलता और असफलता का मूल्याङ्कन होना चाहिए | जो अनुसंधान अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में जितने प्रतिशत सफल होते दिखाई दें उन्हें उतने प्रतिशत ही सफल माना जाना चाहिए | जो अनुसंधान अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में पूरी तरह ही असफल रहे हों ऐसे निरर्थक कार्यों को अनुसंधान की श्रेणी से अलग कर दिया जाना चाहिए और उन अनुसंधानों पर होने वाले व्यर्थ के व्ययभार से जनता की रक्षा की जानी चाहिए क्योंकि जनता के द्वारा टैक्स रूप में सरकारों को दी गई उसके खून पसीने की कमाई अनुसंधान कार्यों पर भी सरकारें खर्च किया करती है | उसके बदले ऐसे अनुसंधानों से जनता को भी कुछ तो मदद मिलनी ही चाहिए | जिनसे कोई मदद नहीं मिलती या मिल सकती है उस प्रकार के अनुसंधानों का बोझ जनता पर थोपा ही क्यों जाए !
भूकंपों से संबंधित अनुसंधान इतने लंबे समय से चलाए जा रहे हैं उनसे जनता को कितनी मदद पहुँचाई जा सकी है इस बात की समीक्षा तो होनी चाहिए |वैज्ञानिक अनुसंधानों से भूकंपों को रोकना तो संभव है ही नहीं केवल इनका पूर्वानुमान ही लगाने के लिए बड़े बड़े अनुसंधान चलाए जा रहे हैं | कोई भूकंप कब आएगा इसका पूर्वानुमान लगाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है और न ही वैज्ञानिकों के द्वारा ऐसे कोई दावे किए ही जा रहे हैं | दूसरी बात भूकंप आते क्यों हैं उसका कारण खोजना सबसे कठिन काम है | कोरोना महामारी के समय एक डेढ़ वर्ष में केवल भारत में एक हजार से अधिक भूकंप आए हैं ऐसा क्यों हुआ किसी को नहीं पता है |
2018 अप्रैल मई जून में आने वाले पूर्वोत्तर भारत के हिंसक आँधी तूफानों के विषय में जिन मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा कभी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकी थी उन्हीं मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा 8 मई 2018 को भीषण आँधी तूफ़ान आने की भविष्यवाणी कर दी गई ,मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी से भयभीत सरकारों ने दिल्ली और दिल्ली के आसपास के स्कूल कालेज बंद करवा दिए जबकि हवा का एक झोंका भी नहीं आया | ऐसे ही अगस्त 2018 में केरल में भीषण बाढ़ आई जिसके विषय में कभी कोई पूर्वानुमान नहीं बताया जा सका था |
वायु प्रदूषण के विषय में पूर्वानुमान लगाना तो दूर आज तक यही नहीं बताया जा सका कि वायु प्रदूषण बढ़ने का वास्तविक कारण क्या है ? दीपावली के पटाखों को वायु प्रदुषण बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताने वाले यह नहीं सोचते कि चीन में तो दीवाली नहीं मनती वहाँ क्यों बढ़ा हुआ है वायु प्रदूषण !
महामारी संक्रमण बढ़ने के लिए जो वैज्ञानिक लोग वायु प्रदूषण को जिम्मेदार बताते हैं वे ये क्यों नहीं सोचते कि जिन देशों प्रदेशों में वायु प्रदूषण नहीं बढ़ता है | वहाँ कोरोना संक्रमण क्यों बढ़ता है ? जो लोग कोरोना नियमों का पालन न करने वाली भीड़ों को कोरोना संक्रमण बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताते हैं वे दिल्ली में किसानों का आंदोलन ,महानगरों से मजदूरों का पलायन बिहार बंगाल की चुनावी भीड़ें एवंहरिद्वार कुंभ की भीड़ आखिर वे क्यों भूल जाते हैं | जो लोग लगाने से कोरोना संक्रमण नियंत्रित बात पर विश्वास करते हैं उन्हें यह भी सोचना चाहिए केरल जैसे राज्य जहाँ वायु प्रदूषण सबसे कम रहता है वैक्सीनेशान में भी सबसे आगे रहा इसके बाद भी सबसे अधिक कोरोना संक्रमितों की संख्या वहीँ रही | अमेरिका जैसे देशों में और दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में चिकित्सा की सर्वोत्तम व्यवस्थाएँ होने के बाद भी कोरोना संक्रमण सबसे अधिक यहीं बढ़ा | जो संपन्न वर्ग जितने अधिक कोरोना नियमों का पालन करता रहा कोरोना से सबसे अधिक वही वर्ग संक्रमित हुआ है | कोरोना महामारी के विषय में वैज्ञानिकों ने कभी कुछ बताया ही नहीं और जब जब जो जो अनुमान या पूर्वानुमान बताए वे सभी गलत निकलते चले गए इसके बाद भी तीसरी लहर की अफवाह फैलाने से वे बाज नहीं आए जिसका कि कोई वैज्ञानिक आधार ही नहीं था |
इसी प्रकार जिन भूकंपों के आने से पहले उसके विषय में जिन वैज्ञानिकों के द्वारा कभी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकी होती है एक बार भूकंप आ जाने के बाद वही वैज्ञानिक रोज कोई न कोई भूकंप आने की भविष्यवाणी कर दिया करते हैं | कुछ समय तक इस प्रकार का क्रम चला करता है इसके बाद जब कोई भूकंप नहीं आता तो वैज्ञानिक भी शांत हो जाया करते हैं | ऐसी अफवाहों से वैज्ञानिकों का भले न कुछ बिगड़ता हो किंतु जनता तो परेशान होती ही है |
जिन प्राकृतिक घटनाओं के विषय में जो वैज्ञानिक लोग कभी पूर्वानुमान नहीं लगा पाते उनके घटित होने का कारण नहीं खोज पाते अपनी असफलताओं को भुलाने के लिए वही लोग अफवाहें फैला फैलाकर जनता का तनाव बढ़ाया करते हैं जनता न खाली रहेगी न वो वैज्ञानिकों की असफलताओं के विषय में सोचेगी | इसके अतिरिक्त और दूसरा कोई तर्कसंगत कारण नहीं दिखता है |
सारी दुनियाँ देख रही है कि कोरोना महामारी में वैज्ञानिकों की ऐसी कोई सार्थक भूमिका दूर दूर तक नहीं दिखाई पड़ी है जिससे प्राकृतिक आपदाओं के समय समाज को कभी कोई मदद मिल सकी हो | कोरोना महामारी के समय जनता आपदा से अकेली जूझती रही | अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों अनुभवों से कुछ अफवाहों के अतिरिक्त और जनता को क्या मदद पहुँचाई जा सकी |
कुल मिलाकर मौसम एवं महामारी के विषय में जिस आधुनिक विज्ञान संबंधी अनुसंधानों पर जनता का पैसा पानी की तरह बहाया जाता है क्या उस विज्ञान में यह क्षमता ही नहीं है कि उसके द्वारा ऐसे विषयों में कोई सार्थक अनुसंधान किया जा सके | उन झूठी भविष्यवाणियों को सच की तरह परोसते रहना मीडिया की अपनी मजबूरी होती है |
कोरोना महामारी को ही लें तो जब तक महामारी है तब तक महामारी के विषय में वैज्ञानिक कुछ भी पता नहीं लगा पा रहे हैं और महामारी समाप्त होने के बाद वो जो जो कुछ बताएंगे भी उस पर विश्वास किस आधार पर कर लिया जाएगा |क्योंकि महामारी के विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा जो जो कुछ बोला गया वो संपूर्ण रूप से गलत निकला है |
विदेशों में अमेरिका ब्रिटेन जैसे देशों में चिकित्सा व्यवस्थाएँ बहुत अच्छी थीं |वहाँ वैक्सीन भी समय से लगती रही इसके बाद भी लोग बड़ी मात्रा में संक्रमित होते रहे हैं |
भारत में दिल्ली मुंबई में चिकित्सा व्यवस्था देश के अन्य स्थानों की
अपेक्षा अधिक उन्नत हैं जबकि सबसे अधिक यहीं के लोग महामारी से अधिक तंग
हुए हैं | यहाँ तक कि केरल में वैक्सीनेशन अन्य प्रदेशों की अपेक्षा अधिक
हुआ किंतु केरल सबसे अधिक पीड़ित हुआ आखिर क्यों ?
कुछ वैज्ञानिक लोग इसका कारण जो लोग जलवायु परिवर्तन को बता रहे उन्हें यह सोचना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन क्रमिक और लगातार चलने वाली व्यवस्था है जबकि प्राकृतिक घटनाएँ तो कभी कभी घटित होती हैं |
सच्चाई ये है कि मानसून आने जाने से संबंधित इनकी कोई भविष्यवाणी कभी सही नहीं निकली अब तारीखों में परिवर्तन करके थोड़ा समय इस बहाने काट लिया जाएगा |